ब्रह्मपुराणम्/अध्यायः ४०

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अध्यायः ४०
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दक्षकृतिशिवस्तुति-वर्णनम्
ब्रह्मोवाच
एवं दृष्ट्वा तदा दक्षः शंभोर्वीर्यं द्विजोत्तमाः।
प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा संस्तोतुमुपचक्रमे॥ ४०.१ ॥

दक्ष उवाच
नमस्ते देवदेवेश नमस्तेऽन्धकसूदन।
देवन्द्र त्वं बलश्रेष्ठ देवदानवपूजित॥ ४०.२ ॥

सहस्राक्ष विरूपाक्ष त्र्यक्ष यक्षाधिपप्रिय।
सर्व्वतःपाणिपादस्त्वं सर्वतोक्षिशिरोमुखः॥ ४०.३ ॥

सर्दतःश्रुतिमांलोके सर्वमावृत्य तिष्ठसि।
शङ्कुकर्णो महाकर्णः सुम्भकर्णोऽर्मवालयः॥ ४०.४ ॥

गजेन्द्रकर्णो गोकर्णः शतकर्णो नमोऽस्तु ते।
शतोदरः शतावर्तः शतजिह्‌वः सनातनः॥ ४०.५ ॥

गायन्ति त्वां गायत्रिणो अर्चयन्त्यर्कमर्किणः।
देवदानवगोप्ता च ब्रह्म च त्वं शतक्रतुः॥ ४०.६ ॥

मुर्तिमांस्वं महामूर्तिः समुद्रः सरसां निधिः।
त्वयि सर्वा देवता हि गावो गोष्ठ इवाऽऽसते॥ ४०.७ ॥

त्वत्तः शरीरे पश्यामि सोममग्निजलेश्वरम्।
आदित्यमथ विष्णुं च ब्रह्माणं सवृहस्पतिम्॥ ४०.८ ॥

क्रिया करणकार्ये च कर्ता कारणमेव च।
असच्च सदसच्चैव तथैव प्रभवाव्य (प्य) यौ॥ ४०.९ ॥

नमो भवाय शर्वाय रुद्राय वरदाय च।
पशूनां पतये चैव नमोऽस्त्वन्धकघातिने॥ ४०.१० ॥

ज्ञिजटाय त्रिशीर्षाय त्रिसूलवरधारिणे।
त्र्यम्बकाय त्रिनेत्राय त्रिपुरघ्नाय वै नमः॥ ४०.११
नमश्चण्डाय मुण्डाय विश्वचण्डधराय च।
दण्डिने शङ्कुकर्णाय दण्डिदण्डाय वै नमः॥ ४०.१२ ॥

योऽर्धदण्डिकेशाय शुष्काय विकृताय च।
विलोहिताय धूम्राय नीलग्रीवाय वै नमः॥ ४०.१३ ॥

नमोऽस्त्वप्रतिरूपाय विरूपाय शिवाय च।
सूर्याय सूर्यपतये सूर्यध्वजपताकिने॥ ४०.१४ ॥

नमः प्रमथनाशाय कृषस्कन्धाय वै नमः।
नमो हिरण्यगर्भाय हिरण्यकवचाय च॥ ४०.१५ ॥

हिरण्यकृतचूडाय हिरण्यपतये नमः।
शत्रुघाताय चण्डाय पर्मसंधशयाय च॥ ४०.१६ ॥

नमः स्तुताय स्तुतये स्तूयमानाय वै नमः।
सर्वाय सर्वभक्षाय सर्वभूतान्तरात्मने॥ ४०.१७ ॥

