महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-163
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुनादिभिः सर्वैरुलूकद्वारा पृथक्पृथग्दुर्योधनंप्रति प्रतिसन्देशप्रेषणम् ।। 1 ।।
उलूकेन दुर्योधनंप्रति युधिष्ठिरादिप्रतिसन्देशकथनम् ।। 2 ।।
दुर्योधनाज्ञया कर्णेन सेनासु युद्धसन्नाहोद्धोषणम् ।। 3 ।।
सञ्जय उवाच। | 5-163-1x |
दुर्योधनस्य तद्वाक्यं निशम्य भरतर्षभ । | 5-163-1a 5-163-1b |
स केशवमभिप्रेक्ष्य गुडाकेशो महायशाः । | 5-163-2a 5-163-2b |
स्ववीर्यं यः समाश्रित्य समाह्वयति वै परान् । | 5-163-3a 5-163-3b |
परवीर्यं समाश्रित्य यः समाह्वयते परान् । | 5-163-4a 5-163-4b |
स त्वं परेषां वीर्येण मन्यसे वीर्यमात्मनः । | 5-163-5a 5-163-5b |
यस्त्वं वृद्धं सर्वराज्ञां हितबुद्धिं जितेन्द्रियम् । | 5-163-6a 5-163-6b |
भावस्ते विदितोऽस्माभिर्दुर्बुद्धे कुलपांसन । | 5-163-7a 5-163-7b |
यस्य वीर्यं समाश्रित्य धार्तराष्ट्र विकत्थसे। | 5-163-8a 5-163-8b |
कैतव्य गत्वा भरतान्समेत्य | 5-163-9a 5-163-9b 5-163-9c 5-163-9d |
सुयोधनं धार्तराष्ट्रं वदस्व ।। | 5-163-10f |
हन्यामहं द्रोणमृतेऽपि लोकं | 5-163-11a 5-163-11b 5-163-11c 5-163-11d |
स दर्पपूर्णो न समीक्षसे त्व- | 5-163-12a 5-163-12b 5-163-12c 5-163-12d |
सूर्योदये युक्तसेनः प्रतीक्ष्य | 5-163-13a 5-163-13b 5-163-13c 5-163-13d |
श्वोभूते कत्थनावाक्यं विज्ञास्यति सुयोधनः। | 5-163-14a 5-163-14b |
यदुक्तश्च सभामध्ये पुरुषो ह्रस्वदर्शनः। | 5-163-15a 5-163-15b |
अधर्मज्ञो नित्यवैरी पापबुद्धिर्नृशंसकृत्। | 5-163-16a 5-163-16b |
अभिमानस्य दर्पस्य क्रोधपारुष्ययोस्तथा। | 5-163-17a 5-163-17b |
नृशंसतायास्तैक्ष्ण्यस्य धर्मविद्वेषणस्य च। | 5-163-18a 5-163-18b |
दर्शनस्य च चक्रस्य कृत्स्नस्यापनयस्य च। | 5-163-19a 5-163-19b |
वासुदेवद्वितीये हि मयि क्रुद्धे नराधम। | 5-163-20a 5-163-20b |
शान्ते भीष्मे तथा द्रोणे सूतपुत्रे च पातिते। | 5-163-21a 5-163-21b |
भ्रातॄणां निधनं श्रुत्वा पुत्राणां च सुयोधन । | 5-163-22a 5-163-22b |
न द्वितीयां प्रतिज्ञां हि प्रतिजानामि कैतव । | 5-163-23a 5-163-23b |
युधिष्ठिरोऽपि कैतव्यमुलूकमिदमब्रवीत्। | 5-163-24a 5-163-24b |
स्वेन वृत्तेन मे वृत्तं नाधिगन्तुं त्वमर्हसि । | 5-163-25a 5-163-25b |
न चाहं कामये पापमपि कीटपिपीलकयोः। | 5-163-26a 5-163-26b |
एतदर्थं मया तात पञ्च ग्रामा वृताः पुरा। | 5-163-27a 5-163-27b |
स त्वं कामपरीतात्मा मूढभावाच्च कत्थसे। | 5-163-28a 5-163-28b |
किंचेदानीं बहूक्तेन युध्यस्व सह बान्धवैः। | 5-163-29a 5-163-29b |
मम विप्रियकर्तारं कैतव्य ब्रूहि कौरवम् ।। | 5-163-30a 5-163-30b |
भीमसेनस्ततो वाक्यं भूय आह नृपात्मजम् ।। | 5-163-31a 5-163-31b |
शठं नैकृतिकं पापं दुराचारं सुयोधनम् ।। | 5-163-32a 5-163-32b |
प्रतिज्ञातं मया यच्च सभामध्ये नराधम ।। | 5-163-33a 5-163-33b |
दुःशासनस्य रुधिरं हत्वा पास्याम्यहं मृधे ।। | 5-163-34a 5-163-34b |
