महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-040
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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विदुरेण धृतराष्ट्रं प्रति तत्तद्वर्णवर्मणां तैत्तैश्वश्यानुष्ठेयत्वकथनपूर्वकं युधिष्ठिरस्य राज्यं प्रदाय क्षात्रधर्मे नियोजनचोदनम् ।। 1 ।।
विदुर उवाच। | 5-40-1x |
योऽभ्यर्चितः मद्भिरसञ्जमानः | 5-40-1a 5-40-1b 5-40-1c 5-40-1d |
महान्तमप्यर्थमधर्मयुक्तं | 5-40-2a 5-40-2b 5-40-2c 5-40-2d |
अनृते च समुत्कर्पो राजगामि च पैशुनम् । | 5-40-3a 5-40-3b |
असूयैकपदं मृत्युरतिवादः श्रियो वधः। | 5-40-4a 5-40-4b |
आलस्यं मदमोहौ च चापलं गोष्ठिरेव च। | 5-40-5a 5-40-5b |
एते वै सप्त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थिनां मताः । | 5-40-6a 5-40-6b 5-40-6c |
नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः। | 5-40-7a 5-40-7b |
आशा धृतिं हन्ति समृद्धिमन्तकः | 5-40-8a 5-40-8b 5-40-8c 5-40-8d |
अजाश्च कांस्यं रजतं च नित्यं | 5-40-9a 5-40-9b 5-40-9c 5-40-9d |
अजोक्षा चन्दनं वीणा आदर्शो मधुसर्पिषी । | 5-40-10a 5-40-10b |
गृहे स्थापयितव्यानि धन्यानि मनुरब्रवीत्। | 5-40-11a 5-40-11b |
इदं च त्वां सर्वपरं ब्रवीमि | 5-40-12a 5-40-12b 5-40-12c 5-40-12d |
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये | 5-40-13a 5-40-13b 5-40-13c 5-40-13d |
महाबलान्पश्य महानुभावान् | 5-40-14a 5-40-14b 5-40-14c 5-40-14d |
मृतं पुत्रं दुःखपुष्टं मनुष्या | 5-40-15a 5-40-15b 5-40-15c 5-40-15d |
अन्यो धनं प्रेतगतस्य भुङ्क्ते | 5-40-16a 5-40-16b 5-40-16c 5-40-16d |
उसृज्य विनिवर्तन्ते ज्ञातयः सुहृदः सुताः। | 5-40-17a 5-40-17b |
अग्नौ प्रास्तं तु पुरुषं कर्मान्वेति स्वयं कृतम्। | 5-40-18a 5-40-18b |
अस्माल्लोकादूर्ध्वममुष्य चाधो | 5-40-19a 5-40-19b 5-40-19c 5-40-19d |
इदं वचः शक्ष्यसि चेद्यथाव- | 5-40-20a 5-40-20b 5-40-20c 5-40-20d |
आत्मा नदी भारत पुण्यतीर्था | 5-40-21a 5-40-21b 5-40-21c 5-40-21d |
कामक्रोधग्राहवतीं पञ्चेन्द्रियजलां नदीम्। | 5-40-22a 5-40-22b |
प्रज्ञावृद्धं धर्मवृद्धं स्वबन्धुं | 5-40-23a 5-40-23b 5-40-23c 5-40-23d |
धृत्या शिश्रोदरं रक्षेत्पाणिपादं च चक्षुषा । | 5-40-24a 5-40-24b |
नित्योदकी नित्ययज्ञोपवीती | 5-40-25a 5-40-25b 5-40-25c 5-40-25d |
अधीत्य वेदान्परिसंस्तीर्य चाग्नी- | 5-40-26a 5-40-26b 5-40-26c 5-40-26d |
वैश्योऽधीत्य ब्राह्मणान्क्षत्रियांश्च | 5-40-27a 5-40-27b 5-40-27c 5-40-27d |
ब्रह्म क्षत्रं वैश्यवर्णं च शूद्रः | 5-40-28a 5-40-28b 5-40-28c 5-40-28d |
चातुर्वर्ण्यस्यैष धर्मस्तवोक्तो | 5-40-29a 5-40-29b 5-40-29c 5-40-29d |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-40-30x |
एवमेतद्यथा त्वं मामनुशासनि नित्यदा। | 5-40-30a 5-40-30b |
सा तु बुद्धिः कृताप्येवं पाण्डवान्प्रति मे सदा। | 5-40-31a 5-40-31b |
न दिष्टमभ्यतिक्रान्तुं शक्यं भूतेन केनचित्। | 5-40-32a 5-40-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि | |
।। समाप्तमिदं प्रजागरपर्व ।। |
5-40-1 प्रमन्नः सन्तः साधवः सुखाय अलं सुखं दातुं पर्याप्ताः ।। 5-40-4 एकपदं सर्वात्मना ।। 5-40-5 मदमोहौ एकीकृत्य सप्त ।। 5-40-9 आकर्षः विषादीनाम् ।। 5-40-10 अजेन सहितः उक्षा अजोक्षा। औदुम्बरं ताम्रमयं पात्रजातम्। विषं लोहमिति सर्वज्ञः। स्वर्णनाभः शालग्रामः । दक्षिणावर्तः शङ्खः । 5-40-11 धन्यानि मङ्गलावहानि ।। 5-40-12 महाविशिष्टं महेन उत्सवेन अविशिष्टं समानं माङ्गलिकमित्यर्थः ।। 5-40-19 अस्माल्लोकादूर्ध्वं स्वर्गे। अमुष्य अमुष्मात् स्वर्गात्। प्रलभेत स्पृशेत् ।। 5-40-20 प्रतिपत्तुं ज्ञातुं शक्ष्यसि चेदिति संबन्धः ।। 5-40-21 पुण्यमपि किं नित्य मलोभ एव। वैराग्यात्र परं पुण्यमित्यर्थः ।। 5-40-24 मनो वाचं च विद्ययेति ङ पाठः ।। 5-40-25 नित्योदकी यथाकालं स्नानाचमनपरः ।।
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