महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-037
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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धृतराष्ट्रेण अल्पायुष्ट्वकारणप्रश्ने विदुरेण तदभिधाय नीतिकथनपूर्वकं कुरुपाण्डवसन्धिकरणविधानम् ।। 1 ।।
विदुर उवाच। | 5-37-1x |
सप्तदशेमान्राजेन्द्र मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्। | 5-37-1a 5-37-1b |
तानेवेन्द्रस्य च धनुरनाम्यं नमतो ब्रवीत्। | 5-37-2a 5-37-2b |
यश्चाशिष्यं शास्ति वै यश्च तुष्ये- | 5-37-3a 5-37-3b 5-37-3c 5-37-3d |
यश्चाभिजातः प्रकरोत्यकार्यं | 5-37-4a 5-37-4b 5-37-4c 5-37-4d |
वध्वाऽवहासं श्वशुरो मन्यते यो | 5-37-5a 5-37-5b 5-37-5c 5-37-5d |
यश्चापि लब्ध्वा न स्मरामीति वादी | 5-37-6a 5-37-6b 5-37-6c 5-37-6d |
यस्मिन्यथा वर्तते यो मनुष्य- | 5-37-7a 5-37-7b 5-37-7c 5-37-7d |
जरा रूपं हरति हि धैर्यमाशा | 5-37-8a 5-37-8b 5-37-8c 5-37-8d |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-37-9x |
शतायुरुक्तः पुरुषः सर्ववेदेषु वै यदा। | 5-37-9a 5-37-9b |
विदुर उवाच। | 5-37-10x |
अतिमानोऽतिवादश्च तथाऽत्यागो नराधिप। | 5-37-10a 5-37-10b |
एत एवासयस्तीक्ष्णाः कृन्तन्त्यायूंषि देहिनाम्। | 5-37-11a 5-37-11b |
विश्वस्तस्यैति यो दारान्यश्चापि गुरुतल्पगः। | 5-37-12a 5-37-12b |
आदेशकृद्वृत्तिहन्ता द्विजानां प्रेषकश्च यः। | 5-37-13a 5-37-13b 5-37-13c |
गृहीतवाक्यो नयविद्वदान्यः | 5-37-14a 5-37-14b 5-37-14c 5-37-14d |
सुलभाः पुरुषा राजन्सततं प्रियवादिनः। | 5-37-15a 5-37-15b |
यो हि धर्मं समाश्रित्य हित्वा भर्तुः प्रियाप्रिये। | 5-37-16a 5-37-16b |
त्यजेत्कुलार्थे पुरुषं ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्। | 5-37-17a 5-37-17b |
आपदर्थे धनं रक्षेद्दारान्रक्षेद्धनैरपि । | 5-37-18a 5-37-18b |
द्यूतमेतत्पुरा कल्पे दृष्टं वैरकरं नृणाम्। | 5-37-19a 5-37-19b |
उक्तं मया द्यूतकालेऽपि राज- | 5-37-20a 5-37-20b 5-37-20c 5-37-20d |
काकैरिमांश्चित्रबर्हान्मयूरान् | 5-37-21a 5-37-21b 5-37-21c 5-37-21d |
यस्तात न क्रुध्यति सर्वकालं | 5-37-22a 5-37-22b 5-37-22c 5-37-22d |
न भृत्यानां वृत्तिसंरोधनेन | 5-37-23a 5-37-23b 5-37-23c 5-37-23d |
कृत्यानि पूर्वं परिसङ्ख्याय सर्वा- | 5-37-24a 5-37-24b 5-37-24c 5-37-24d |
अभिप्रायं यो विदित्वा तु भर्तुः | 5-37-25a 5-37-25b 5-37-25c 5-37-25d |