सर्वेषां राजपुत्राणामभिमन्युरसंशयम् । | 5-163-35a 5-163-35b |
हत्वा सुयोधन त्वां वै सहितं सर्वसोदरैः । | 5-163-36a 5-163-36b |
नकुलस्तु ततो वाक्यमिदमाह महीपते। | 5-163-37a 5-163-37b |
श्रुतं ते गदतो वाक्यं सर्वमेव यथातथम्। | 5-163-38a 5-163-38b |
सहदेवोऽपि नृपते इदमाह वचोऽर्थवत् । | 5-163-39a 5-163-39b |
शोचिष्यसे महाराज सपुत्रज्ञातिबान्धवः । | 5-163-40a 5-163-40b |
विराटद्रुपदौ वृद्धावुलूकमिदमूचतुः । | 5-163-41a 5-163-41b 5-163-41c |
शिखण्डी तु ततो वाक्यमुलूकमिदमब्रवीत् । | 5-163-42a 5-163-42b |
पश्य त्वं मां रणे राजन्कुर्वाणं कर्म दारुणम् । | 5-163-43a 5-163-43b |
तमहं पातयिष्यामि रथात्तव पितामहम्। | 5-163-44a 5-163-44b |
सोऽहं भीष्मं हनिष्यामि मिषतां सर्वधन्विनाम् । | 5-163-45a 5-163-45b |
सुयोधनो मम वचो वक्तव्यो नृपतेः सुतः। | 5-163-46a 5-163-46b |
अवश्यं च मया कार्यं पूर्वेषां चरितं महत् । | 5-163-47a 5-163-47b |
तमब्रवीद्धर्मराजः कारुण्यार्थं वचो महत्। | 5-163-48a 5-163-48b |
तवैव दोषाद्दुर्बुद्धे सर्वमेतत्त्वनावृतम् । | 5-163-49a 5-163-49b |
इह वा तिष्ठ भद्रं ते वयं हि तव बान्धवाः । | 5-163-50a 5-163-50b |
आमन्त्र्य प्रययौ तत्र यत्र राजा सुयोधनः । | 5-163-51a 5-163-51b |
अर्जुनस्य समादेशं यथोक्तं सर्वमब्रवीत् । | 5-163-52a 5-163-52b |
नकुलस्य विराटस्य द्रुपदस्य च भारत । | 5-163-53a 5-163-53b 5-163-53c |
कैतव्यस्य तु तद्वाक्यं निशम्य भरतर्षभः । | 5-163-54a 5-163-54b |
आज्ञपयत राज्ञश्च बलं मित्रबलं तथा। | 5-163-55a 5-163-55b |
ततः कर्णसमादिष्टा दूताः सन्त्वरिता रथैः । | 5-163-56a 5-163-56b |
तूर्णं परिययुः सेनां कृत्स्नां कर्णस्य शासनात्। | 5-163-57a 5-163-57b |
।। इति श्रीमन्महाभारते |
5-163-6 वृद्धं बाह्लिकं भीष्मं च ।। 5-163-10 सत्यसंधो भीष्मः । भीष्मवाक्यमेवाह अहं हन्तेति। हे कैतव्य अहं हन्तेत्यादि मदीयं वाक्यं भरतान् पाण्डवान्प्रति गत्वा वदस्व । किं कृत्वा सुयोधनं समेत्य मदीयं संदेशं दुर्योधनाय श्रावयित्वा पाण्डवान्प्रति कथयेत्यर्थः। तेन दुर्योधनसुखं पाण्डवानां भयं चोदेष्यतीति भावः ।। 5-163-11 द्रोणमृतेपि द्रोणंविनाप्यसहाय एवाहं लोकं हन्याम्। ततो भीष्मवाक्यात्। ते तव भाव एवंभूतो जात इत्यर्थः ।। 5-163-12 हन्ता हनिष्यामि। कुरुवृद्धं भीष्मम् ।। 5-163-13 यो युक्तसेनो ध्वजी रथी तं रक्षतेति योजना ।। 5-163-19 दर्शनं कर्णादिषु जयनिश्चयः । चक्रं सेनाया आधिक्यम् । अपनयः अस्माकं दूरीकरणम् । एतेषां फलं द्रक्ष्यसि।। 5-163-25 वेद विद्मि ।। 5-163-27 हे सुदुर्बुद्धे तव व्यसनं मरणागमं कथमपि न प्रेक्ष्ये इति हेतोः पञ्चग्रामा वृता इति संबन्धः ।। 5-163-41 साधोः दासभावं नियच्छेव नितरां यच्छेव प्रार्थयावहे । तौ च आवां दासावदासौवेति यस्य तव यादृशं पौरुषं तत्तथैव श्वो द्रक्ष्याव इति शेषः ।। 5-163-44 वधात् वधहेतोः ।। 5-163-47 पूर्वेषां चरितं द्रोणवधेन पितृवैरप्रतियातनम् ।। 5-163-49 अनावृतं विस्पष्टम् ।।
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