महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-178
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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श्रीपरशुरामेण अम्बादिभिः सह कुरुक्षेत्रं गत्वा भीष्मानयनम् ।। 1 ।।
रामेण स्वेन चोदनेपि भीष्मेण अम्बापरिग्रहानङ्गीकारे युद्धाय तस्याह्वानम् ।। 2 ।।
भीष्म उवाच। | 5-178-1x |
एवमुक्तस्तदा रामो जहि भीष्ममिति प्रभो। | 5-178-1a 5-178-1b |
काश्ये न कामं गृह्णामि शस्त्रं वै वरवर्णिनि। | 5-178-2a 5-178-2b |
वाचा भीष्मश्च साल्वश्च मम राज्ञि वशानुगौ। | 5-178-3a 5-178-3b |
न तु शस्त्रं ग्रहीष्यामि कथंचिदपि भामिनि । | 5-178-4a 5-178-4b |
अम्बोवाच। | 5-178-5x |
मम दुःखं भगवता व्यपनेयं यतस्ततः। | 5-178-5a 5-178-5b |
राम उवाच। | 5-178-6x |
काशिकन्ये पुनर्ब्रूहि भीष्मस्ते चरणावुभौ। | 5-178-6a 5-178-6b |
अम्बोवाच। | 5-178-7x |
जहि भीष्मं रणे राम मम चेदिच्छसि प्रियम्। | 5-178-7a 5-178-7b |
भीष्म उवाच। | 5-178-8x |
तयोः संवदतोरेवं राजन्रामाम्बयोस्तदा । | 5-178-8a 5-178-8b |
शरणागतां महाबाहो कन्यां न त्यक्तुमर्हसि । | 5-178-9a 5-178-9b |
निर्जितोऽस्मीति वा ब्रूयात्कुर्याद्वा वचनं तव । | 5-178-10a 5-178-10b 5-178-11c 5-178-11b |
जित्वा वै क्षत्रियान्सर्वान्ब्रह्मणेषु प्रतिश्रुता । | 5-178-12a 5-178-12b |
ब्रह्मद्विङ्भविता तं वै हनिष्यामीति भार्गव । | 5-178-13a 5-178-13b |
न शक्ष्यामि परित्यागं कर्तुं जीवन्कथंचन । | 5-178-14a 5-178-14b |
दीप्तात्मानमहं तं च हनिष्यामीति भार्गव । | 5-178-15a 5-178-15b 5-178-15c |
राम उवाच। | 5-178-16x |
स्मराम्यहं पूर्वकृतां प्रतिज्ञामृषिसत्तम। | 5-178-16a 5-178-16b |
कार्यमेतन्महद्ब्रह्मन्काशिकान्यामनोगतम्। | 5-178-17a 5-178-17b |
यदि भीष्मो रणश्लाघी न करिष्यति मे वचः। | 5-178-18a 5-178-18b |
न हि बाणा मयोत्सृष्टाः सज्जन्तीह शरीरिणाम्। | 5-178-19a 5-178-19b |
भीष्म उवाच। | 5-178-20x |
एवमुक्त्वा ततो रामः सह तैर्ब्रह्मवादिभिः। | 5-178-20a 5-178-20b |
ततस्ते तामुषित्वा तु रजनीं तत्र तापसाः । | 5-178-21a 5-178-21b |
अभ्यगच्छत्ततो रामः सह तैर्ब्रह्मवादिभिः । | 5-178-22a 5-178-22b |
न्यविशन्त ततः सर्वे परिगृह्य सरस्वतीम् । | 5-178-23a 5-178-23b |
ततस्तृतीये दिवसे समे देशे व्यवस्थितः । | 5-178-24a 5-178-24b |
तमागतमहं श्रुत्वा विषयान्तं महाबलम् । | 5-178-25a 5-178-25b |
गां पुरस्कृत्य राजेन्द्र ब्राह्मणैः परिवारितः। | 5-178-26a 5-178-26b |
स मामभिगतं दृष्ट्वा जामदग्न्यः प्रतापवान् । | 5-178-27a 5-178-27b |
राम उवाच। | 5-178-28x |
भीष्म कां बुद्धिमास्थाय काशिराजसुता तदा। | 5-178-28a 5-178-28b |
विभ्रंशिता त्वया हीयं धर्मादास्ते यशस्विनी । | 5-178-29a 5-178-29b |
प्रत्याख्याता हि साल्वेन त्वया नीतेति भारत। | 5-178-30a 5-178-30b |
स्वधर्मं पुरुषव्याघ्र राजपुत्री लभत्वियम्। | 5-178-31a 5-178-31b |
भीष्म उवाच। | 5-178-32x |