नमो होमाय न्त्राय शुक्लध्वजपताकिने।
नमोऽनम्याय नम्याय नमः किलकिलाय च॥ ४०.१८ ॥

नमस्त्वां शयमानाय शयितायोत्थिताय च।
स्थिताय धावमानाय कुब्जाय कुटिलाय च॥ ४०.१९ ॥

नमो नर्तनशीलाय मुखवादित्रकारिणे।
बाधापहाय लुब्धाय गीतवादित्रकारिणे॥ ४०.२० ॥

नमो ज्येष्ठाय श्रेष्ठाय बलप्रमथनाय च।
उग्राय च नमो नित्यं नमश्च दशबाहवे॥ ४०.२१ ॥

नमः कपालहस्ताय सितभस्मप्रियाय च।
विभीषणाय भीमाय भीष्मव्रतधराय च॥ ४०.२२ ॥

नानाविकृतवक्त्राय खड्गजिह्वोग्रदंष्ट्रिणे।
पक्षमासलवार्धाय तुम्बीणाप्रियाय च॥ ४०.२३ ॥

अघोरघोररूपाय घोराघोरतराय च।
नमः शिवाय शान्तायः नमः शान्ततमाय च॥ ४०.२४ ॥

नमो बुद्धाय शुद्धाय संविभागप्रियाय च।
पवनाय पतङ्गाय नमः सांख्यापराय च॥ ४०.२५ ॥

नमश्चण्डैकघण्टाय घण्टाजल्पाय घण्टिने।
सहस्रशतघण्टाय घण्टामालाप्रियाय च॥ ४०.२६ ॥

प्राणदण्डाय नित्याय नमस्ते लोहिताय च।
हूंहूंकाराय रुद्राय भगाकारप्रियाय च॥ ४०.२७ ॥

नमोऽपरवते नित्यं गिरिवृक्षप्रियाय च।
नमो यज्ञाधिपतये भूताय प्रस्तुताय च॥ ४०.२८ ॥

यज्ञवाहाय दान्ताय तप्याय च भगाय च।
नमस्तटाय तट्याय तटिनीपतये नमः॥ ४०.२९ ॥

अन्नदाययान्नपतये नमस्त्वन्नभुजाय च।
नमः सहस्रशीर्षाय सहस्रचरणाय च॥ ४०.३० ॥

सहस्रोद्धतशूलाय सहस्रनयनाय च।
नमो बालार्कवर्णाय बालरूपधराय च॥ ४०.३१ ॥

नमो बालार्करूपाय कालक्रीडनकाय च।
नमः शुद्धाय बुद्धाय क्षोभणाय भयाय च॥ ४०.३२ ॥

तरङ्गाङ्कितकेशाय मुक्तकेशाय वै नमः।
नमः षट्कर्मनिष्ठाय त्रिकर्मनियताय च॥ ४०.३३ ॥

वर्णाश्रमाणां विधिवत्पृथग्धर्मप्रवर्तिने।
नमः श्रेष्ठाय ज्येष्ठाय नमः कलकलाय च॥ ४०.३४ ॥

श्वेतपिङ्गलनेत्राय कृष्णरक्तेक्षणाय च।
धर्मकामार्थमोक्षाय क्रथाय क्रथनाय च॥ ४०.३५ ॥

साख्याय सांख्यमुख्याय योगाधिपतये नमः।
नमो रथ्याथिरथ्याय चतुष्पथपथाय च॥ ४०.३६ ॥

कृष्णाजिनोत्तरीयाय व्यालयज्ञोपवीतिने।
ईशान रुद्रसंघात हरिकेश नमोऽस्तु ते॥ ४०.३७ ॥

त्र्यम्बकायाम्बिकानाथ व्यक्ताव्यक्त नमोऽस्तु ते।
कालकामदकामघ्न दुष्टोद्धृत्तनिषूदन॥ ४०.३८ ॥

सर्वगर्हितसर्वघ्न हद्योजात नमोऽस्तु ते।
उन्मादनशतावर्त गङ्गातोयार्द्रमूर्धज॥ ४०.३९ ॥

चन्द्रार्धसंयुगावर्त मेघावर्त नमोऽस्तु ते।
नमोऽन्नदानकर्त्रे च अन्नदप्रभवे नमः॥ ४०.४० ॥

अन्नभोक्त्रे च गोप्त्रे च त्वमेव प्रलयानल।
जरायुजाण्डजाश्चैव स्वेदजोद्भिज्ज एव च॥ ४०.४१ ॥

त्वमेव देवदेवेश भूतग्रामश्चतुर्विधः।
चराचरस्य स्रष्टा त्वं प्रतिहर्ता त्वमेव च॥ ४०.४२ ॥

