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ब्रह्मपुराणम्/अध्यायः ६७

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अध्यायः ६७
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अथ सप्तषष्टितमोऽध्यायः
द्वादशयात्रामाहात्म्यवर्णनम्
मुनय ऊचुः
एकैकस्यास्तु यात्रायाः फलं ब्रूहि पृथक्पृथक्।
यत्प्राप्नोति नरः कृत्वा नारी वा तत्र संयता।। ६७.१ ।।

प्रतियात्राफलं विप्राः श्रृणुध्वं गदतो मम।
यत्प्राप्नोति नरः कृत्वा तस्मिन्क्षेत्रे सुसंयतः।। ६७.२ ।।

गुडिवायां तथोत्थाने फाल्गुन्यां विषुवे तथा।
यात्रां कृत्वा विधानेन दृष्ट्वा कृष्णं प्रणम्य च।। ६७.३ ।।

संकर्षणं सुभद्रां च लभेत्सर्वत्र वै फलम्।
नरो गच्छेद्विव्यणुलोके यावदिन्द्राश्चतुर्दश।। ६७.४ ।।

यावद्यात्रां ज्येष्ठमासे करोति विधिवन्नरः।
तावत्कल्पं विष्णुलोके सुखं भुङ्क्ते न संशयः।। ६७.५ ।।

तस्मिन्क्षेत्रवरे पुण्ये रम्ये श्रीपुरुषोतमे।
भुक्तिमुक्तिप्रदे नॄणां सर्वसत्त्वसुखावहे।। ६७.६ ।।

ज्येष्ठे यात्रां(त्रा)नरः कृत्वा नारी वा संयतेन्द्रियः।
यथोक्तेन विधानेन दश द्वे च समाहितः।। ६७.७ ।।

प्रतिष्ठां कुरुते यस्तु शाठ्यदम्भविवर्जितः।
स भुक्त्वा विविधान्भोगान्मोक्षं चान्ते लभेद्ध्रुवम्।। ६७.८ ।।

मुनय ऊचुः
श्रोतुमिच्छामहे देव प्रतिष्ठां वदतस्तव।
विधानं चार्चनं दानं फलं तत्र जगत्पतेः।। ६७.९ ।।

ब्रह्मोवाच
श्रृणुध्वं मुनिशार्दूलाः प्रतिष्ठां विधिचोदिताम्।
यां कृत्वा तु नरो भक्त्या नारी वा लभते फलम्।। ६७.१० ।।

यात्राद्वादश संपूर्णा यदा स्यात्तु(स्युस्तु)द्विजोत्तमाः।
तदा कुर्वीत विधिवत्प्रतिष्ठां पापनाशिनीम्।। ६७.११ ।।

ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे त्वेकादश्यां समाहितः।
गत्वा जलाशयं पुण्यमाचम्य प्रयतः शुचिः।। ६७.१२ ।।

आवाह्यसर्वतीर्थानि ध्यात्वा नारायणं तथा।
ततः स्नानं प्रकुर्वीत विधिवत्सुसमाहितः।। ६७.१३ ।।

यस्य यो विधिरुद्दिष्ट ऋषिभिः स्नानकर्मणि।
तेनैव तु विधानेन स्नानं तस्य विधीयते।। ६७.१४ ।।

स्नात्वा सम्यग्विधानेन ततो देवानृषीन्पितॄन्।
संतर्पयेत्तथाऽन्यांश्च नामगोत्रविधानवित्।। ६७.१५ ।।

उत्तीर्य वाससी धौते निर्मले परिधाय वै।
उपस्पृश्य विधानेन भास्कराभिमुखस्ततः।। ६७.१६ ।।

गायत्रीं पावनीं देवीं मनसा वेदमातरम्।
सर्वपापहरां पुण्यां जपेदष्टोत्तरं शतम्।। ६७.१७ ।।

पुण्यांश्च सौरमन्त्रांश्च श्रद्धया सुसमाहितः।
त्रिःप्रदक्षिणमावृत्य भास्करं प्रणमेत्ततः।। ६७.१८ ।।

वेदोक्तं त्रिषु वर्णेषु स्नानं जाप्यमुदाहृतम्।
स्त्रीसूद्रयोः स्नानजाप्यं वेदोक्तविधिवर्जितम्।। ६७.१९ ।।

ततो गच्छेद्गृहं मौनी पूजयेत्पुरुषोत्तमम्।
प्रक्षाल्य हस्तौ पादौ च उपस्पृश्य यथाविधि।। ६७.२० ।।

