महाभारतम्-06-भीष्मपर्व-043
← भीष्मपर्व-042 | महाभारतम् षष्ठपर्व महाभारतम्-06-भीष्मपर्व-043 वेदव्यासः |
भीष्मपर्व-044 → |
|
युधिष्ठिरेण रथादवरुह्य भीष्मद्रोणाद्यभिवादनपूर्वकं तेभ्यो जयाशीर्ग्रहणम् ।। 1 ।। युधिष्ठिरे पुनर्भ्रातृभिः सह रथारूढे सन्नहाभेरीन्नादनम् ।। 2 ।।
वैशंपायन उवाच। | 6-43-1x |
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रसंग्रहैः । या स्वयं पद्मनाभस्य सुखपद्माद्विनिःसृता ।। | 6-43-1a 6-43-1b |
सर्वशास्त्रमयी गीता सर्वदेवमयो हरिः। सर्वतीर्थमयी गङ्गा सर्वदेवमयो मनुः ।। | 6-43-2a 6-43-2b |
गीता गङ्गा च गायत्री गोविन्देति हृदि स्थिते। चतुर्गकारसंयुक्ते पुनर्जन्म न विद्यते ।। | 6-43-3a 6-43-3b |
षट्शतानि सविंशानि श्लोकानां प्राह केशवः। अर्जुनः सप्तपञ्चाशत्सप्तषष्टिं तु सञ्जयः।। | 6-43-4a 6-43-4b |
धृतराष्ट्रः श्लोकमेकं गीताया मानमुच्यते । भारतामृतसर्वस्वगीताया मथितस्य च। सारमुद्धृत्य कृष्णेन अर्जुनस्य मुखे हुतम् ।। | 6-43-5a 6-43-5b 6-43-5c |
सञ्जय उवाच। | 6-43-6x |
ततो धनंजयं दृष्ट्वा बाणगाण्डीवधारिणम् । पुनरेव महानादं व्यसृजन्त महारथाःक ।। | 6-43-6a 6-43-6b |
पाण्डवाः सोमकाश्चैव ये चैषामनुयायिनः । दध्मुश्च मुदिताः शङ्खान्वीराः सागरसंभवान् ।। | 6-43-7a 6-43-7b |
ततो भेर्यश्च पेश्यश्च क्रकचा गोविषाणिकाः । सहसैवाभ्यहन्यन्त ततः शब्दो महानभूत् ।। | 6-43-8a 6-43-8b |
तथा देवाः सगन्धर्वाः पितरश्च जनाधिप । सिद्धचारणसङ्घाश्च समीयुस्ते दिदृक्षया ।। | 6-43-9a 6-43-9b |
ऋषयश्च महाभागाः पुरस्कृत्य शतक्रतुम् । समीयुस्तत्र सहिता द्रुष्टुं तद्वैशसं महत् ।। | 6-43-10a 6-43-10b |
` ते सेने स्तिमिते सञ्जे वीक्षमाणे परस्परम् । गङ्गायमुनयोर्वेगो यथैवैत्य परस्परम् ।। | 6-43-11a 6-43-11b |
एवं प्रवत्ते ते सेने निःशब्दे जनसंसदि । चित्रे पट इवालेख्ये दर्शनीयतरे शुभे ।।' | 6-43-12a 6-43-12b |
ततो युधिष्ठिरो दृष्ट्वा युद्धाय समवस्थिते। ते सेने सागरप्रख्ये मुहुः प्रज्वलिते नृप ।। | 6-43-13a 6-43-13b |
विमुच्य कवचं वीरो निक्षिप्य च वरायुधम् । अवरुह्य रथात्क्षिप्रं पद्म्यामेव कृताञ्जलिः ।। | 6-43-14a 6-43-14b |
पितामहमभिप्रेक्ष्य धर्मराजो युधिष्ठिरः । वाग्यतः प्रययौ धीरः प्राङ्भुखो रिपुवाहिनीम् ।। | 6-43-15a 6-43-15b |
तं प्रयान्तमभिप्रेभ्य कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः । अवतीर्य रथात्तूर्णं भ्रातृभिः सहितोऽन्वयात् ।। | 6-43-16a 6-43-16b |
