ब्रह्मपुराणम्/अध्यायः ८८

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अथाष्टाशीतितमोऽध्यायः
जनस्थानतीर्थवर्णनम्
ब्रह्मोवाच
तस्मादप्यपरं तीर्थं जनस्थानमिति श्रुतम्।
चतुर्योजनविस्तीर्णं स्मरणान्मुक्तिदं नृणाम्।। ८८.१ ।।

वैवस्वतान्वये जातो राजाऽभूज्जनकः पुराः।
सोऽपांपतेस्तु तनुजामुपयेमे गुणार्णवाम्।। ८८.२ ।।

धर्मार्थकाममोक्षाणां जनकां जनको नृपः।
अनुरूपगुणत्वाच्च तस्य भार्या गुणार्णवा।। ८८.३ ।।

याज्ञवल्क्यश्च विप्रेन्द्रस्तस्य राज्ञः पुरोहितः।
तमपृच्छन्नृपश्रेष्ठो याज्ञवल्क्यं पुरोहितम्।। ८८.४ ।।

जनक उवाच
भुक्तिमुक्ती उभे श्रेष्ठे निर्णीते मुनिसत्तमैः।
दासीदासेभतुरागरथाद्यैर्भुक्तिरुत्तमा।। ८८.५ ।।

किंत्वन्तविरसा भुक्तिर्मुक्तिरेका निरत्यया।
भुक्तेर्मुक्तिः श्रेष्ठतमा भुक्त्या मुक्तिं कथं व्रजेत्।। ८८.६ ।।

सर्वसङ्गपरित्यागान्मुक्तिप्राप्तिः सुदुःखतः।
तद्ब्रूहि द्विजशार्दूल सुखान्मुक्तिः कथं भवेत्।। ८८.७ ।।

अपांपतिस्तव गुरुः श्वशुरः प्रियकृत्तथा।
तं गत्वा पृच्छ नृपते उपदेक्ष्यति ते हितम्।। ८८.८ ।।

याज्ञवल्क्यश्च जनको राजानं वरुणं तदा।
गत्वा चोचतुरव्यग्रौ मुक्तिमार्गं यथाक्रमम्।। ८८.९ ।।

वरुण उवाच
द्विधा तु संस्थिता मुक्तिः कर्मद्वारेऽप्यकर्मणि।
वेदे च निश्चितो मार्गः कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।। ८८.१० ।।

सर्वं च कर्मणा बद्धं पुरुषार्थचतुष्टयम्।
अकर्मणैवाऽऽप्ययते मुक्तिमार्गो मृषोच्यते।। ८८.११ ।।

कर्मणा सर्वदान्यानि सेत्स्यन्ति नृपसत्तम।
तस्मात्सर्वात्मना कर्म कर्तव्यं वैदिकं नृभिः।। ८८.१२ ।।

तेन भुक्तिं च मुक्तिं च प्राप्नुवन्तीह मानवाः।
अकर्णः कर्म पुण्यं कर्म चाप्याश्रमेषु च।। ८८.१३ ।।

जात्याश्रितं च राजेन्द्र तत्रापि श्रृणु धर्मवित्।
आश्रमाणि च चत्वारि कर्मद्वाराणि मानद।। ८८.१४ ।।

चतुर्णाणाश्रमाणां च गार्हस्थ्यं पुण्यदं स्मृतम्।
तस्माद्भुक्तिश्च मुक्तिश्च भवतीति मतिर्मम।। ८८.१५ ।।

ब्रह्मोवाच
एतच्छ्रुत्वा तु जनको याज्ञवल्क्यश्च बुद्धिमान्।
वरुणं पूजयित्वा तु पुनर्वचनमुचतुः।। ८८.१६ ।।

को देशः किं च तीर्थं स्याद्भुक्तिमुक्तिप्रदायकम्।
तद्वदस्व सुरश्रेष्ठ सर्वज्ञोऽसि नमोऽस्तु ते।। ८८.१७ ।।

वरुण उवाच
पृथिव्यां भारतं वर्षं दण्डकं तत्र पुण्यदम्।
तस्मिन्क्षेत्रे कृतं कर्म भुक्तिमुक्तिप्रदं नृणाम्।। ८८.१८ ।।

तीर्थानां गौतमी गङ्गां श्रेष्ठा मुक्तिप्रदा नृणाम्।
तत्र यज्ञेन दानेन भोगान्मुक्तिमवाप्स्यति।। ८८.१९ ।।

ब्रह्मोवाच
याज्ञवल्क्यश्च जनको वाचं श्रुत्वा ह्यपांपतेः।
वरुणेन ह्यनुज्ञातौ स्वपुरीं जग्मतुस्तदा।। ८८.२० ।।

अश्वमेधादिकं कर्म चकार जनको नृपः।
याजयामास विप्रेन्द्रो याज्ञवल्क्यश्च तं नृपम्।। ८८.२१ ।।

गङ्गातीरं समाश्रित्य यज्ञान्मुक्तिमवाप राट्।
तथा जनकराजानो बहवस्तत्र कर्मणा।। ८८.२२ ।।

मुक्तिं प्रापुर्महाभागा गौतम्याश्च प्रसादतः।
ततः प्रभृति तत्तीर्थं जनस्थानेति विश्रुतम्।। ८८.२३ ।।

जनकानां यज्ञसदो जनस्थानं प्रकीर्तितम्।
चतुर्योजनविस्तीर्णं स्मरणात्सर्वपापनुत्।। ८८.२४ ।।

तत्र स्नानेन दानेन पितॄणां तर्पणेन तु।
तीर्थस्य स्मरणाद्वाऽपि गमनाद्भक्तिसेवनात्।। ८८.२५ ।।

सर्वान्कामानवाप्नोति मुक्तिं च समवाप्नुयात्।। ८८.२६ ।।

इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे तीर्थमाहात्म्ये जनस्थानतीर्थवर्णनं नामाष्टाशीतिमोऽध्यायः।। ८८ ।।

गौतमीमाहात्म्ये एकोनविंशोऽध्यायः।। १९ ।।