महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-016
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बृहस्पतिना ब्राह्ममन्त्रसंवर्धितेनाग्निना पद्मनालस्येन्द्रं दृष्ट्वा बृहस्पतये तन्निवेदनम् ।। 1 ।। बृहस्पतिना तत्र गत्वा इन्द्रे स्तूयमाने कुबेरादीनां तत्रागमनम् ।। 2 ।। इन्द्रेण नहुषजये साहाय्यायाग्नेर्भागदानपूर्वकं कुबेरादीनां तत्ताद्दिगाधिपत्येऽभिषेचनम् ।। 3 ।।
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बृहस्पतिरुवाच। | 5-16-1x |
त्वमग्रे सर्वदेवानां मुखं त्वमसि हव्यवाट्। | 5-16-1a 5-16-1b |
त्वामाहुरेकं कवयस्त्वामाहुस्त्रिविधं पुनः। | 5-16-2a 5-16-2b |
कृत्वा तुभ्यं नमो विप्राः स्वकर्मविजितां गतिम्। | 5-16-3a 5-16-3b |
त्वमेवाग्ने हव्यवाहस्त्वमेव परमं हविः। | 5-16-4a 5-16-4b |
सृष्ट्वा लोकांस्त्रीमिमान्हव्यवाह | 5-16-5a 5-16-5b 5-16-5c 5-16-5d |
त्वामग्ने जलदानाहुर्विद्युतश्च मनीषिणः। | 5-16-6a 5-16-6b |
त्वय्यापो निहिताः सर्वास्त्वयि सर्वमिदं जगत्। | 5-16-7a 5-16-7b |
स्वयोर्नि भजते सर्वो विशस्वापोऽविशङ्कितः। | 5-16-8a 5-16-8b |
एवं स्तुतो हव्यवाट् स भगवान्कविरुत्तमः । | 5-16-9a 5-16-9b 5-16-9c |
शल्य उवाच। | 5-16-10x |
प्रविष्यापस्ततो वह्निः ससमुद्राः सपल्वलाः। | 5-16-10a 5-16-10b |
अथ तत्रापि पद्मानि विचिन्वन्भरतर्षभ । | 5-16-11a 5-16-11b |
आगत्य च ततस्तूर्णं तमाचष्ट बृहस्पतेः। | 5-16-12a 5-16-12b |
गत्वा देवर्षिगन्धर्वैः सहितोऽथ बृहस्पतिः । | 5-16-13a 5-16-13b |
महाऽसुरो हतः शक्र नमुचिर्दारुणस्त्वया । | 5-16-14a 5-16-14b |
शतक्रतो विवर्धस्व सर्वाञ्शत्रून्निषूदय । | 5-16-15a 5-16-15b |
महेन्द्र दानवान्हत्वा लोकास्त्रातास्त्वया विभो। | 5-16-16a 5-16-16b 5-16-16c |
त्वं सर्वभूतेषु शरण्य ईड्य- | 5-16-17a 5-16-17b 5-16-17c 5-16-17d |
पाहि सर्वांश्च लोकांश्च महेन्द्र बलमाप्नुहि । | 5-16-18a 5-16-18b |
स्वं चैव वपुरास्थाय बभूव स बलान्वितः। | 5-16-19a 5-16-19b |
किं कार्यमवशिष्टं वो हतस्त्वाष्ट्रो महासुरः । | 5-16-20a 5-16-20b |
बृहस्पतिरुवाच। | 5-16-21x |
मानुषो नहुषो राजा देवर्षिगणतेजसा। | 5-16-21a 5-16-21b |
इन्द्र उवाच। | 5-16-22x |
कथं च नहुषो राज्यं देवानां प्राप दुर्लभम्। | 5-16-22a 5-16-22b 5-16-22c |
बृहस्पतिरुवाच। | 5-16-23x |
त्वयि प्रनष्टे देवेश विश्वं प्रव्यथितं जगत्। | 5-16-23a 5-16-23b |
ततो देवैः सगन्धर्वैः सर्षिसङ्घैः सपावकैः । | 5-16-24a 5-16-24b |
देवा भीताः शक्रमकामयन्त | 5-16-25a 5-16-25b 5-16-25c 5-16-25d |
गत्वाऽब्रुवन्नहुषं तत्र शक्र | 5-16-26a 5-16-26b 5-16-26c 5-16-26d |
एवमुक्तैर्वर्द्धितश्चापि देवै | 5-16-27a 5-16-27b 5-16-27c 5-16-27d |
तेजोहरं दृष्टिविषं सुघोरं | 5-16-28a 5-16-28b 5-16-28c 5-16-28d |
शल्य उवाच। | 5-16-29x |
एवं वदत्यङ्गिरसां वरिष्ठे | 5-16-29a 5-16-29b 5-16-29c 5-16-29d |
ते वै समागम्य महेन्द्रमूचु- | 5-16-30a 5-16-30b 5-16-30c 5-16-30d |
स तान्यथावच्च हि लोकपाला- | 5-16-31a 5-16-31b 5-16-31c 5-16-31d |
राजा देवानां नहुषो घोररूप- | 5-16-32a 5-16-32b 5-16-32c 5-16-32d |
त्वं चेद्राजानं नहुषं पराजये- | 5-16-33a 5-16-33b 5-16-33c 5-16-33d |
चेन्द्राग्न्योर्वै भाग एको महाक्रतौ ।। | 5-16-34f |
शल्य उवाच। | 5-16-35x |
एवं संचिन्त्य भगवान्महेन्द्रः पाकशासनः। | 5-16-35a 5-16-35b |
वैवस्वतं पितॄणां च वरुणं चाप्यपां तथा। | 5-16-36a 5-16-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
[सम्पाद्यताम्]
5-16-6 हेतयः ज्वालाः ।। 5-16-31 नहुषस्यान्तरेण अन्तरं भेदः। बुद्धिभेदार्थमित्यर्थः ।।
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