ततस्तं वै विमनसमुदीक्ष्याहमथाब्रुवम्। | 5-178-32a 5-178-32b |
साल्वस्याहमिति प्राह पुरा मामेव भार्गव। | 5-178-33a 5-178-33b |
न भयान्नाप्यनुक्रोशान्नार्थलोभान्न काम्यया। | 5-178-34a 5-178-34b |
अथ मामब्रवीद्रामः क्रोधपर्याकुलेक्षणः। | 5-178-35a 5-178-35b |
हनिष्यामि सहामात्यं त्वामद्येति पुनः पुनः । | 5-178-36a 5-178-36b |
तमहं गीर्भिरिष्टाभि पुनः पुनररिन्दम। | 5-178-37a 5-178-37b |
प्रणम्य तमहं मूर्ध्ना भूयो ब्राह्मणसत्तमम् । | 5-178-38a 5-178-38b |
इष्वस्त्रं मम बालस्य भवतैव चतुर्विधम्। | 5-178-39a 5-178-39b |
ततो मामब्रवीद्रामः क्रोधसंरक्तलोचनः । | 5-178-40a 5-178-40b |
सुतां काश्यस्य कौरव्य मत्प्रियार्थं महामते। | 5-178-41a 5-178-41b |
गृहाणेमां महाबाहो रक्षस्व कुलमात्मनः। | 5-178-42a 5-178-42b |
तथा ब्रुवन्तं तमहं रामं परपुरंयम्। | 5-178-43a 5-178-43b |
गुरुत्वं त्वयि संप्रेक्ष्य जामदग्न्य पुरातनम् । | 5-178-44a 5-178-44b |
को जातु परभावां हि नारीं व्यालीमिव स्थिताम् । | 5-178-45a 5-178-45b |
न भयाद्वासवस्यापि धर्मं जह्यां महाव्रत । | 5-178-46a 5-178-46b |
अयं चापि विशुद्धात्मन्पुराणे श्रूयते विभो। | 5-178-47a 5-178-47b |
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः। | 5-178-48a 5-178-48b |
स त्वं गुरुरिति प्रेम्णा मया संमानितो भृशम् । | 5-178-49a 5-178-49b |
गुरुं न हन्यां समरे ब्राह्मणं च विशेषतः । | 5-178-50a 5-178-50b |
उद्यतेषुमथो दृष्ट्वा ब्राह्मणं क्षत्रबन्धुवत्। | 5-178-51a 5-178-51b |
ब्रह्महत्या न तस्य स्यादिति धर्मेषु निश्चयः । | 5-178-52a 5-178-52b |
यो यथा वर्तते यस्मिंस्तस्मिन्नेव प्रवर्तयन् । | 5-178-53a 5-178-53b |
अर्थे वा यदि वा धर्मे समर्थो देशकालवित् । | 5-178-54a 5-178-54b |
यस्मात्संशयितेऽप्यर्थेऽयथान्यायं प्रवर्तसे । | 5-178-55a 5-178-55b |
पश्य मे बाहुवीर्यं च विक्रमं चातिमानुषम् । | 5-178-56a 5-178-56b |
तत्करिष्ये कुरुक्षेत्रे योत्स्ये विप्र त्वया सह । | 5-178-57a 5-178-57b |
तत्र त्वं निहतो राम मया शरशतार्दितः । | 5-178-58a 5-178-58b |
स गच्छ विनिवर्तस्व कुरुक्षोत्रं रणप्रिय । | 5-178-59a 5-178-59b |
अपि यत्र त्वया राम कृतं शौचं पुरा पितुः । | 5-178-60a 5-178-60b |
तत्र राम समागच्छ त्वरितं युद्धदुर्मद । | 5-178-61a 5-178-61b |
यच्चापि कत्थसे राम बहुशः परिवत्सरे । | 5-178-62a 5-178-62b |
न तदा जातवान्भीष्मः क्षत्रियो वापि मद्विधः । | 5-178-63a 5-178-63b |
यस्ते युद्धमयं दर्पं कामं च व्यपनाशयेत्। | 5-178-64a 5-178-64b 5-178-64c |
ततो मामब्रवीद्रामः प्रहसन्निव भारत। | 5-178-65a 5-178-65b |
अयं गच्छामि कौरव्य कुरुक्षेत्रं त्वया सह। | 5-178-66a 5-178-66b |
तत्र त्वां निहतं माता मया शरशताचितम् । | 5-178-67a 5-178-67b |
कृपणं त्वामभिप्रेक्ष्य सिद्धचारणसेविता । | 5-178-68a 5-178-68b |
अतदर्हा महाभागा भगीरथसुताऽनघा । | 5-178-69a 5-178-69b |