त्वमेव ब्रह्मा विश्वेश अप्सु ब्रह्म वदन्ति ते।
सर्वस्य परमा योनिः सु धांशो ज्योतिषां निधिः॥ ४०.४३ ॥

ऋक्सामानि तथोंकारमाहुस्त्वां ब्रह्मवादिनः।
हायि हायि हरे हायि हुवाहावेति वाऽसकृत्॥ ४०.४४ ॥

गायनति त्वां सुरश्रेष्ठाः सामगा ब्रह्मवादिनः।
यजुर्मय ऋङ्मयश्च सामाथर्वयुतस्तथा॥ ४०.४५ ॥

पठ्यसे ब्रह्मविद्भिस्त्वं कल्पोपनिषदां गणैः।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा वर्णश्रिमाश्च ये॥ ४०.४६ ॥

त्वमेवाऽऽश्रमसंघाश्च विद्युत्स्तनितमेव च।
वृषाणां ककुदं त्वं हि गिरीणां शिखराणि च॥ ४०.४७ ॥

कला काष्ठा निसेषास्च नक्षत्राणि युगानि च।
वृषाणां ककुदं त्वं हि गिरीणां शिखराणि च॥ ४०.४८ ॥

सिंहो मृगाणां पतयस्तक्षकानन्तभोगिनाम्।
क्षीरोदो ह्यु दधीनां च मन्त्राणां प्रणवस्तथा॥ ४०.४९ ॥

वज्रं प्रहरणानां च व्रतानां सत्यमेव च।
त्वमेवेच्छा च द्वेषस्च रागो मोहः शमः क्षमा॥ ४०.५० ॥

व्यवसायो धृतिर्लोभः कामक्रोधौ जयाजयौ।
त्वं गदी त्वं शरी चापी खट्वाङ्गी मुद्‌गरो तथा॥ ४०.५१ ॥

छेत्ता भेत्ता प्रहर्ता च नेता मन्ताऽसि नो मतः।
दशलक्षणसंयुक्तो धर्मोऽर्थेः काम एव च॥ ४०.५२ ॥

इन्दुः समुद्रः सरितः पल्वलानि सरांसि च।
लतावल्यस्तुणौषध्यः पशवो मृगपक्षिणः॥ ४०.५३ ॥

द्रव्यकर्मगुणारम्भः कालपुष्पफलप्रदः।
आदिश्चान्तश्च मध्यश्च गायत्र्योंकार एव च॥ ४०.५४ ॥

हरितोलोहितः कृष्णोनीलः पीतस्तथा क्षणः।
कद्रुश्चकपिलो बभ्रुः कपोतो मच्छ (त्स्य) कस्तथा॥ ४०.५५ ॥

सुवर्मरेता विख्यातः सुवर्णश्चाप्यथो मतः।
सुवर्णनाम च तथा सुवर्णप्रिय एव च॥ ४०.५६ ॥

त्वममिन्द्रश्च यमश्चैव वरुणो धनदोऽनलः।
उत्फुल्लश्चिभानुस्च स्वर्भानुर्भानुरेव च॥ ४०.५७ ॥

होत्रं होता च होम्यं च हुतं चैव तथा प्रभुः।
त्रिसौपर्णस्तथा ब्रह्मन्यजुषां शतरुद्रियम्॥ ४०.५८ ॥

पवित्रं च पवित्राणां मङ्गलानां च मङ्गलम्।
प्राणश्च त्वं रजश्च त्वं तमः सत्त्वयुतस्तथा॥ ४०.५९ ॥

प्राणोऽपानः समानश्च उदानो व्यान एव च।
उन्मेषश्च निमेषश्च क्षुत्तृह्‌जृम्भा तथैव च॥ ४०.६० ॥

लोहताङ्गस्च दंष्टी च महावक्त्रो महोदरः।
शुचिरोमा हरिच्छ्‌मश्रुरूर्ध्वकेशश्चलाचलः॥ ४०.६१ ॥