वासुदेवश्च भगवान्पृष्ठतोऽनुजगाम तम् । तथा मुख्याश्च राजानस्तच्चित्ता जग्मुरुत्सुकाः ।। | 6-43-17a 6-43-17b |
अर्जुन उवाच। | 6-43-18x |
किं ते व्यवसितं राजन्यदस्मानपहाय वै। प्रद्म्यामेव प्रयातोऽसि प्राङ्मुखो रिपुवाहिनीम् ।। | 6-43-18a 6-43-18b |
भीमसेन उवाच। | 6-43-19x |
क्व गमिष्यसि राजेन्द्र निक्षिप्तकवचायुधः। दंशितेष्वरिसैन्येषु भ्रातॄनुत्सृज्य पार्थिव ।। | 6-43-19a 6-43-19b |
नकुल उवाच। | 6-43-20x |
एवं गते त्वयि ज्येष्ठे मम भ्रातरि भारत। भीमे दुनोति हृदयं ब्रूहि गन्ता भवान्क्व नु ।। | 6-43-20a 6-43-20b |
सहदेव उवाच। | 6-43-21x |
अस्मिन्रणसमूहे वै वर्तमाने महाभये। उत्सृज्य क्व नु गन्तासि शत्रूनभिमुखो नृप ।। | 6-43-21a 6-43-21b |
सञ्जय उवाच। | 6-43-22x |
एवमाभाष्यमाणोऽपि भ्रातृभिः कुरुनन्दनः। नोवाच वाग्यतः किंचिद्गच्छत्येव युधिष्ठिरः ।। | 6-43-22a 6-43-22b |
तानुवाच महाप्राज्ञो वासुदेवो महामनाः । अभिप्रायोऽस्य विज्ञातो मयेति प्रहसन्निव ।। | 6-43-23a 6-43-23b |
एष भीष्मं तथा द्रोणं गौतमं शल्यमेव च। अनुमान्य गुरून्सर्वान्योत्स्यते पार्थिवोऽरिभिः ।। | 6-43-24a 6-43-24b |
श्रूयते हि पुराकल्पे गुरूनननुमान्य यः। युध्यते स भवेद्व्यक्तमपध्यातो महत्तरैः ।। | 6-43-25a 6-43-25b |
अनुमान्य यथाशास्त्रं यस्तु युध्येन्महत्तरैः । ध्रुवस्तस्य जयो युद्धे भवेदिति मतिर्मम ।। | 6-43-26a 6-43-26b |
एवं ब्रुवति कृष्णेऽत्र धार्तराष्ट्रचमूं प्रति। हाहाकारो महानासीन्निःशब्दास्त्वपरेऽभवन् ।। | 6-43-27a 6-43-27b |
दृष्ट्वा युधिष्ठिरं दूराद्धार्तराष्ट्रस्य सैनिकाः । मिथः संकथयांचक्रुरेषो हि कुलपांसनः ।। | 6-43-28a 6-43-28b |
व्यक्तं भीत इवाभ्येति राजासौ भीष्ममन्तिकम् । युधिष्ठिरः ससोदर्यः शरणार्थं प्रयाचकः ।। | 6-43-29a 6-43-29b |
धनञ्जये कथं नाथे पाण्डवे च वृकोदरे । नकुले सहदेवे च भीतिरभ्येति पाण्डवम् ।। | 6-43-30a 6-43-30b |
न नूनं क्षत्रियकुले जातः संप्रथिते भुवि। यथाऽस्य हृदयं भीतमल्पसत्वस्य संयुगे ।। | 6-43-31a 6-43-31b |
ततस्ते सैनिकाः सर्वे प्रशंसन्ति स्म कौरवान् । हृष्टाः सुमनसो भूत्वा चेलानि दुधुवुश्च ह ।। | 6-43-32a 6-43-32b |
व्यनिन्दंश्च तथा सर्वे योधास्तव विशांपते। युधिष्ठिरं ससोदर्यं सहितं केशवनेन हि ।। | 6-43-33a 6-43-33b |
