महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-074
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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श्रीकृष्णेन भीमंप्रति तत्प्रतिज्ञानुस्मारणपूर्वकं युद्धप्रोत्साहनम् ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 5-74-1x |
एतछ्रुत्वा महाबाहुः केशवः प्रहसन्निव। | 5-74-1a 5-74-1b |
गिरेरिव लघुत्वं तच्छीतत्वमिव पावके। | 5-74-2a 5-74-2b |
सन्तेजसंस्तदा वाग्भिर्भातरिश्वेव पावकम्। | 5-74-3a 5-74-3b |
श्रीभगवानुवाच। | 5-74-4x |
त्वमन्यदा भीमसेन युद्धमेव प्रशंससि। | 5-74-4a 5-74-4b |
न च स्वपिषि जागर्षि न्युब्जः शेषे परन्तप । | 5-74-5a 5-74-5b |
निःश्वसन्नग्निवत्तेन सन्तप्तः स्वेन मन्युना । | 5-74-6a 5-74-6b |
एकान्ते निःश्वसञ्शेपे भारार्त इव दुर्बलः । | 5-74-7a 5-74-7b |
आरुज्य वृक्षान्निर्मूलान्गजः परिरुजन्निव । | 5-74-8a 5-74-8b |
नास्मिञ्जने न रमसे रहः क्षिपसि पाण्डव । | 5-74-9a 5-74-9b |
अकस्मात्स्मयमानश्च रहस्यास्से रुदन्निव। | 5-74-10a 5-74-10b |
भ्रुकिटिं च पुनः कुर्वन्नोष्ठौ च विदशन्निव । | 5-74-11a 5-74-11b |
यथा तपुरस्तात्सविता दृश्यते शुक्रमुच्चरन् । | 5-74-12a 5-74-12b |
तथा सत्यं ब्रवीम्येतन्नास्ति तस्य व्यतिक्रमः । | 5-74-13a 5-74-13b |
इति स्म मध्ये भ्रातृणां सत्येनालभसे वदाम्। | 5-74-14a 5-74-14b |
अहो युद्धाभिकाङ्क्षाणां युद्धकाल उपस्थिते । | 5-74-15a 5-74-15b |
अहो पार्थ निमित्तानि विपरीतानि पश्यसि। | 5-74-16a 5-74-16b |
अहो नाशंससे किंचित्पुंस्त्वं क्लीब इवात्मनि । | 5-74-17a 5-74-17b |
उद्वेपते ते हृदयं मनस्ते प्रतिसीदति । | 5-74-18a 5-74-18b |
अनित्यं किल मर्त्यस्य पार्थ चित्तं चलाचलम् । | 5-74-19a 5-74-19b |
तवैषा विकृता बुद्धिर्गवां वागिव मानुषी । | 5-74-20a 5-74-20b |
इदं मे महादाश्चर्यं पर्वतस्येव सर्पणम्। | 5-74-21a 5-74-21b |
स दृष्ट्वा स्वानि कर्माणि कुले जन्म च भारत । | 5-74-22a 5-74-22b |
न चैतदनुरूपं ते यत्ते ग्लानिररिन्दम। | 5-74-23a 5-74-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
5-74-6 अग्निवत् अग्निनेव ।। 5-74-8 आरुज्य भङ्क्त्वा ।। 5-74-9 अस्मिन्वने। जनेन ब्राह्मणरामूहेन। क्षिपसि नपसि कालमिति शेषः ।। 5-74-12 शुक्रं तेजः। निर्मुक्तोऽस्तं गतः। ध्रुवं निश्चयं पुनः पर्येति मेरुं पुनःपुनः प्रदक्षिणीकरोति ।। 5-74-19 अष्ठीला फलान्तर्ग्रन्थिः । सा च शाल्मलेः केवलं तूलमयी भवति ।।
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