ब्रह्मपुराणम्/अध्यायः ८६

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अध्यायः ८६
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अथ षडशीतितमोऽध्यायः
चक्रतीर्थगणिकासंगमवर्णनम्
ब्रह्मोवाच
अस्ति ब्रह्मन्महातीर्थं चक्रतीर्थमिति श्रुतम्।
तत्र स्नानान्नरो भक्त्या हरेर्लोकमवाप्नुयात्।। ८६.१ ।।

एकादश्यां तु शक्लायामुपष्य पृथिवीपते।
गणिकासंगमे स्नात्वा प्राप्नुयादक्षयं पदम्।। ८६.२ ।।

पुरा तत्र यथा वृत्तं तन्मे निगदतः श्रृणु।
असीद्विश्वधरो नाम वैश्यो बहुधनान्वितः।। ८६.३ ।।

उत्तरे वयसि श्रेष्ठस्तस्य पुत्रोऽभवदृषे।
गुणवात्रूपसंपन्नो विलासी शुभदर्शनः।। ८६.४ ।।

प्राणेभ्योऽपि प्रियः पुत्रः काले पञ्चत्वमागतः।
तथा दृष्ट्वा तु तं पुत्रं दंपती दुःखपीडितौ।। ८६.५ ।।

कुर्वाते स्म तदा तेन सहैव मरणे मतिम्।
हा पुत्र हन्त कालेन पापेन सुदुरात्मना।। ८६.६ ।।

यौवने वर्तमानाऽपि नीतोऽसि गुणसागर।
आवयोश्च तथैव त्वं प्राणेऽभ्योऽपि सुदुर्लभः।। ८६.७ ।।

इत्थं तु रुदितं श्रुत्वा दंपत्योः करुणं यमः।
त्यक्त्वा निजपुरं तूर्णं कृपयाऽऽविष्टमानासः।। ८६.८ ।।

गोदावर्याः शुभे तीरे स्थितो ध्यायञ्जनार्दनम्।
अपि स्वल्पेन कालेन प्रजा वृद्धाः समन्ततः।। ८६.९ ।।

इयत इति मे पृथ्वी कथ्यतां केन पूरिता(?)।
न कश्चिन्म्रियते जन्तुर्भाराक्रान्ता वसुंधरा।। ८६.१० ।।

ततो देवी गता तूर्णं वसुधा मुनिसत्तम।
यत्रास्ति सुरसंयुक्तं शक्रः परपुरंजयः।।
दृष्ट्वा वसुन्धरामिन्द्रः प्रणिपत्येदमब्रवीत्।। ८६.११ ।।

इन्द्र उवाच
किमागमनकार्यं त इति मे पृथ्वि कथ्यताम्।। ८६.१२ ।।

धरोवाच
भारेण गुरुणा शक्र पीडिताऽहं विना वधम्।
कारणं प्रष्टुमायाता किमिदं कथ्ग्तां मम।। ८६.१३ ।।

ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा महीवाक्यमिन्द्रो वचनमब्रवीत्।। ८६.१४ ।।

इन्द्र उवाच
कारणं यदि नाम स्यात्तदानीं ज्ञायते मया।
सुराणां हि पतिर्यस्मादहं सर्वासु(?)मेदिनि।। ८६.१५ ।।

ब्रह्मोवाच
अथ पृथ्वी तदा वाक्यं श्रुत्वा चाऽऽह शचीपतिम्।
यम आदिश्यतां तर्हि यथा संहरते प्रजाः।। ८६.१६ ।।

इति श्रुत्वा वचो मह्य आदिष्टाः सिद्धकिन्नराः।
यमस्याऽऽनयने शीघ्रं महेन्द्रेण महामुने।। ८६.१७ ।।

ततस्ते सत्वरं याताः सर्वे वैवस्वतं पुरम्।
नैवापश्यन्यमं तत्र ते सिद्धाः सह किंनरैः।।
तथाऽऽगत्य पुनर्वेगाद्वार्ता शक्रे निवेदिता।। ८६.१८ ।।

सिद्धकिंनरा ऊचुः
यमो यमपुरे नाथ अस्माभिर्नावलोकितः
महताऽपि सुयत्नेन वीक्ष्यमाणः समन्ततः।। ८६.१९ ।।

ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा वचस्तेषां पृष्टः शक्रेण वै तदा।
सविता स पिता तस्य यमः कुत्राऽऽस्त इत्यथ।। ८६.२० ।।

सूर्य उवाच
शक्र गोदावरीतीरे कृतान्तो वर्ततेऽधुना।
चरंस्तत्र तपस्तीव्रं न जाने किं नु कारणम्।। ८६.२१ ।।

ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा वचो भानोः शक्रः शङ्कामुपाविशत्।। ८६.२२ ।।

शक्र उवाच
अहो कष्टं महाकष्टं नष्टा मे सुरनाथता।
गोदावर्यां तपः कुर्याद्यमो वै दुष्टचेष्टितः।।
जिघृक्षुर्मत्पदं नूनं देवा इति मतिर्मम।। ८६.२३ ।।

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा सहसेन्द्रेण आहूतश्चाप्सरोगणः।। ८६.२४ ।।

इन्द्र उवाच
का भवतीषु कालस्य स्थितस्य तपसी द्विषः।
तपः प्रणाशने शक्ता इति मे शीघ्रमुच्यताम्।। ८६.२५ ।।

