ब्रह्मपुराणम्/अध्यायः १३०

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अध्यायः १३०
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आपस्तम्बतीर्थवर्णनम्
ब्रह्मोवाच
आपस्तम्बमिति ख्यातं तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्।
स्मारणादप्यशेषाघसंघविध्वंसनक्षमम्।। १३०.१ ।।

आपस्तम्बो महाप्राज्ञो मुनिरासीन्महायशाः।
तस्य भार्याऽक्षसूत्रेति पतिधर्मपरायणा।। १३०.२ ।।

तस्य पुत्रो महाप्राज्ञः कर्किनामाऽथ तत्त्ववित्।
तस्याऽऽश्रममनुप्राप्तो ह्यगस्त्यो मुनिसत्तमः।। १३०.३ ।।

तमगस्त्यं पूजयित्वा आपस्तम्बो मुनीश्वरः।
शिष्यैरनुगतो धीमांस्तं प्रष्टुमुपचक्रमे।। १३०.४ ।।

आपस्तम्ब उवाच
त्रयाणां को नु पूज्यः स्याद्‌देवानां मुनिसत्तम।
भुक्तिर्मुक्तिश्च कस्माद्वा स्यादनादिश्च को भवेत्।। १३०.५ ।।

अनन्तश्चापि को विप्र देवानामपि दैवतम्।
यज्ञैः क इज्यते देवः को वदेष्वनुगीयते।।
एवं मे संशंयं छेत्तुं वदागस्त्य महामुने।। १३०.६ ।।

अगस्त्य उवाच
धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रमाणं शब्द उच्यते।
तत्रापि वैदिकः शब्दः प्रमाणं परमं मतः।। १३०.७ ।।

वेदेन गीयते यस्तु पुरुषः स परात्परः।
मृतोऽपरः स विज्ञेयो ह्यमृतः पर उच्यते।। १३०.८ ।।

योऽमूर्तः स परो ज्ञेयो ह्यपरो मूर्त उच्यते।
गुणाभिव्याप्तिभेदेन मूर्तोऽसौ त्रिविधो भवेत्।। १३०.९ ।।

ब्रह्मा विष्णुः शिवश्चेति एक एव त्रिधोच्यते।
त्रयाणामपि देवनां वेद्यमेकं परं हि तत्।। १३०.१० ।।

एकस्य बहुधा व्याप्तिर्गुणकर्मविभेदतः।
लोकानामुपकारार्थमाकृतित्रितयं भवेत्।। १३०.११ ।।

यस्तत्त्वं वेत्ति परमं स च विद्वान्न चेतरः।
तत्र यो भेदमाचष्टे लिङ्गभेदी स उच्यते।। १३०.१२ ।।

प्रायश्चित्तं न तस्यास्ति यश्चैषां व्याहरेद्भिदम्।
त्रयाणामपि देवानां मूर्तिभेदः पृथक्पृथक्।। १३०.१३ ।।

वेदाः प्रमाणं सर्वत्र साकारेषु पृथक्पृथक्।
निराकारं च यत्त्वेकं तत्तेभ्यः परमं मतम्।। १३०.१४ ।।

आपस्तम्ब उवाच
नानेन निर्णयः कश्चिन्मयाऽत्र विदितो भवते।
तत्राप्यत्र रहस्यं यत्तद्विमृश्याऽऽशु कीर्त्यताम्।।
निःसंशयं निर्विकल्पं भाजनं सर्वसंपदाम्।। १३०.१५ ।।

ब्रह्मोवाच
एतदाकर्ण्य भगवानगस्त्यो वाक्यमब्रवीत्।। १३०.१६ ।।

अगस्त्य उवाच
यद्यप्येषां न भेदोऽस्ति देवानां तु परस्परम्।
तथाऽपि सर्वसिद्धिः स्याच्छिवादेव सुखात्मनः।। १३०.१७ ।।

प्रपञ्चस्य निमित्तं यत्तज्ज्योतिश्च परं शिवः।
तमेव साधय हरं भक्त्या परमया मुने।।
गौतम्यां सकलाघौघसंहर्ता दण्डके वने।। १३०.१८ ।।