गीतवादित्रनृत्याङ्गो गीतवादनकप्रियः।
मत्स्यो जालो जलोऽज्य्यो जलव्यालः कुटीचरः॥ ४०.६२ ॥

विकालश्च सुकालश्च दुष्कालः कालनाशनः।
मृत्युश्चैवाक्षयोऽन्तश्च क्षमामायाकरोत्करः॥ ४०.६३ ॥

संचर्तो वर्तकश्चैव संवर्तकबलाहकौ।
घण्टाकी घण्टाकी घण्टी चूडालो लवणोदधिः॥ ४०.६४ ॥

ब्रह्मा कालाग्निवक्त्रश्च दण्डी मुण्डस्त्रिदण्डधृक्।
चतुर्युगश्तुर्वेदश्चतुर्होत्रश्चतुष्पथः॥ ४०.६५ ॥

चातुराश्रम्यनेता च चातुवर्ण्यकरश्च ह।
क्षराक्षरः प्रियो धूर्तो गणैर्गण्यो गणादिपः॥ ४०.६६ ॥

रक्तमाल्याम्बराधरो गिरीशो गिरिजाप्रियः।
शिल्पीशः शिल्पिनः श्रेष्ठं सर्वशिल्प्रिप्रवर्तकः॥ ४०.६७ ॥

भगनेत्रान्तकश्चण्डः पूष्णो दन्तविनाशनः।
स्वाहा स्वधा वषट्कारो नमस्कार नमोऽस्तु ते॥ ४०.६८ ॥

गूढव्रतश्च गूढश्च गूढव्रतनिषेधितः।
तरमस्तारणश्चैव सर्वबूतेषु तारणः॥ ४०.६९ ॥

धाता विधाता संधाता निघाता धारणो धरः।
तपो ब्रह्म च सत्यं च ब्रह्मचर्यं तथाऽऽर्जवम्॥ ४०.७० ॥

भूतात्मा भूतकृद्‌भूतो भूतभव्यभवोद्भवः।
भूर्भूवः स्वरितश्चैव भूतो ह्यग्निर्महेश्वरः॥ ४०.७१ ॥

ब्रह्मावर्तः सुरावर्तः कामावर्त नमोऽस्तु ते।
कामबिम्बविनिर्हन्ता कर्णिकारस्रजप्रियः॥ ४०.७२ ॥

गोनेता गोप्रचारश्च गोवृषेश्वरवाहनः।
त्रैलोक्यगोप्ता गोविन्दोगच गोप्ता (?) एव च॥ ४०.७३ ॥

अखण्डचन्द्राभिमुखः सुमुखो दुर्मुखोऽडमुखः।
चतुर्मुखो बहुमुखो रणेष्वभिमुखः सदा॥ ४०.७४ ॥

हिरण्यगर्भः शकुनिर्धनदोऽर्थपतिर्विराट्।
अधर्महा महादक्षो दण्डधारो रमप्रियः॥ ४०.७५ ॥

तिष्ठन्स्थिरश्च स्थाणुश्च निष्कम्पश्च सुनिश्चलः।
दुर्वारणो दुर्विषहो दुःसहो दुरतिक्रमः॥ ४०.७६ ॥

दुर्धरो दुर्वशो नित्यो दुर्दर्पो विजयो जयः।
शशः शशाङ्कनयनशीतोष्णः श्रुत्तुषा जरा॥ ४०.७७ ॥

आधयो व्याधयश्चैव व्याधिहा व्याधिपश्च यः।
सह्यो यज्ञमृगव्याधो व्याधिनामाकरोऽकरः॥ ४०.७८ ॥

शिखण्डी पुण्डरीकश्च पुणडरीकावलोकनः।
दण्डधृक्‌चक्रदण्डस्च रौद्रभागविनाशनः॥ ४०.७९ ॥

विषपोऽमृतपश्चैव सुरापः भीरसोमपः।
मधुपस्चाऽऽपपश्चैव सर्वपस्च बलाबलः॥ ४०.८० ॥

वृषाङ्गराम्भो (?) वृषभस्तथा वृषभलोचनः।
वषभश्चैव विख्यातो लोकानां लोकसंस्कृतः॥ ४०.८१ ॥