ब्रह्मोवाच
इति शक्रवचः श्रुत्वा नोचे काऽपि महामुने।
अथ शक्रः प्रकोपेण प्रत्युवाचाप्सरोगणम्।। ८६.२६ ।।

इन्द्र उवाच
उत्तरं नाब्रवीत्किञ्चिद्यामस्तर्हि वयं स्वयम्।
सज्जा भवन्तु विबुधाः सैन्यैरान्तु मा चिरम्।।
घातयामो वयं शत्रुं तपसा स्वर्गकामुकम्।। ८६.२७ ।।

ब्रह्मोवाच
इत्युक्ते सति देवानां सेना प्रादुर्बभूव ह।
इतीन्द्रहृदयं ज्ञात्वा हरिणा लोकधारिणा।। ८६.२८ ।।

प्रेषितं चक्रिणा चक्रं रक्षणाय यमस्य हि।
चक्रं यत्राभवत्तत्र चक्रतीर्थमनुत्तमम्।। ८६.२९ ।।

अथेन्द्रं मेनका प्राह शङ्कितेति वचस्तदा।। ८६.३० ।।

मेनकोवाच
कालावलोकने नालं काचिदस्ति सुरेश्वर।
मरणं च वरं देव भवतो न यमात्पुनः।। ८६.३१ ।।

रूपयौवनमत्तेयं गणिकायाचनं प्रभो।
प्रेषणं तत्प्रयच्छैषा स्वामित्वं मन्यते त्वया।। ८६.३२ ।।

ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा वचस्तस्याः शक्रः सुरवरेश्वरः।
आदिदेशाबलां क्षामां सत्कृत्य गणिकां तथा।। ८६.३३ ।।

शक्र उवाच
गणिके गच्छ मे कार्यं सुन्दरि मा चिरम्।
कृतकृत्याऽऽगता भूयो वल्लभा मे यथा शची।। ८६.३४ ।।

ब्रह्मोवाच
इत्याकर्ण्य वचः शक्रादुत्पत्य गणिका दिशः।
क्षणेन यमसांनिध्यमायाता चारुरूपिणी।। ८६.३५ ।।

यमान्तिकमनुप्राप्ता द्योतयन्ती दिशो दश।
सलींलं ललितं बाला जगौ हिन्दोलकंकलम्(चञ्चला)।। ८६.३६ ।।

ततश्चचाल कालस्य मनो लोलं चलाचलम्।
अथोन्मील्य यमो नेत्रे कामपावकपूरिते।। ८६.३७ ।।

तस्यां व्यापारयामास श्रेयःशत्रौ महामुने।
ततो विलीय सा सद्यः सरित्त्वमगमत्तदा।। ८६.३८ ।।

गौतम्यां तु समागम्य गणिकागणकिंकरैः।
गीयमाना गता स्वर्गे तस्य तीर्थप्रभावतः।। ८६.३९ ।।

गच्छन्तीं गणकां दृष्ट्वा विमानस्थां दिवं प्रति।
विस्मयं परमं प्राप्तः कालस्तरललोचनः।।
आऽऽदित्येन चाऽऽगत्य एवमुक्तो यमस्तदा।। ८६.४० ।।

सूर्य उवाच
कुरु पुत्र निजं कर्म प्रजानां त्वं परिक्षयम्।
पश्य वातं सदा वान्तं सृजन्तं वेधसं प्रजाः।।
पर्यटन्तं त्रिलोकीं मां वहन्तीं वसुधां प्रजाः।। ८६.४१ ।।

ब्रह्मोवाच
इति श्रुत्वा यमो वाक्यं पितुर्वचनमब्रवीत्।। ८६.४२ ।।

एतन्न गर्हितं कर्म कुर्यामहमिदं ध्रुवम्।
कर्मण्यस्मिन्महाक्रूरे समादेष्टुं न वाऽर्हसि।। ८६.४३ ।।

इति श्रुत्वा च तद्वाक्यं भानुर्वचनमब्रवीत्।
किं नाम गर्हितं कर्म तव कर्तुमलं यम।। ८६.४४ ।।

किं न दृष्टा त्वया यान्ती गणिका गणकिंकरैः।
गीयमाना दिवं सद्यो गौतमीतोयमाप्लुता।। ८६.४५ ।।

त्वया चात्र तपस्तीव्रं कृतं पुत्र सुदुष्करम्।
नैवान्तं तस्य पश्यामि तस्माद्गच्छ निजं पुरम्।। ८६.४६ ।।

भूतहाऽपि भगवान्भानुस्तत्र स्नात्वा गतो दिवम्।
यमोऽपि संगमे स्नात्वा ततो निजपुरं ययौ।। ८६.४७ ।।

भूतहाऽपि ततः शङ्कां तत्याज च महामुने।
तथा दृष्ट्वा यमं यान्तं चक्रे प्रयाणकम्।। ८६.४८ ।।

भगवान्यत्र गोविन्दो वनमालाविभूषितः।
इति यः श्रृणुयान्मर्त्यः पठेद्वाऽपि समाहितः।। ८६.४९ ।।

आपदस्तस्य नश्यन्ति दीर्घमायुरावाप्नुयात्।। ८६.५० ।।

इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे तीर्थमाहात्म्ये चक्रतीर्थगणिकासंगमवर्णनं नाम ष़डशीतितमोऽध्यायः।। ८६ ।।

गौतमीमाहात्म्ये सप्तदशोऽध्यायः।। १७ ।।