वाक्यं तु यो नाद्रियतेऽनुशिष्टः | 5-37-26a 5-37-26b 5-37-26c 5-37-26d |
अस्तब्धमक्लीबमदीर्घसूत्रं | 5-37-27a 5-37-27b 5-37-27c 5-37-27d |
न विश्वासाञ्जातु परस्य गेहे | 5-37-28a 5-37-28b 5-37-28c 5-37-28d |
न निह्नवं मन्त्रगतस्य गच्छे- | 5-37-29a 5-37-29b 5-37-29c 5-37-29d |
घृणी राजा पुंश्चली राजभृत्यः | 5-37-30a 5-37-30b 5-37-30c 5-37-30d |
अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति | 5-37-31a 5-37-31b 5-37-31c 5-37-31d |
एतान्गुणांस्तात महानुभावा- | 5-37-32a 5-37-32b 5-37-32c 5-37-32d |
गुणा दश स्नानशीलं भजन्ते | 5-37-33a 5-37-33b 5-37-33c 5-37-33d |
गुणाश्च षण्मितभुक्तं भजन्ते | 5-37-34a 5-37-34b 5-37-34c 5-37-34d |
अकर्मशीलं च महाशनं च | 5-37-35a 5-37-35b 5-37-35c 5-37-35d |
कदर्यमाक्रोशकमश्रुतं च | 5-37-36a 5-37-36b 5-37-36c 5-37-36d |
संक्लिष्टकर्माणमतिप्रमादं | 5-37-37a 5-37-37b 5-37-37c 5-37-37d |
सहायबन्धना ह्यर्थाः सहायाश्चार्थबन्धनाः। | 5-37-38a 5-37-38 |
उत्पाद्य पुत्राननृणांश्च कृत्वा | 5-37-39a 5-37-39b 5-37-39c 5-37-39d |
हितं यत्सर्वभूतानामात्मनश्च सुखावहम्। | 5-37-40a 5-37-40b |
वृद्धिः प्रभावस्तेजश्च सत्वमुत्थानमेव च। | 5-37-41a 5-37-41b |
पश्य दोषान्पाण्डवैर्विग्रहे त्वं | 5-37-42a 5-37-42b 5-37-42c 5-37-42d |
भीष्मस्य कोपस्तव चैवेन्द्रकल्प | 5-37-43a 5-37-43b 5-37-43c 5-37-43d |
तव पुत्रशतं चैव कर्णः पञ्च च पाण्डवाः । | 5-37-44a 5-37-44b |
धार्तराष्ट्रा वनं राजन्व्याघ्राः पाण्डुसुता मताः। | 5-37-45a 5-37-45b |
न स्याद्वनमृते व्याघ्रान्व्याघ्रा न स्युर्ऋते वनम्। | 5-37-46a 5-37-46b |
न तथेच्छन्ति कल्याणान्परेषां वेदितुं गुणान्। | 5-37-47a 5-37-47b |
अर्थसिद्धिं परामिच्छन्धर्ममेवादितश्चरेत्। | 5-37-48a 5-37-48b |
यस्यात्मा विरतः पापात्कल्याणे च निवेशितः। | 5-37-49a 5-37-49b |
यो धर्ममर्थं कामं च यथाकालं निषेवते । | 5-37-50a 5-37-50b |
सन्नियच्छति यो वेगमुत्थितं क्रोधहर्षयोः। | 5-37-51a 5-37-51b |
बलं पञ्चविधं नित्यं पुरुषाणां निबोध मे। | 5-37-52a 5-37-52b |
अमात्यलाभो भद्रं ते द्वितीयं बलमुच्यते। | 5-37-53a 5-37-53b |
यत्त्वस्य सहजं राजन्पितृपैतामहं बलम् । | 5-37-54a 5-37-54b |
येन त्वेतानि सर्वाणि सङ्गृहीतानि भारत । | 5-37-55a 5-37-55b |
महते योऽपकाराय नरस्य प्रभवेन्नरः । | 5-37-56a 5-37-56b |
स्त्रीषु राजसु सर्पेषु स्वाध्यायप्रभुशत्रुषु । | 5-37-57a 5-37-57b |