ब्रह्मोवाच
एतच्छ्रुत्वा मुनेर्वाक्यं परां प्रीतिमुपागतः।
भुक्तिदो मुक्तिदः पुंसां साकारोऽथ निराकृतिः।। १३०.१९ ।।

सृष्ट्याकारस्ततः शक्तः पालनाकार एव च।
दाता च हन्ति सर्वं यो यस्मादेतत्समाप्यते।। १३०.२० ।।

अगस्त्य उवाच
ब्रह्माकृतिः कर्तृरूपा वैष्णवी पालनी तथा।
रुद्राकृतिर्निहन्त्री सा सर्ववेदेषु पठ्यते।। १३०.२१ ।।

ब्रह्मोवाच
आपतम्बस्तदा गङ्गं गत्वा स्नात्वा यतव्रतः।
तुष्टाव शंकरं देवं स्तोत्रेणानेन नारद।। १३०.२२ ।।

आपस्तम्ब उवाच
काष्ठेषु वह्निः कुसुमेषु गन्धो, वीजेषु वृक्षादि दृषत्सु हेम।
भूतेषु सर्वेषु तथाऽस्ति यो वै, तं सोमनाथं शरणं व्रजामि।। १३०.२३ ।।

यो लीलया विश्वमिदं चकार, धाता विधाता भुवनत्रयस्य।
यो विश्वरूपः सदसत्परो यः, सोमेश्वरं तं शरणं व्रजामि।। १३०.२४ ।।

यं स्मृत्य दारिद्‌य्रमहाभिशापरोगादिभिर्न स्पृश्यते शरीरी।
यमाश्रिताश्चेप्सितमाप्नुवन्ति, सोमेश्वरं तं शरणं व्रजामि।। १३०.२५ ।।

येन त्रयीधर्ममवेक्ष्य पूर्वं, ब्रह्मादयस्तत्र समीहिताश्च।
एवं द्विधा येन कृतं शरीरं, सोमेश्वरं तं शरणं व्रजामि।। १३०.२६ ।।

यस्मै नमो गच्छति मन्त्रपूतं, हुतं हविर्या च कृता च पूजा।
दत्तं हविर्येन सूरा भजन्ते, सोमेश्वरं तं शरणं व्रजामि।। १३०.२७ ।।

यस्मात्परं नान्यदस्ति प्रशस्तं यस्मात्परं नैव सुसूक्ष्ममन्यत्।
यस्मात्परं नो महतां महच्च, सोमेश्वरं तं शरणं व्रजामि।। १३०.२८ ।।

यस्याऽऽज्ञया विश्वमीदं विचित्रमचिन्त्यरूपं विविधं महच्च।
एकक्रियं यद्वदनुप्रयाति सोमेश्वरं तं शरणं व्रजामि।। १३०.२९ ।।

यस्मिन्विभूतिः सकलाधिपत्यं, कर्तृत्वदातृत्वमहात्त्वमेव।
प्रीतिर्यशः सौख्यमनादिधर्मः, सोमेश्वरं तं शरणं व्रजामि।। १३०.३० ।।

नित्यं शरण्यः सकलस्य पूज्यो, नित्यं प्रियो यः शरणागतस्य।
नित्यं शिवो यः सकलस्य रूपं, सोमेश्वरं तं शरणं व्रजामि।। १३०.३१ ।।

ब्रह्मोवाच
ततः प्रसन्नो भगवानाह नारद तं मुनि(न्वरं वृण्विति चाऽऽह त)म्।
आत्मार्थ च परार्थं च आपस्तम्बोऽब्रवीच्छिवम्।। १३०.३२ ।।

सर्वान्कामानाप्नुयुस्ते ये स्नात्वा देवमीश्वरम्।
पश्येयुर्जगतामीशमस्त्वित्याह शिवो मुनिम्।। १३०.३३ ।।

ततः प्रभृति तत्तीर्थमापस्तम्बमुदाहृतम्।
अनाद्यविद्यातिमिरव्रातमिर्मूलनक्षमम्।। १३०.३४ ।।

इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मे तीर्थमाहात्म्ये दक्षिणकूलस्थापस्तम्बसोमेश्वरतीर्थवर्णनं नाम त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। १३० ।।

गौतमीमाहात्म्ये एकषष्टितमोऽध्यायः।। ६१ ।।