चन्द्रादित्यौ चक्षुषी ते हृदयं च पितामहः।
अग्निष्टोमस्तता वेहो धर्मकर्मप्रसाधितः॥ ४०.८२ ॥

न ब्रह्मा न च गोविन्दः पुराणऋषयो न च।
माहात्म्यं वेवितुं शक्ता याथातथ्येन ते शिवः॥ ४०.८३ ॥

शिवा या मूर्तयः सूक्ष्मास्ते मह्यं यान्तु दर्शनम्।
ताभिर्मां सर्वतो रक्ष पिता पत्र मिवौरसम्॥ ४०.८४ ॥

रक्ष मां रक्षणीयोऽहं तवानघ नमोऽस्तु ते।
भक्तानु कम्पी भगवान्भक्तश्चाहं सदा त्वयि॥ ४०.८५ ॥

यः सहस्राण्यनेकानि पुंसामावृत्य दुर्दृशाम्।
तिष्ठत्येकः समुद्रान्ते स मे गोप्ताऽस्तु नित्यशः॥ ४०.८६ ॥

यं विनिद्रा जितश्वासाः सत्त्वस्थाः समादर्शिनः।
ज्योतिः पश्यन्ति युञ्जानास्तस्मै योगात्मने नमः॥ ४०.८७ ॥

संभक्ष्य सर्वभूतानि युगान्ते समुपस्थिते।
यः शेते जलमध्यस्थस्तं प्रपद्येऽम्बुशायिनम्॥ ४०.८८ ॥

प्रविश्य वदनं राहोर्यः सोमं पिबते निशि।
ग्रसत्यर्कं च स्वर्भानुर्भूत्वा सोमाग्निरे च॥ ४०.८९ ॥

अङ्गुष्ठमात्राः पुरुषा देहस्थाः सर्वदेहिनाम्।
रक्षन्तु ते च मां नित्यं नित्यं चाऽऽप्ययन्तु माम्॥ ४०.९० ॥

येनाप्युत्पादिता गर्भा अपो भागगताश्च ये।
तेषां स्वाहा स्वधा चैव आप्नुवन्ति स्वदन्ति च॥ ४०.९१ ॥

येन रोहन्ति देहस्थाः प्राणिनो रोदयन्ति च।
हर्षयन्ति न कृष्यन्ति नमस्तेब्यस्तु नित्यशः॥ ४०.९२ ॥

ये समुद्रे नदीदुर्गे पर्वतेषु गुहासु च।
वृक्षमूलेषु गोष्ठेषु कान्तारगहनेषु च॥ ४०.९३ ॥

चतुष्पथेषु रथ्यासु चत्वरेषु सभासु च।
हस्त्यश्वरथशालासु जीर्णोद्यानालयेषु च॥ ४०.९४ ॥

येषु पञ्चसु भूतेषु दिशासु विदिशासु च।
इन्द्रार्कयोर्मध्यगता ये च चन्द्रार्करश्मिषु॥ ४०.९५ ॥

रसातसगता ये च येच तस्मात्परं गताः।
नमस्तेभ्यो नमस्तेभ्यो नमस्तेभ्यस्तु सर्वशः॥ ४०.९६ ॥

सर्वसत्वं सर्वगो देवः सर्वभूतपतिर्भवः।
सर्वभूतान्तरात्मा च तेन त्वं न निमन्त्रितः॥ ४०.९७ ॥

स्वमेव चेज्यसे देव यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।
त्वमेव कर्ता सर्वस्य तेन त्वं न निमन्त्रितः॥ ४०.९८ ॥

अथवा माययादेव मोहितः सूक्ष्मया तव।
तस्मात्तु कारणाद्वाऽपि त्वं मया न निमन्त्रितः॥ ४०.९९
प्रसीद मम देवेश त्वमेव शरणं मम।
त्वं गतिस्त्वं प्रतिष्ठा च न चान्योऽस्तीति ने मतिः॥ ४०.१०० ॥