प्रज्ञाशरेणाभिहतस्य जन्तो- | 5-37-58a 5-37-58b 5-37-58c 5-37-58d |
सर्पश्चाग्निश्च सिंहश्च कुलपुत्रश्च भारत। | 5-37-59a 5-37-59b |
अग्निस्तेजो महल्लोके गूढस्तिष्ठति दारुषु। | 5-37-60a 5-37-60b |
स एव खलु दारुभ्यो यदा निर्मथ्य दीप्यते। | 5-37-61a 5-37-61b |
एवमेव कुले जाताः पावकोपमतेजसः। | 5-37-62a 5-37-62b |
लताधर्मा त्वं सपुत्रः सालः पाण्डुसुता मताः। | 5-37-63a 5-37-63b |
वनं राजंस्तव पुत्रोऽम्बिकेय | 5-37-64a 5-37-64b 5-37-64c 5-37-64d |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
5-37-2 नमतः नामयतः। मरीचिनः मरीचिमतः सूर्यचन्द्रादेः। व्रीह्यादित्वान्मत्वर्थीय इनिः। पादान् रश्मीन् ।। 5-37-3 अशिष्यं शासनानर्हम्। तुष्येत् अल्पलाभेनेति शेषः। भद्रमश्नुत इति। शत्रुसेवया स्त्रीरक्षया च यो भद्रमश्रुते तौ द्वौ मूर्खावित्यर्थः। नो रक्षतीति ङ पाठः ।। 3 ।। 5-37-4 अभिजातः कुलीनः ।। 5-37-5 श्वशुरः सन् यो वध्वा पुत्रभार्यया सह अवहासं परिहासं तत्पित्रादिभिरिव मन्यते स एकादशः। वध्वा स्नुषया भूतया अवसन्नभयो नष्टभयः वधूपित्रादिभिरापदि त्रातोपि तत्रैव मानं कामयते यः स द्वादशो मूर्खः। वध्वावासमिति ङo पाठः ।। 5-37-10 अत्यागः अतिशयितमागोऽपराधः। आत्मविधित्सोति पोषणार्थस्य धाञः सनि रूपम्। आत्मपोषणेच्छा शिश्नोदरपरायणतेत्यर्थः ।। 5-37-11 असयः खङ्गाः। भद्रमस्तु ते एतेषां षण्णांत्यागेन तव पुत्राः शतायुषो भवन्त्वित्यर्थः ।। 5-37-12 वृषली शूद्रा। द्विजश्त्रैवर्णिकः। पानपः मद्यपः ।। 5-37-13 आदेशकृत् ग्रामणीः । प्रेषकः द्विजान् दास्ये नियोजयन्। समेत्य संसृज्य 5-37-24 परिसङ्ख्याय साध्यासाध्यनिश्चयं कृत्वा। तथा वृत्तिं भृत्यजीविकां आयव्ययानुरूपां कृत्वेत्यर्थः ।। 5-37-27 अदीर्घसूत्रं क्षिप्रकारिणम् ।। 5-37-29 किंतु मम किंचित्कार्यमस्तीति। तथा व्यपदेशं व्याजं कृत्वा तादृशान्मन्त्रादपसरेदेवेत्यर्थः ।। 5-37-30 एते व्यवहरे धनदानादौ वर्जनीयाः द्रव्यनाशभयात। एतेभ्यो न ग्राह्यं च। अधमर्णो घृणी लज्जावांश्चेदतिनिर्बन्धेन याच्यमानः प्राणानेव जह्यात् ।। 5-37-34 मितभुक्तं मितभोजिनम्। आद्यूनो बहुभोजी ।। 5-37-36 कदर्यं अदातारम् ।। 5-37-37 संक्लिष्टकर्माणं आततायिनम्।। 5-37-41 अवृत्तिर्जीविकाया अभावः ।। 5-37-43 श्वेतो ग्रहः धूमकेतुः ।। 5-37-54 अभिजातबलं कुलबलम् ।। 5-37-59 कुलपुत्रो ज्ञातिः ।। 5-37-62 कुले जाताः पाण्डवाः ।। 5-37-63 सालाः महावृक्षः ।।
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