ततस्तत्कौरवं सैन्यं धिक्वृत्वा तु युधिष्ठिरम् । निःशब्दमभवत्तूर्णं पुनरेव विशांपते ।। | 6-43-34a 6-43-34b |
किं नु वक्ष्याति राजाऽसौ किं भीष्मः प्रतिवक्ष्यति। किं भीमः समरश्लाघी किं नु कृष्णार्जुनाविति ।। | 6-43-35a 6-43-35b |
विवक्षितं किमस्येति संशयः सुमहानभूत् । उभयो सेनयो राजन्युधिष्ठिरकृते तदा ।। | 6-43-36a 6-43-36b |
सोऽवगाह्य चमूं शत्रोः शरशक्तिसमाकुलाम् । भीष्ममेवाभ्यात्तूर्णं भ्रातृभिः परिवारितः ।। | 6-43-37a 6-43-37b |
तमुवाच ततः पादौ कारभ्यां पीड्य पाण्डवः । भीष्मं शान्तनवं राजा युद्धाय समुपस्थितम् ।। | 6-43-38a 6-43-38b |
युधिष्ठिर उवाच। | 6-43-39x |
आमन्त्रये त्वां दुर्धर्ष त्वया योत्स्यामहे सह। अनजानीहि मां तात आशिषश्च प्रयोजय ।। | 6-43-39a 6-43-39b |
भीष्म उवाच। | 6-43-40x |
यद्येवं नाभिगच्छेथा युधि मां पृथिवीपते। शपेयं त्वां महाराज परीभावाय भारत ।। | 6-43-40a 6-43-40b |
प्रीतोऽहं पुत्र युध्यस्व जयमाप्नुहि पाण्डव । यत्तेऽभिलषितं चान्यत्तदवाप्नुहि संयुगे ।। | 6-43-41a 6-43-41b |
व्रियतां च वरः पार्थ किमस्मत्तोऽभिकाङ्क्षसि । एवं गते महाराज न तवास्ति पराजयः ।। | 6-43-42a 6-43-42b |
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ।। | 6-43-43a 6-43-43b |
अतस्त्वां क्लीबवद्वाक्यं ब्रवीमि कुरुनन्दन । भृतोऽस्त्म्यर्थेन कौरव्य युद्धादन्यत्किमिच्छसि ।। | 6-43-44a 6-43-44b |
युधिष्ठिर उवाच। | 6-43-45x |
मन्त्रयस्व महाबाहो हितैषी मम नित्यशः। युध्यस्व कौरवस्यार्थे ममैष सततं वरः ।। | 6-43-45a 6-43-45b |
भीष्म उवाच। | 6-43-46x |
राजन्किमत्र साह्यं ते करोमि कुरुनन्दन। कामं योत्स्ये परस्यार्थे ब्रूहि यत्ते विवक्षितम् ।। | 6-43-46a 6-43-46b |
युधिष्ठिर उवाच। | 6-43-47x |
कथं जयेयं संग्रामे भवन्तमपराजितम्। एतन्मे मन्त्रय हितं यदि श्रेयः प्रपश्यसि ।। | 6-43-47a 6-43-47b |
भीष्म उवाच। | 6-43-48x |
नैनं पश्यामि कौन्तेय यो मां युध्यन्तमाहवे। विजयेत पुमान्कश्तित्साक्षादपि शतक्रतुः ।। | 6-43-48a 6-43-48b |
युधिष्ठिर उवाच। | 6-43-49x |
हन्त पृच्छामि तस्मात्त्वां पितामह नमोस्तु ते। वधोपायं ब्रवीहि त्वमात्मनः समरे परैः ।। | 6-43-49a 6-43-49b |
भीष्म उवाच। | 6-43-50x |
न स्म तं तात पश्यामि समरे यो जयेत माम्। न तावन्मृत्युकालोऽपि पुनरागमनं कुरु ।। | 6-43-50a 6-43-50b |
सञ्जय उवाच। | 6-43-51x |
ततो युधिष्ठिरो वाक्यं भीष्मस्य कुरुनन्दन। शिरसा प्रतिजग्राह भूयस्तमभिवाद्य च ।। | 6-43-51a 6-43-51b |