घृतेन स्नापयेद्देवं क्षीरेण तदनन्तरम्।
मधुगन्धोदकेनैव तीर्थचन्दनवारिणा।। ६७.२१ ।।

ततो वस्त्रयुगं श्रेष्ठं भक्त्या तं परिधापयेत्।
चन्दनागरुकर्पूरैः कुङ्कुमेन विलेपयेत्।। ६७.२२ ।।

पूजयेत्परया भक्त्या पद्मैश्च पुरुषोत्तमम्।
अन्यैश्च वैष्णवैः पुष्पैरर्चयेन्मल्लिकादिभिः।। ६७.२३ ।।

संपूज्यैवं जगन्नाथं भुक्तिमुक्तिप्रदं हरिम्।
धूपं चागुरुसंयुक्तं दहेद्देवस्य चाग्रतः।। ६७.२४ ।।

गुग्गुलं च मुनिश्रेष्ठा दहेद्गन्धसमन्वितम्।
दीपं प्रज्वालयेद्भक्त्या यथाशक्त्या(क्ति)घृतेन वै।। ६७.२५ ।।

अन्यांश्च दीपकान्दद्यद्द्वादशैव समाहितः।
घृतेन च मुनिश्रेष्ठास्तिलतैलेन वा पुनः।। ६७.२६ ।।

नैवेद्ये पायसापूपशष्कुलीवटकं तथा।
मोदकं फाणितं वाऽल्पं फलानि च निवेदयेत्।। ६७.२७ ।।

एवं पञ्चोपचारेण संपूज्य पुरुषोत्तमम्।
नमः पुरुषोत्तमायेति जपेदष्टोत्तरं शतम्।। ६७.२८ ।।

ततः प्रसादयेद्देवं भक्त्या तं पुरुषोत्तमम्।
नमस्ते सर्वलोकेश भक्तानामभयप्रद।। ६७.२९ ।।

संसारसागरे मग्नं त्राहि मां पुरुषोत्तम।
यास्ते मया कृता यात्रा द्वादशैव जगत्पते।। ६७.३० ।।

प्रसादात्तव गोविन्द संपूर्णास्ता भवन्तु मे।
एवं प्रसाद्य तं देवं दण्डवत्प्रणिपत्य च।। ६७.३१ ।।

ततोऽर्चयेद्गुरुं भक्त्या पुष्पवस्त्रानुलेपनैः।
नानयोरन्तरं यस्माद्विद्यते मुनिसत्तमाः।। ६७.३२ ।।

देवस्योपरि कुर्वीत श्रद्धया सुसमाहितः।
नानापुष्पैर्मुनिश्रेष्ठा विचित्रं पुष्पमण्डपम्।। ६७.३३ ।।

कृत्वाऽवधारणं पश्चाज्जागरं कारयेन्निशि।
कथां च वासुदेवस्य गीतिकां चापि कारयेत्।। ६७.३४ ।।

ध्यायन्पठन्स्तुवन्देवं प्रणयेद्रजनीं बुधः।
ततः प्रभाते विमले द्वादश्यां द्वादशैव तु।। ६७.३५ ।।

निमन्त्रयेद्व्रतस्नातान्ब्राह्मणान्वेदपारगान्।
इतिहासपुराणज्ञाञ्श्रोत्रियान्संयतेन्द्रियान्।। ६७.३६ ।।

स्नात्वा सम्यग्विधानेन धौतवासा जितेन्द्रियः।
स्नापयेत्पूर्ववत्तत्र पुजयेत्पुरुषोत्तमम्।। ६७.३७ ।।

गन्धैः पुष्पैरुपहारैर्नैवेद्यैर्दीपकैस्तथा।
उपचारैर्बहुविधैः प्रणिपातैः प्रदक्षिणैः।। ६७.३८ ।।

याप्यैः स्तुतिनमस्कारैर्गीतवाद्यैर्मनोहरैः।
संपूज्यैवं जगन्नाथं ब्राह्मणान्पूजयेत्ततः।। ६७.३९ ।।

द्वादशैव तु गास्तेभ्यो दत्त्वा कनकमेव च।
छत्रोपानद्युगं चैव श्रद्धाभक्तिसमन्वितः।। ६७.४० ।।

भक्त्या तु सधनं तेभ्यो दद्याद्वस्त्रादिकं द्विजाः।
सद्भावेन तु गोविन्दस्तोष्यते पूजितो यतः।। ६७.४१ ।।

