महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-132
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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कृष्णेन कुन्तींप्रति सप्रणामं सभावृत्तन्तकथनम् ।। 1 ।।
कुन्त्या कृष्णचोदनया तस्मिन् युधिष्ठिराय संदेशप्रेषणम् ।। 2 ।
वैशंपायन उवाच। | 5-132-1x |
प्रविश्याथ गृहं तस्याश्चरणावभिवाद्य च। | 5-132-1a 5-132-1b |
वासुदेव उवाच। | 5-132-2x |
उक्तं बहुविधं वाक्यं ग्रहणीयं सहेतुकम्। | 5-132-2a 5-132-2b |
कालपक्वमिदं सर्वं सुयोधनवशानुगम्। | 5-132-3a 5-132-3b 5-132-3c |
किं वाच्याः पाण्डवेयास्ते भवत्या वचनान्मया । | 5-132-4a 5-132-4b |
कुन्त्युवाच। | 5-132-5x |
ब्रूयाः केशव राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् । | 5-132-5a 5-132-5b |
श्रोत्रियस्येव ते राजन्मन्दकस्याविपश्चितः । | 5-132-6a 5-132-6b |
अङ्गावेक्षस्व धर्मं त्वं यथा सृष्टः स्वयंभुवा । | 5-132-7a 5-132-7b |
क्रूराय कर्मणे नित्यं प्रजानां परिपालने। | 5-132-8a 5-132-8b |
मुचुकुन्दस्य राजर्षेरददत्पृथिवीमिमाम्। | 5-132-9a 5-132-9b |
बाहुवीर्यार्जितं राज्यमश्रीयामिति कामये। | 5-132-10a 5-132-10b |
मुचुकुन्दस्ततो राजा सोऽन्वशासद्वसुन्धराम् । | 5-132-11a 5-132-11b |
यं हि धर्मं चरन्तीह प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः । | 5-132-12a 5-132-12b |
राजा चरति चेद्धर्मं देवत्वायैव कल्पते। | 5-132-13a 5-132-13b |
दण्डनीतिः स्वधर्मेण चातुर्वर्ण्यं नियच्छति। | 5-132-14a 5-132-14b |
दण्डनीत्यां यदा राजा सम्यक्कार्त्स्न्येन वर्तते। | 5-132-15a 5-132-15b |
कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम् । | 5-132-16a 5-132-16b |
राजा कृतयुगस्रष्टा त्रेताया द्वापरस्य च। | 5-132-17a 5-132-17b |
कृतस्य करणाद्राजा स्वर्गमत्यन्तमश्रुते । | 5-132-18a 5-132-18b |
प्रवर्तनाद्द्वापरस्य यथाभागमुपाश्रुते । | 5-132-19a 5-132-19b |
ततो वसति दुष्कर्मा नरके शाश्वतीः समाः । | 5-132-20a 5-132-20b |
राजधर्मानवेक्षस्व पितृपैतामहोचितान्। | 5-132-21a 5-132-21b |
न हि वैक्लब्यसंसृष्ट आनृशंस्ये व्यवस्थितः । | 5-132-22a 5-132-22b |
न ह्येतामाशिषं पाण्डुर्न चाहं न पितामहः । | 5-132-23a 5-132-23b |
यज्ञो दानं तपः शौर्यं प्रज्ञा सन्तानमेव च । | 5-132-24a 5-132-24b |
नित्यं स्वाहा स्वधा नित्यं दद्युर्मानुषदेवताः । | 5-132-25a 5-132-25b |
पुत्रेष्वाशासते नित्यं पितरो दैवतानि च। | 5-132-26a 5-132-26b |
एतद्धर्ममधर्मं वा जन्मनैवाभ्यजायथाः । | 5-132-27a 5-132-27b |
यत्र दानपतिं शूरं क्षुधिताः पृथिवीचराः । | 5-132-28a 5-132-28b |
दानेनान्यं बलेनान्यं तथा सूनृतयाऽपरम्। | 5-132-29a 5-132-29b |
ब्राह्मणः प्रचरेद्भैक्षं क्षत्रियः परिपालयेत्। | 5-132-30a 5-132-30b |
भैक्षं विप्रतिषिद्धं ते कृषिर्नैवोपपद्यते । | 5-132-31a 5-132-31b |
पित्र्यमंशं महाबाहो निमग्नं पुनरुद्धर । | 5-132-32a 5-132-32b |
इतो दुःखतरं किं नु यदहं दीनबान्धवा। | 5-132-33a 5-132-33b |
युध्यस्व राजधर्मेण मा निमञ्जीः पितामहान् । | 5-132-34a 5-132-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते |
5-132-5 भूयान् पृथ्वीपालनजो धर्मः ।। 5-132-6 श्रोत्रियस्य वेदाध्यायिनः । मन्दकस्य अर्थज्ञानशून्यस्य । अनुवाकेन अत्यन्तं वेदाक्षसंवृत्त्या हता नष्टाः ।। 5-132-20 जगतः दोषेण सच राजा स्पृश्यते ।। 5-132-22 फलं न लब्धवान् असीति शेषः ।। 5-132-25 नित्यमिति । मानुषाश्च देवताश्च सम्यगाराधिताः सत्यः इह लोके आयुरादीनि परलोकसाधनानि स्वधादीनि सत्कर्माणि च दद्युः ।। 5-132-27 एतत् मद्वाक्यं धर्मं धर्मयुक्तं अधर्मं च जन्मनैव स्वभावत एव अभ्यजायथाः अभिजानीषे। हे कृष्ण ते तु पाण्डवास्तु वैद्याः विद्यावन्तः ।। 5-132-29 राज्य राजत्वं क्षत्रियत्वमित्यर्थः ।।
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