ब्रह्मोवाच
स्तुत्वैवं स महादेवं विरराम प्रजापितः।
भगवानपि सुप्रीतः सुनर्दक्षमभाषत॥ ४०.१०१ ॥

श्रीभगवानुवाच
परितुष्टोऽस्मि ते दक्ष स्तवेनानेन सुव्रत।
बहुना तु किमुक्तेन मत्समीपं यमिष्यसि ॥ ४०.१०२ ॥

ब्रह्मोवाच
तथैवमब्रवीद्वाक्यं त्रैलोक्याधिपतिर्भवः।
कृत्वाऽऽश्वासकरं वाक्यं सर्वज्ञो वाक्य संहितम्॥ ४०.१०३ ॥

श्रीशिव उवाच
दक्ष दुःखं न कर्तव्यं यज्ञविध्वंसनं प्रति।
अहं यज्ञहनस्तुभ्यं दृष्टमेतत्पुराऽनघ॥ ४०.१०४ ॥

भूयश्च त्वं वरमिमं मत्तो गृह्णीष्व सुव्रत।
प्रसन्नसुमुखो भूत्वा ममैकाग्रमनाः श्रुणु॥ ४०.१०५ ॥

अश्वमेधसहस्रस्य वाजपेयशतस्य वै।
प्रजापते मत्प्रसादात्फलभागो भविष्यसि॥ ४०.१०६ ॥

वेदान्षडङ्गन्बुध्यस्व सांख्ययोगांश्च कृत्स्नशः।
तपश्च विपुलं तप्त्वा दुश्वरं देवनानवैः॥ ४०.१०७ ॥

अब्दैर्द्वादशभिर्युक्तं गूढमप्रज्ञनिन्दितम्।
वर्णाश्रमकृतेर्धमेर्विनीतं न क्वचित्क्वचित्॥ ४०.१०८ ॥

समागतं व्यवसितं पशुपाशविमोक्षणम्।
सर्वेषाणाश्रमाणां च मया पाशुपतं व्रतम्॥ ४०.१०९ ॥

उत्पादितं दक्ष शुभं सर्वपापविमोचनम्।
अस्य चीर्णस्य यत्सम्यक्फलं भवति पुष्कलम्॥
तच्चास्तु सुमहाभाग मानसस्तयचज्यतां ज्वरः॥ ४०.११० ॥

ब्रह्मोवाच
एवमुक्त्वा तु देवेशः सपत्नीकः सहानुगः।
अदर्शनमनुप्राप्तो दक्षस्यामितेजसः॥ ४०.१११ ॥

अवाप्य च तथा भागं यथोक्तं चोमया भवः।
ज्वरं च सर्वधर्मज्ञो बहुधा व्यभजत्तदा॥ ४०.११२ ॥

शान्त्यर्थं सर्वभूतानां श्रृणुध्वमथ वै द्विजाः॥
शिखाभितापो नागानां पर्वतानां शिलाजतु॥ ४०.११३ ॥

अपां तु नीलिकां विद्यान्निर्मोको भुजगेषु च।
खोरकः सौरभेयाणामूखरः पृथिवीतले॥ ४०.११४ ॥

शुनुमपि च धर्मज्ञा दृष्टिप्रत्यवरोधनम्।
रन्ध्रागतमथाश्वानां शिखोद्‌भेदश्च बर्हिणाम्॥ ४०.११५ ॥

नेत्ररागः कोकिलानां द्वेषः प्रोक्तो महात्मनाम्।
जनानामपि भेदस्च सर्वेषामिति नः श्रुतम्॥ ४०.११६ ॥

शुकानामपि सर्वेषां हिक्किका प्रोच्यते ज्वरः।
शार्दूलेष्वथ वै विप्राः श्रमोज्वर इहोच्यते॥ ४०.११७ ॥

मानुषेषु च सर्वज्ञा ज्वरो नामैष कीर्तितः।
मरणे जन्मनि तथा मध्ये चापि निवेशितः॥ ४०.११८ ॥

एतन्माहेश्वरं तेजो ज्वरो नाम सुदारुणः।
नमस्यश्चैव मान्यश्च सर्वप्राणिभिरीश्वरः॥ ४०.११९ ॥