प्रायात्पुनर्महाबाहुराचार्यस्य रथं प्रति। पश्यतां सर्वसैन्यानां मध्येन भ्रातृभिः सह ।। | 6-43-52a 6-43-52b |
स द्रोणमभिवाद्याथ कृत्वं चाभिप्रदक्षिणम् । उवाच राजा दुर्धर्षमात्मनिःश्रेयसं वचः ।। | 6-43-53a 6-43-53b |
आमन्त्रये त्वां भगवन्योत्स्ये विगितकल्मषः । कथं जये रिपून्सर्वाननुज्ञातस्त्वया द्विज ।। | 6-43-54a 6-43-54b |
द्रोण उवाच। | 6-43-55x |
यदि मां नाभिगच्छेथा युद्धाय कृतनिश्चयः। शपेयं त्वां महाराज परीभावाय सर्वशः ।। | 6-43-55a 6-43-55b |
तद्युधिष्ठिर तुष्टोऽस्मि पूजितश्च त्वयाऽनघ। अनुजानामि युध्यस्व विजयं समवाप्नुहि ।। | 6-43-56a 6-43-56b |
करवाणि च ते कामं ब्रूहि त्वमभिकाङ्क्षितम् । एवं गते महाराज युद्धादन्यत्किमिच्छसि ।। | 6-43-57a 6-43-57b |
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैःक ।। | 6-43-58a 6-43-58b |
ब्रवीम्येतत्क्लीबवत्त्वां युद्धादन्यत्किमिच्छसि। योत्स्येऽहं कौरवस्यार्थे तवाशास्यो जयो मया ।। | 6-43-59a 6-43-59b |
युधिष्ठिर उवाच। | 6-43-60x |
जयमाशास्स्व मे ब्रह्मन्मन्त्रयस्व च मद्धितम्। युध्यस्व कौरवस्यार्थे वर एष वृतो मया ।। | 6-43-60a 6-43-60b |
द्रोण उवाच। | 6-43-61x |
ध्रुवस्ते विजयो राजन्यस्य मन्त्री हरिस्तव । अहं त्वामभिजानामि रणे शत्रून्विजेष्यसि ।। | 6-43-61a 6-43-61b |
यतो धर्मस्ततः कृष्णो यतः कृष्णस्ततो जयः। युध्यस्व गच्छ कौन्तेय पृच्छ मां किं ब्रवीमि ते ।। | 6-43-62a 6-43-62b |
युधिष्ठिर उवाच। | 6-43-63x |
पृच्छामि त्वां द्विजश्रेष्ठ श्रृणु यन्मेऽभिकाङ्क्षितम्। कथं जयेयं संग्रामे भवन्तमपराजितम् ।। | 6-43-63a 6-43-63b |
द्रोण उवाच। | 6-43-64x |
न तेऽस्ति विजयस्तावद्यावद्युद्ध्याम्यहं रणे। ममाशु निधने राजन्यतस्व सह सदरैः ।। | 6-43-64a 6-43-64b |
युधिष्ठिर उवाच। | 6-43-65x |
हन्त तस्मान्महाबाहो वधोपायं वदात्मनः। आचार्य प्रणिपत्यैष पृच्छामि त्वां नमोऽस्तु ते ।। | 6-43-65a 6-43-65b |
द्रोण उवाच। | 6-43-66x |
न शत्रुं तात पश्यामि यो मां हन्याद्रथे स्थितम्। युध्यमानं सुसंरब्धं शरवर्षौघवर्षिणम् ।। | 6-43-66a 6-43-66b |
ऋते प्रायगतं रजन्न्यस्तशस्त्रमचेतनम् । हन्यान्मां युधि योधानां सत्यमेतद्ब्रवीमि ते । | 6-43-67a 6-43-67b |
शस्त्रं चाहं रणे जह्यां श्रुत्वा तु महदप्रियम्। श्रद्धेपवाक्यात्पुरुषादेतत्सत्यं ब्रवीति ते ।। | 6-43-68a 6-43-68b |
