महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-008
← उद्योगपर्व-007 | महाभारतम् पञ्चमपर्व महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-008 वेदव्यासः |
उद्योगपर्व-009 → |
|
पाण्डवान्प्रत्यागच्छतः शल्यस्य मार्गे भ्रमाहुर्योधनसभाप्रवेशः ।। 1 ।। तद्भुत्यकृतोपचारतुष्टेन तेन पारितोषिकदाने प्रति श्रुते गूढेनसता दुर्योधनेन प्रकटीभूय साहाय्यवरणम् ।। 2 ।। पाण्डवानुपगम्य दुर्योधनवञ्चनां कथितवता शल्येन युधिष्ठिराभ्यर्थनया कर्णस्य सारथ्यकरणेन तेजोवधकरणप्रतिज्ञानम् ।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 5-8-1x |
शल्यः श्रुत्वा तु दूतानां सैन्येन महता वृतः। | 5-8-1a 5-8-1b |
तस्य सेनानिवेशोऽभूदध्वर्धमिव योजनम् । | 5-8-2a 5-8-2b |
अक्षौहिणीपती राजन्महावीर्यपराक्रमाः। | 5-8-3a 5-8-3b |
विचित्राभरणाः सर्वे विचित्ररथवाहनाः । | 5-8-4a 5-8-4b |
स्वदेशवेषाभरणा वीराः शतसहस्रशः। | 5-8-5a 5-8-5b |
व्यथयन्निव भूतानि कम्पयन्निव मेदिनीम् । | 5-8-6a 5-8-6b |
ततो दुर्योधनः श्रुत्वा महात्मानं महारथम् । | 5-8-7a 5-8-7b |
कारयामास पूजार्थं तस्य दुर्योधनः सभाः । | 5-8-8a 5-8-8b |
शिल्पिभिर्विविधैश्चैव क्रीडास्तत्र प्रयोजिताः । | 5-8-9a 5-8-9b |
कूपाश्च विविधाकारा औदकानि गृहाणि च ।। | 5-8-10a 5-8-10b |
दुर्योधनस्य सचिवैर्देशे देशे समन्ततः ।। | 5-8-11a 5-8-11b |
स तत्र विषयैर्युक्तैः कल्याणैरतिमानुषैः ।। | 5-8-12a 5-8-12b |
पप्रच्छ स ततः प्रेष्यान्प्रहृष्टः क्षत्रियर्षभः ।। | 5-8-13a 5-8-13b |
आनीयन्तां सभाकाराः प्रदेयार्हा हि मे मताः ।। | 5-8-14a 5-8-14b |
` ततः प्रहृष्टं राजानं ज्ञात्वा ते सचिवास्तदा' | 5-8-15a 5-8-15b |
संप्रहृष्टो यदा शल्यो दिदित्सुरपि जीवितम् । | 5-8-16a 5-8-16b |
तं दृष्ट्वा मद्रराजश्च ज्ञात्वा यत्नं च तस्य तम्। | 5-8-17a 5-8-17b |
दुर्योधन उवाच। | 5-8-18x |
सत्यवाग्भव कल्याण वरो वै मम दीयताम्। | 5-8-18a 5-8-18b |
यथैव पाण्डवास्तुभ्यं तथैव भवतो ह्यहम्। | 5-8-19a 5-8-19b |
वैशंपायन उवाच। | 5-8-20x |
कृतमित्यब्रवीच्छल्यः किमन्यत्क्रियतामिति। | 5-8-20a 5-8-20b |
शल्य उवाच। | 5-8-21x |
गच्छ दुर्योधन पुरं स्वकमेव नरर्षभ । | 5-8-21a 5-8-21b |
दृष्ट्वा युधिष्ठिरं राजन्क्षिप्रमेष्ये नराधिप । | 5-8-22a 5-8-22b |
दुर्योधन उवाच। | 5-8-23x |
क्षिप्रामागम्यतां राजन्पाण्डवं वीक्ष्य पार्थिव । | 5-8-23a 5-8-23b |
शल्य उवाच। | 5-8-24x |
क्षिप्रमेष्यामि भद्रं ते गच्छस्व स्वपुरं नृप। | 5-8-24a 5-8-24b |
वैशंपायन उवाच। | 5-8-25x |
पर्यष्वजेतामन्योन्यं शल्यदुर्योधनावुभौ ।। | 5-8-25a |
स तथा शल्यमामन्त्र्य पुरायात्स्वकं पुरम्। | 5-8-26a 5-8-26b |
उपप्लाव्यं स गत्वा तु स्कन्धावारं प्रविश्य च। | 5-8-27a 5-8-27b |
चिरात्तु दृष्ट्वा राजानं मातुलं समितिञ्जयम्। | 5-8-28a 5-8-28b |