इमां ज्वरोत्पत्तिमदीनमानसः, पठेत्सदा यः सुसमाहितो नरः।
विमुक्तरोगः स नरो मुदायुतो, लभेत कामांश्च यथामनीषितान् ॥ ४०.१२० ॥

दक्षप्रोक्तं स्तवं चापि कीर्तयेद्यः शृणोति वा।
नाशुभं प्राप्नुयात्किंचिद्‌दीर्घमायुरवाप्नुयात्॥ ४०.१२१ ॥

यथा सर्वेषु देवेषु वरिष्ठो भगवान्भवः।
तथा स्तवो वरिष्ठोऽयं स्तवानां दक्षनिर्मितः॥ ४०.१२२ ॥

यशःस्वर्गसुरैश्वर्यवित्तादिजयकाङ्क्षिभिः।
स्तोतव्यो भक्तिमास्थाय विद्याकामैश्च यत्नतः॥ ४०.१२३ ॥

व्याधितो दुःखितो दीनो नरो ग्रस्तो भयादिभिः।
राजकार्यनियुक्तो वा मुच्यते महतो भयात्॥ ४०.१२४ ॥

अनेनैव च देहेन गणानां च महेश्वरात्।
इह लोके सुखं प्राप्य गणराडुपजायते॥ ४०.१२५ ॥

न यक्षा न पिशाचा वा न नागा न विनायकाः।
कुर्युर्विघ्नं गृहे तस्य यत्र संस्तूयते भवः॥ ४०.१२६ ॥

श्रृणुयाद्वा इदं नारी भक्त्याऽथ भवभाविता।
पितृपक्षे भर्तृपक्षे पूज्या भवति चैव ह॥ ४०.१२७ ॥

श्रृणुयाद्वा इदं सर्वं कीर्तयेद्वाऽप्यभीक्ष्णशः।
तस्य सर्वाणि कार्याणि सिद्धिं गच्छन्त्यविघ्नतः॥ ४०.१२८ ॥

मनसा विन्तितं यच्च यच्च वाचाऽप्युदाहृतम्।
सर्वं संपद्यते तस्य स्तवस्यास्यानुकोर्तनात्॥ ४०.१२९ ॥

देवस्य सगुहस्याथ देव्या नंदीश्वरस्य च।
बलिं विभज (भाग) तः कृत्वा दमेन नियमेन च॥ ४०.१३० ॥

ततः प्रयुक्तो गृह्णीयान्नामान्यासु यथाक्रमम्।
इप्सिताल्लँभतेऽप्यर्थान्कामान्भोगांश्च मानवः॥ ४०.१३१ ॥

मतश्च स्वर्गमाप्नोति स्त्रीसहस्रसमावृतः।
सर्वकामसुयुक्तो वा युक्तो वा सर्वपातकैः॥ ४०.१३२ ॥

पठन्दक्षकृतं स्तोत्रं सर्वपापैः प्रमुच्यते।
मृतश्च गणसायुज्यं पूज्यमानः सुरासुरैः॥ ४०.१३३ ॥

वृषेण विनियुक्तेन विमानेन विराजते।
आभूतसंप्लवस्थायी रुद्रस्यानुचरो भवेत्॥ ४०.१३४ ॥

इत्याह भगवान्व्यासः पराशरसुतः प्रभुः।
नैतद्वेदयते कश्चिन्नैतच्छ्राव्यं च कस्यचित्॥ ४०.१३५ ॥

श्रुत्वेमं परमं गुह्यं येऽपि स्युः पापयोनयः।
वैश्याः स्त्रियश्च शूद्राश्च रुद्रलोकमवाप्नुयुः॥ ४०.१३६ ॥

श्रवयेद्यश्च विप्रेभ्यः सदा पर्वसु पर्वसु।
रुद्रलोकमवाप्नोति द्विजो वै नात्र संशयः॥ ४०.१३७ ॥

इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे स्वयंभ्ववृषिसंवादे दक्षस्तवन्रूपणं नाम चत्वारिंशोऽध्यायः॥ ४० ॥