सञ्जय उवाच। | 6-43-69x |
एतच्छ्रुत्वा महाराज भारद्वाजस्य धीमतः। अनुमान्य तमाचार्यं प्रायाच्छारद्वतं प्रति ।। | 6-43-69a 6-43-69b |
सोऽभिवाद्य कृपं राजा कृत्वा चापि प्रदक्षिणम् । उवाच दुर्धर्षतमं वाक्यं वाक्यविदां वरः ।। | 6-43-70a 6-43-70b |
अनुमानये त्वां योत्स्येऽहं गुरो विगतकल्मषः । जयेयं च रिपून्सर्वाननुज्ञातस्त्वयाऽनघ ।। | 6-43-71a 6-43-71b |
कृप उवाच। | 6-43-72x |
यदि मां नाभिगच्छेथा युद्धाय कृतनिश्चयः। शपेयं त्वां महाराज परीभावाय सर्वशः ।। | 6-43-72a 6-43-72b |
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित् । इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः । | 6-43-73a 6-43-73b |
तेषामर्थे महाराज योद्धव्यमिति मे मतिः । अतस्त्वां क्लीबवद्ब्रूयांयुद्धादन्यत्किमिच्छसि ।। | 6-43-74a 6-43-74b |
युधिष्ठिर उवाच। | 6-43-75x |
हन्त पृच्छामि ते तस्मादाचार्य श्रृणु मे वचः। इत्युक्त्वा व्यथितो राजा नोवाच गतचेतनः ।। | 6-43-75a 6-43-75b |
सञ्जय उवाच | 6-43-76x |
तं गौतमः प्रत्युवाच विज्ञायास्य विवक्षितम्। अवध्योऽहं महीपाल यद्ध्यस्व जयमाप्नुहि ।। | 6-43-76a 6-43-76b |
प्रीतस्तेऽभिगमेनाहं जयं तव नराधिप । आशासिष्ये सदोत्थाय सत्यमेतद्ब्रवीमि ते ।। | 6-43-77a 6-43-77b |
एतच्छ्रुत्वा महाराज गौतमस्य विशांपते। अनुमान्य कृपं राजा प्रययौ येन मद्रराट् ।। | 6-43-78a 6-43-78b |
स शल्यमभिवाद्याथ कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम् । उवाच राजा दुर्धर्षमात्मनिःश्रेयसं वचः ।। | 6-43-79a 6-43-79b |
अनुमानये त्वां दुर्धर्ष योत्स्ये विगतकल्मषः । जयेयं नु परान्राजन्ननुज्ञातस्त्वया रिपून् ।। | 6-43-80a 6-43-80b |
शल्य उवाच। | 6-43-81x |
यदि मां नाधिगच्छेथा युद्धाय कृतनिश्चयः । शपेयं त्वां महाराज परीभावाय वै रणे ।। | 6-43-81a 6-43-81b |
तुष्टोऽस्मि पूजितश्चास्मि यत्काङ्क्षसि तदस्तु ते । अनुजानामि चैव त्वां युध्यस्व जयमाप्नुहि ।। | 6-43-82a 6-43-82b |
ब्रूहि चैष परं वीर केनार्थः किं ददामि ते। एवं गते महाराज युद्धादन्यत्किमिच्छसि ।। | 6-43-83a 6-43-83b |
अर्थस्य पुरुषो दासो दासस्त्वर्थो न कस्यचित्। इति सत्यं महाराज बद्धोस्म्यर्थेन कौरवैः ।। | 6-43-84a 6-43-84b |
करिष्यामि हि ते कामं भागिनेय यथेप्सितम्। ब्रवीम्यतः क्लीबवत्त्वां युद्धादन्यत्किमिच्छसि ।। | 6-43-85a 6-43-85b |
युधिष्ठिर उवाच। | 6-43-86x |