एहि गच्छ मया भीष्म युद्धकामुक दुर्मद । | 5-178-70a 5-178-70b |
इति ब्रुवाणं तमहं रामं परपुरंजयमक् । | 5-178-71a 5-178-71b |
एवमुक्त्वा ययौ रामः कुरुक्षेत्रं युयुत्सया । | 5-178-72a 5-178-72b |
ततः कृतस्वस्त्ययनो मात्रा च प्रतिनन्दितः। | 5-178-73a 5-178-73b |
रथमास्थाय रुचिरं राजतं पाण्डुरैर्हयैः। | 5-178-74a 5-178-74b |
उपपन्नं महाशस्त्रैः सर्वोपकरणान्वितम् । | 5-178-75a 5-178-75b |
यत्तं सूतेन शिष्टेन बहुशो दृष्टकर्मणा । | 5-178-76a 5-178-76b |
पाण्डुरं कार्मुकं गृह्य प्रायां भरतसत्तम । | 5-178-77a 5-178-77b |
पाण्डुरैश्चापि व्यजनैर्वीज्यमानो नराधिप । | 5-178-78a 5-178-78b |
स्तूयमानो जयाशीर्भिर्निष्क्रम्य गजसाह्वयात्। | 5-178-79a 5-178-79b |
ते हयाश्चोदितास्तेन सूतेन परमाहवे । | 5-178-80a 5-178-80b |
गत्वाऽहं तत्कुरुक्षेत्रं स च रामः प्रतापवान् । | 5-178-81a 5-178-81b |
ततः सदर्शनेऽतिष्ठं रामस्यातितपस्विनः । | 5-178-82a 5-178-82b |
ततस्तत्र द्विजा राजंस्तापसाश्च वनौकसः। | 5-178-83a 5-178-83b |
ततो दिव्यानि माल्यानि प्रादुरासंस्ततस्ततः। | 5-178-84a 5-178-84b |
ततस्ते तापसाः सर्वे भार्गवस्यानुयायिनः । | 5-178-85a 5-178-85b |
ततो मामब्रवीद्देवी सर्वभूतहितैषिणी । | 5-178-86a 5-178-86b |
गत्वाऽहं जामदग्न्यं तु प्रयाचिष्ये कुरूद्वह । | 5-178-87a 5-178-87b |
मा मैवं पुत्र निर्बन्धं कुरु विप्रेण पार्थिव । | 5-178-88a 5-178-88b |
किं न वै क्षत्रियहणो हरतुल्यपराक्रमः । | 5-178-89a 5-178-89b |
ततोऽहमब्रवं देवीमभिवाद्य कृताञ्जलिः। | 5-178-90a 5-178-90b |
यथा च रामो राजेन्द्र मया पूर्वं प्रचोदितः । | 5-178-91a 5-178-91b |
ततः सा राममभ्येत्य जननी मे महानदी। | 5-178-92a 5-178-92b |
भीष्मेण सह मा योत्सीः शिष्येणेति वचो।़ब्रवीत् । | 5-178-93a 5-178-93b 5-178-93c |
ततो गङ्गा सुतस्नोहान्मां सा पुनरुपागमत्। | 5-178-94a 5-178-94b |
अथादृश्यत धर्मात्मा भृगुश्रेष्ठो महातपाः। | 5-178-95a 5-178-95b |
।। इति श्रीमन्महाभारते |
5-178-2 काश्ये काशिराजकन्ये ।। 5-178-48 अवलिप्तस्य दृप्तस्य। प्रतिपन्नस्य कार्यं भवति शासनमिति कo धo पाठः ।। 5-178-53 यः पुमान् यस्मिन्नरे यथा प्रीत्या द्वेषेण वा वर्तते स नरस्तस्मिन् तथैव प्रीति द्वेषं वा प्रवर्तयन् ।। 5-178-54 ननु त्वामर्थे प्रवर्तयन्नहं त्वयि प्रीतिमेव करोमीत्याशङ्क्याह अर्थेवेति। अर्थे द्युस्वाक्याद्दारकरणे धर्मे पितृप्रीत्यर्थं स्वीकृते ब्रह्मचर्ये विषये देशकालानुसारेण समर्थो विवेककुशलः। तत्र धर्मलोपेन गुरुवाक्यात् प्राप्यमाणोऽर्थः श्रेयानुत नेत्यर्थे संशयवानुत गुरुवाक्यविरोधेनापि पाल्यमानो धर्मः श्रेयानुत नेति धर्मे संशयवान्। एतयोर्मध्ये अर्थे संशयमापन्नोऽर्थमननुतिष्ठन् श्रेयान्। परिशेषात् धर्मे तु निःशंसयो धर्ममेवानुतिष्ठन् श्रोयानित्यर्थ ।। 5-178-61 पौराणं पुराकृतम् ।। 5-178-67 बलाः काकाः तेषामशनं अन्नभूतम् ।।
उद्योगपर्व-177 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | उद्योगपर्व-179 |