तथा भीमार्जुनौ हृष्टौ स्वस्त्रीयौ च यमावुभौ । | 5-8-29a 5-8-29b |
समेत्य च महापाहुं शल्यं पाण्डुसुतस्तदा । | 5-8-30a 5-8-30b |
कताञ्जलिरदीनात्मा धर्मात्मा शल्यमब्रवीत्। | 5-8-31a 5-8-31b |
ततो न्यषीदच्छल्यश्च काञ्चने परमासने । | 5-8-32a 5-8-32b |
शल्य उवाच। | 5-8-33x |
दुःखस्यैतस्य महतो धार्तराष्ट्रकृतस्य वै। | 5-8-33a 5-8-33b |
विदितं ते महाराज लोकतन्त्रं नराधिप । | 5-8-34a 5-8-34b |
वैशंपायन उवाच। | 5-8-35x |
निवेद्य चार्घ्यं विधिवन्मद्रराजाय भारत। | 5-8-35a 5-8-35b |
स तैः परिवृतः सर्वैः पाण्डवैर्धर्मचारिभिः । | 5-8-36a 5-8-36b |
शल्य उवाच। | 5-8-37x |
कुशलं राजशार्दूल सर्वत्र कुरुनन्दन । | 5-8-37a 5-8-37b |
दुष्करं ते कृतं राजन्निर्जने गहने वने। | 5-8-38a 5-8-38b |
अज्ञातवासं घोरं च वसता दुष्करं कृतम् । | 5-8-39a 5-8-39b |
सत्ये तपसि दाने च तव बुद्धिर्युधिष्ठिर । | 5-8-40a 5-8-40b |
अद्भुतश्च पुनर्लोकस्त्वयि राजन्प्रतिष्ठितः। | 5-8-41a 5-8-41b |
धर्मास्ते विदिता राजन्बहवो लोकसाक्षिकाः । | 5-8-42a 5-8-42b |
मुदितश्च पुनर्लोकस्त्वयि राजन्प्रतिष्ठिते । | 5-8-43a 5-8-43b |
दिष्ट्या पश्यामि राजेन्द्र धर्मात्मानं सहानुगम्। | 5-8-44a 5-8-44b |
वैशंपायन उवाच। | 5-8-45x |
ततोऽस्याकथयद्राजा दुर्योधनसमागमम्। | 5-8-45a 5-8-45b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-8-46x |
सुकृतं ते कृतं राजन्प्रहृष्टेनान्तरात्मना । | 5-8-46a 5-8-46b |
एकं त्विच्छामि भद्रं ते क्रियमाणं महीपते । | 5-8-47a 5-8-47b |
मम त्ववेक्षया वीर शृणु विज्ञापयामि ते। | 5-8-48a 5-8-48b |
कर्णार्जुनाभ्यां संप्राप्ते द्वैरथे राजसत्तम । | 5-8-49a 5-8-49b |
तत्र पाल्योऽर्जुनो राजन्यदि मत्प्रियमिच्छसि। | 5-8-50a 5-8-50b 5-8-50c |
शल्य उवाच। | 5-8-51x |
श्रृणु पाण्डव भद्रं ते यद्ब्रवीषि महात्मनः । | 5-8-51a 5-8-51b |
अहं तस्य भविष्यामि सङ्घ्रामे सारथिर्ध्रुवम्। | 5-8-52a 5-8-52b |
तस्याहं कुरुशार्दूल प्रतीपमहितं वचः। | 5-8-53a 5-8-53b |
यथा स हृतदर्पश्च हृततेजाश्च पाण्डव । | 5-8-54a 5-8-54b |
एवमेतत्करिष्यामि यथा तात त्वमात्थ माम्। | 5-8-55a 5-8-55b |
यच्च दुःखं त्वया प्राप्तं द्यूते वै कृष्णया सह। | 5-8-56a 5-8-56b |
जटासुरात्परिक्लेशः कीचकाच्च महाद्युते। | 5-8-57a 5-8-57b |
सर्वं दुःखमिदं वीर सुखोदर्कं भविष्यति। | 5-8-58a 5-8-58b |
दुःखानि हि महात्मानः प्राप्नुवन्ति युधिष्ठिर। | 5-8-59a 5-8-59b |
इन्द्रेण श्रूयते राजन्सभार्येण महात्मना । | 5-8-60a 5-8-60b |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
5-8-27 उपप्लाव्यं विराटनगरस्य प्रदेशविशेषम्। स्कन्धावारं सेनानिवेशस्थानम् ।। 5-8-53 प्रतीपं प्रसङ्गप्रतिकूलम् । अहितं परिणामविरुद्धम् ।। 5-8-58 मन्युर्दैन्यम् ।।
उद्योगपर्व-007 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | उद्योगपर्व-009 |