आचार्याय ततो दद्याद्गोवस्त्रं कनकं तथा।
छत्रोपानद्युगं चान्यत्कांस्यपात्रं च भक्तितः।। ६७.४२ ।।

ततस्तान्भोजयेद्विप्रान्भोज्यं पायसपूर्वकम्।
पक्वान्नं भक्ष्यभोज्यं च गुडसर्पिःसमन्विततः।। ६७.४३ ।।

ततस्तानन्नतृप्नांश्च ब्राह्मणान्स्वस्थमानसान्।
द्वादशैवोदकुम्भांश्च दद्यात्तेभ्यः समोदकान्।। ६७.४४ ।।

दक्षिणांच यथाशक्त्या(क्ति)दद्यात्तेभ्यो विमत्सरः।
कुम्भं च दक्षिणां चैव आचार्याय निवदयेत्।। ६७.४५ ।।

एवं संपूज्य तान्विप्रान्गुरुं ज्ञानप्रदायकम्।
पूजयेत्परया भक्त्या विष्णुतुल्यं द्विजोत्तमाः।। ६७.४६ ।।

सुवर्णवस्त्रगोधान्यैर्द्रव्यैश्चान्यैर्वरैर्बुधः।
संपूज्य तं नमस्कृत्य इमं मन्त्रमुदीरयेत्।। ६७.४७ ।।

सर्वव्यापी जगन्नाथः शङ्खचक्रगदाधरः।
अनादिनिधनो देवः प्रीयतां पुरुषोत्तमः।। ६७.४८ ।।

इत्युच्चार्य ततो विप्रांस्त्रिः कृत्वा च प्रदक्षिणाम्।
प्रणम्य शिरसा भक्त्या आचार्यं तु विसर्जयेत्।। ६७.४९ ।।

ततस्तान्ब्राह्मणान्भक्त्या चाऽऽसीमान्तमनुव्रजेत्।
अनुव्रज्य तु तान्सर्वान्नमस्कृत्य निवर्तयेत्।। ६७.५० ।।

बान्धवैः स्वजनैर्युक्तस्ततो भुञ्जीत वाग्यतः।
अन्यैश्चोपासकैर्दीनैर्भिक्षुकैश्चान्नकाङ्क्षिभिः।। ६७.५१ ।।

एवं कृत्वा नरः सम्यङ्नारी वा लभते फलम्।
अश्वमेधसहस्राणां राजसूयशतस्य च।। ६७.५२ ।।

अतीतं शतमादाय पुरुषाणां नरोत्तमाः।
भविष्यं च शतं विप्राः स्वर्गत्या दिव्यरूपधृक्।। ६७.५३ ।।

सर्वलंक्षणसंपन्नः सर्वालंकारभूषितः।
सर्वकामसमृद्धात्मा देववद्विगतज्वरः।। ६७.५४ ।।

रूपयौवनसंपन्नो गुणैः सर्वैरलंकृतः।
स्तूयमानोऽप्सरोभिश्च गन्धर्वैः समलंकृतः।। ६७.५५ ।।

विमाननेनार्कवर्णेन कामगेन स्थिरेण च।
पताकाध्वजयुक्तेन सर्वरत्नैरलंकृतः।। ६७.५६ ।।

उद्योतयन्दिशः सर्वा आकाशे विगतक्लमः।
युवा महाबलो धीमन्विष्णुलोकं स गच्छति ।। ६७.५७ ।।

तत्र कल्पशतं यावद्भुङ्क्ते भोगान्यथेप्सितान्।
सिद्धाप्सरोभिर्गन्धर्वैः सुरविद्याधरोरगैः।। ६७.५८ ।।

स्तूयमानो मुनिवरैस्तिष्ठते विगतज्वरः।
यथा देवो जगन्नाथः शङ्खचक्रगदाधरः।। ६७.५९ ।।

तथाऽसौ मुदितो विप्राः कृत्वा रूपं चतुर्भुजम्।
भुक्त्वा तत्र वरान्भोगान् क्रीडां कृत्वा सुरैः सह।। ६७.६० ।।

तदन्ते ब्रह्मसदनमायाति सर्वकामदम्।
सिद्धविद्याधरैश्चापि शोभितं सुरकिन्नरैः।। ६७.६१ ।।