मन्त्रयस्व महाराज नित्यं मद्धितमुत्तमम्। कामं युद्ध्य परस्यार्थे वरमेतं वृणोम्यहम् ।। | 6-43-86a 6-43-86b |
शल्य उवाच। | 6-43-87x |
किमत्र ब्रूहि साह्यं ते करोमि नृपसत्तम। कामं योत्स्ये परस्यार्थे बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः ।। | 6-43-87a 6-43-87b |
युधिष्ठिर उवाच। | 6-43-88x |
स एव मे वरः शल्य उद्योगे यस्त्वया कृतः। सूतपुत्रस्य संग्रामे कार्यस्तेजोवधस्त्वया ।। | 6-43-88a 6-43-88b |
शल्य उवाच। | 6-43-89x |
संपत्स्यत्येष ते कामः कुन्तीपुत्र यथेप्सितम् । गच्छ युध्यस्व विस्रब्धः प्रतिजाने वचस्तव ।। | 6-43-89a 6-43-89b |
सञ्जय उवाच। | 6-43-90x |
अनुमान्याथ कौन्तेयो मातुलं मद्रकेश्वरम् । निर्जगाम महासैन्याद्भ्रतृभिः परिवारितः ।। | 6-43-90a 6-43-90b |
वासुदेवस्तु राधेयमाहवेऽभिजगाम वै। तत एनमुवाचेदं पाण्डवार्थे गदाग्रजः ।। | 6-43-91a 6-43-91b |
श्रुतं मे कर्ण भीष्मस्य द्वोषात्किल न योत्स्यसे। अस्मान्वरय राधेय यावद्भीष्मो न हन्यते ।। | 6-43-92a 6-43-92b |
हते तु भीष्मे राधेय पुनरेष्यसि संयुगम् । धार्तराष्ट्रस्य साहाय्यं यदि पश्यसि चेत्समम् ।। | 6-43-93a 6-43-93b |
कर्ण उवाच। | 6-43-94x |
न विप्रियं करिष्यामि धार्तराष्ट्रस्य केशव । त्यक्तप्राणं हि मां विद्धि दुर्योधनहितैषिणम् ।। | 6-43-94a 6-43-94b |
सञ्जय उवाच। | 6-43-95x |
तच्छ्रुत्वा वचनं कृष्णः संन्यवर्तत भारत । युधिष्ठिरपुरोगैश्च पाण्डवैः सह संगतः ।। | 6-43-95a 6-43-95b |
अथ सैन्यस्य मध्ये तु प्राक्रोशत्पाण्डवाग्रजः । योऽस्मान्वृणोति तमहं वरये साह्यकारणात् ।। | 6-43-96a 6-43-96b |
अथ तान्समभिप्रेक्ष्य युयुत्सुरिदमब्रवीत् । प्रीतात्मा धर्मराजानं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् ।। | 6-43-97a 6-43-97b |
अहं योत्स्यामि भवतः संयुगे धृतराष्ट्रजान् । युष्मदर्थं महाराज यदि मां वृणुषेऽनघ ।। | 6-43-98a 6-43-98b |
युधिष्ठिर उवाच। | 6-43-99x |
एह्येहि सर्वे योत्स्यामस्तव भ्रातॄनपण्डितान्। युयुत्सो वासुदेवश्च वयं च ब्रूम सर्वशः ।। | 6-43-99a 6-43-99b |
वृणोमि त्वां महाबाहो युध्यस्व मम कारणात्। त्वयि पिण्डश्च तन्तुश्च धृतराष्ट्रस्य दृश्यते ।। | 6-43-100a 6-43-100b |
भजस्वास्मान्राजपुत्र भजमानान्महाद्युते । न भविष्यति दुर्बुद्धिर्धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः ।। | 6-43-101a 6-43-101b |
