महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-144
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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विदुरेण कुन्तीसमीपे युद्धे बहुवीरविनाशानुचिन्तनेन शोचनम् ।। 1 ।।
कर्णपराक्रमभीतया कुन्त्या पाण्डवान्प्रति तन्मनःप्रसादनेच्छया गङ्गातीरे कर्णसमीपगमनम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 5-144-1x |
असिद्धानुनये कृष्णे कुरुभ्यः पाण्डवान्गते। | 5-144-1a 5-144-1b |
जानासि मे जीवपुत्री भावं नित्यमविग्रहे । | 5-144-2a 5-144-2b |
उपपन्नो ह्यसौ राजा चेदिपाञ्चालकेकयैः । | 5-144-3a 5-144-3b |
उपप्लाव्ये निविष्टोऽपि धर्ममेव युधिष्ठिरः। | 5-144-4a 5-144-4b |
राजा तु धृतराष्ट्रोऽयं वयोवृद्धो न शाम्यति। | 5-144-5a 5-144-5b |
जयद्रथस्य कर्णस्य तथा दुःशासनस्य च। | 5-144-6a 5-144-6b |
अधर्मेम हि धर्मिष्ठं ह्रियते राज्यमीदृशम्। | 5-144-7a 5-144-7b |
क्रियमाणे बलाद्धर्मे कुरुभिः को न संज्वरेत्। | 5-144-8a 5-144-8b |
ततः कुरूणामनयो भविता वीरनाशनः। | 5-144-9a 5-144-9b |
श्रुत्वा तु कुन्ती तद्वाक्यमर्थकामेन भाषितम्। | 5-144-10a 5-144-10b |
धिगस्त्वर्थं यत्कृतेयं सुमहाञ्ज्ञातिसंक्षयः। | 5-144-11a 5-144-11b |
पाण्डवाश्चेदिपञ्चाला यादवाश्च समागताः। | 5-144-12a 5-144-12b |
पश्ये दोषं ध्रुवं युद्धे तथाऽयुद्धे पराभवम् । | 5-144-13a 5-144-13b 5-144-13c |
पितामहः शान्तनव आचार्यश्च युधां पतिः। | 5-144-14a 5-144-14b |
नाचार्यः कामवाञ्शिष्यैद्रौणोयुद्ध्येत जातुचित्। | 5-144-15a 5-144-15b |
अयं त्वेको वृथादृष्टिर्धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः। | 5-144-16a 5-144-16b |
महत्यनर्थे निर्बन्धी बलवांश्च विशेषतः। | 5-144-17a 5-144-17b |
आशंसे त्वद्य कर्णस्य मनोऽहं पाण्डवान्प्रति । | 5-144-18a 5-144-18b |
तोषितो भगवान्यत्र दुर्वासा मे वरं ददौ । | 5-144-19a 5-144-19b |
साहमन्तःपुरे राज्ञः कुन्तिभोजपुरस्कृता । | 5-144-20a 5-144-20b |
बलाबलं च मन्त्राणां ब्राह्मणस्य च वाग्बलम् । | 5-144-21a 5-144-21b |
धात्र्या विस्रब्धया गुप्ता सखीजनवृता तदा। | 5-144-22a 5-144-22b |
कथं नु सुकृतं मे स्यान्नापराधवती कथम्। | 5-144-23a 5-144-23b |
कौतूहलात्तु तं लब्धा बालिश्यादाचरं तदा। | 5-144-24a 5-144-24b |
योऽसौ कानीनगर्भो मे पुत्रवत्परिरक्षितः । | 5-144-25a 5-144-25b |
इति कुन्ती विनिश्चित्य कार्यनिश्चयमुत्तमम् । | 5-144-26a 5-144-26b |
आत्मजस्य ततस्तस्य घृणिनः सत्यसङ्गिनः । | 5-144-27a 5-144-27b |
प्राङ्मुखस्योर्ध्वबाहोः सा पर्यतिष्ठत पृष्ठतः। | 5-144-28a 5-144-28b |
अतिष्ठत्सूर्यतापार्ता कर्णस्योत्तरवाससि। | 5-144-29a 5-144-29b |
आपृष्ठतापाञ्जप्त्वा स परिवृत्त्य यतव्रतः । | 5-144-30a 5-144-30b |
यथान्यायं महातेजा मानी धर्मभृतां वरः । | 5-144-31a 5-144-31b |
।। इति श्रीमन्महाभारते |
5-144-8 बलाद्धर्मे पास्वण्डिनां पारदार्यं उभयसंतोषकरमिति द्वयोरपि धर्महेतुरिति बलात्कल्पना शास्त्रबहिर्भूता तद्वदयमपीत्यर्थः ।। 5-144-10 अर्थकामेन हितकामेन ।। 5-144-13 पश्ये पश्यामि। आर्षमात्मनेपदम् ।। 5-144-24 आचरं तेन मन्त्रेण देवतावाहनाख्यं कार्यं कृतवती ।। 5-144-29 उत्तरवाससि उत्तरीयवस्त्रच्छायायाम् ।। 5-144-30 आपृष्ठतापादपराह्णपर्यन्तमित्यर्थः ।।
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