कालं नवतिकल्पं तु तत्र भुक्त्वा सुखं नरः।
तस्मादायाति विप्रेन्द्राः सर्वकामफलप्रदम्।। ६७.६२ ।।

रुद्रलोकं सुरगणैः सेवितं सुखमोक्षदम्।
अनेकशतसाहस्रैर्विमानैः समलंकृतम्।। ६७.६३ ।।

सिद्धविद्याधरैर्यक्षैर्भूषितं दैत्यदानवैः।
अशीतिकल्पकालं तु तत्र भुक्त्वा सुखं नरः।। ६७.६४ ।।

तदन्ते याति गोलोकं सर्वभोगसमन्वितम्।
सुरसिद्धाप्सरोभिश्च शोभितं सुमनोहरम्।। ६७.६५ ।।

तत्र सप्ततिकल्पांस्तु भुक्त्वा भोगमनुत्तमम्।
दुर्लभं त्रिषु लोकेषु स्वस्थचित्तो यथाऽमरः।। ६७.६६ ।।

तस्मादागच्छते लोकं प्राजापत्यमनुत्तमम्।
गन्धर्वाप्सरसैः सिद्धैर्मुनिविद्याधरैर्वृतः।। ६७.६७ ।।

षष्टिकल्पान्सुखं तत्र भुक्त्वा नानाविधं मुदा।
तदन्ते शक्रभवनं नानाश्चर्यसमन्वितम्।। ६७.६८ ।।

गन्धर्वैः किंनरैः सिद्धैः सुरविद्याधरोरगैः।
गुह्यकाप्सरसैः साध्यैर्वृतैश्चान्यैः सुरोत्तमैः।। ६७.६९ ।।

आगत्य तत्र पञ्चाशत्कल्पान्भुक्त्वा सुखं नरः।
सुरलोकं ततो गत्वा विमानैः समलंकृतः।। ६७.७० ।।

चत्वारिंशत्तु कल्पांस्तु भुक्त्वा भोगान्सुदुर्लभान्।
आगच्छते ततो लोकं नक्षत्रख्यं सुदुर्लभम्।। ६७.७१ ।।

ततोभोगगान्वरान्भुङ्क्ते त्रिंशत्कल्पान्यथेप्सितान्।
तस्मादागच्छते लोकं शशाङ्कस्य दिवजोत्तमाः।। ६७.७२ ।।

यत्रासौ तिष्ठते सोमः सवैर्देवरलंकृतः।
तत्र विंशतिकल्पांस्तु भुक्त्वा भोगं सुदुर्लभम्।। ६७.७३ ।।

आदित्यस्य ततो लोकमायाति सुरपूजितम्।
नानाश्चर्यमयं पुण्यं गन्धर्वाप्सरःसेवितम्।। ६७.७४ ।।

तत्र भुक्त्वा शुभान्भोगान्दश कल्पान्द्विजोत्तमाः।
तस्मादायाति भुवनं गन्धर्वाणां सुदुर्लभम्।। ६७.७५ ।।

तत्र भोगान्समस्तांश्च कल्पमेकं यथासुखम्।
भुक्त्वा चाऽऽयाति मेदिन्यां राजा भवति धार्मिकः।। ६७.७६ ।।

चक्रवर्ती महावीर्यो गुणैः सर्वैरलंकृतः।
कृत्वा राज्यं स्वधर्मेण यज्ञैरिष्ट्वा सुदक्षिणैः।। ६७.७७ ।।

तदन्ते योगिनां लोकं गत्वा मोक्षप्रदं शिवम्।
तत्र भुक्त्वा वरन्भोगान्यावदाभूतसंप्लवम्।। ६७.७८ ।।

तस्मादागच्छते चात्र जायते योगिनां कुले।
प्रवरे वैष्णवे विप्रा दुर्लभे साधुसंमते।। ६७.७९ ।।

चतुर्वेदी विप्रवरो यज्ञैरिष्ट्वाऽऽप्तदक्षिणैः।
वैष्णवं योगमास्थाय ततो मोक्षमवाप्नुयात्।। ६७.८० ।।

एवं यात्राफलं विप्रा मया सम्यगुदाहृतम्।
भुक्तिमुक्तिप्रदं नॄणां किमन्यच्छ्रोतुमिच्छथ।। ६७.८१ ।।

इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे स्वयंभ्वृषिसंवादे द्वादशयात्राफलमाहात्म्यनिरूपणं नाम सप्तषष्टितमोऽध्यायः।। ६७ ।।