सञ्जय उवाच। | 6-43-102x |
ततो युयुत्सुः कौरव्यान्परित्यज्य सुतांस्तव। जगाम पाण्डुपुत्राणां सेनां विश्राव्य दुन्दुभिं ।। | 6-43-102a 6-43-102b |
ततो युधिष्ठिरो राजा संप्रहृष्टःक सहानुजः । जग्राह कवचं भूयो दीप्तिमत्कनकोञ्ज्वलम् ।। | 6-43-103a 6-43-103b |
प्रत्यपद्यन्त ते सर्वे स्वरथान्पुरुषर्षभाः । ततो व्यूहं यथापूर्वं प्रत्यव्यूहन्त ते पुनः ।। | 6-43-104a 6-43-104b |
अवादयन्दुन्दुभींश्च शतशश्चैव पुष्करान् । सिंहनादांश्च विविधान्विनेदुः पुरुषर्षभाः ।। | 6-43-105a 6-43-105b |
रथस्थान्पुरुषव्याघ्रान्पाण्डवान्प्रेक्ष्य पार्थिवाः । धृष्टद्युम्नादयः सर्वे पुनर्जहृषिरे तदा ।। | 6-43-106a 6-43-106b |
गौरवं पाण्डुपुत्राणां मान्यान्मानयतां च तान्। दृष्ट्वा महीक्षितस्तत्र पूजयांचक्रिरे भृशम् ।। | 6-43-107a 6-43-107b |
सौहृदं च कृपां चैव प्राप्तकालं महात्मनाम् । दयां च ज्ञातिषु परां कथयांचक्रिरे नृपाः ।। | 6-43-108a 6-43-108b |
साधुसाध्विति सर्वत्र निश्चेरुः स्तुतिसंहिताः। वाचः पुण्याः कीर्तिमतां मनोहृदयहर्षणाः ।। | 6-43-109a 6-43-109b |
म्लेच्छाश्चार्याश्च ये तत्र ददृशुः शुश्रुवुस्तथा । वृत्तं तत्पाण्डुपुत्राणां रुरुदुस्ते सगद्गदाः ।। | 6-43-110a 6-43-110b |
ततो जघ्नुर्महाभेरीः शतशश्च सहस्रशः । शङ्खांश्च गोक्षीरनिभान्दध्मुर्हृष्टा मनस्विनः ।। | 6-43-111a 6-43-111b |
।। इति श्रीमन्महाभारते भीष्मपर्वणि भीष्मवधपर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ।। |
6-43-8 पेश्यः काहलाः। क्रकचा जयमङ्गलाः। गोविषाणिकाः गवादिश्रृङ्गाणि ।। 6-43-25 पुराकल्पे प्राचीनशास्त्रे ।। 6-43-29 व्यक्तं नियतम्। भीष्मं भीष्मस्य। अन्तिकं समीपम् ।। 6-43-36 विवक्षितं वक्तुमिष्टम् ।। 6-43-50 तावत् संप्रति ।। 6-43-53 आत्मनिःश्रेसं स्वहित साधनम् ।। 6-43-65 अभिजानामि अनुजानामि ।। 6-43-67 प्रायगतं मरणाय नियतम् । अचेतनं योगबलेन त्यक्तदेहम् । योधानां मध्ये कश्चिदिति शेषः ।। 6-43-68 जह्यां त्यजेयम् ।। 6-43-98 भवतः भवत्संबन्धी ।। 6-43-100 तन्तुः संततिः । पिण्डः पितृयज्ञः । अन्ये सर्वे मरिष्यन्तीति भावः ।। 6-43-107 गौरवं मान्यत्वम् ।। 6-43-108 सौहृदं मैत्रीम् । कृपां स्नेहम्। दयां परदुःखप्रहाणेच्छाम् ।। 6-43-109 कीर्तिमतां पाण्डवानां स्तुतिसंहिता वाच इति संबन्धः ।।
भीष्मपर्व-042 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | भीष्मपर्व-044 |