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ब्रह्मपुराणम्/अध्यायः ११६

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अध्यायः ११६
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अथ षोडशाधिकशततमोऽध्यायः
वडवादिसहस्रतीर्थवर्णनम्
ब्रह्मोवाच
महानलमिति ख्यातं वडवानलमुच्यते।
महानलो यत्र देवो वडवा यत्र सा नदी।। ११६.१ ।।

तत्तीर्थं यत्र वक्ष्यामि मृत्युदोषजरापहम्।
पुराऽऽसन्नैमिषारण्ये ऋषयः सत्रकारिणः।। ११६.२ ।।

शमितारं च ऋषयो मृत्युं चक्रुस्तपस्विनः।
वर्तमाने सत्रयागे मृत्यौ शमितरि स्थिते।। ११६.३ ।।

न ममार तदा कश्चिदुभयं स्थास्तु जङगमम्।
विना पशून्मुनिश्रेष्ठ मर्त्यं चामर्त्यतां गतम्।। ११६.४ ।।

ततस्त्रिविष्टपे शून्ये मर्त्ये चैवातिसंभृते।
मृत्युनोपेक्षिते देवा राक्षसानूचिरे तदा।। ११६.५ ।।

देवा ऊचुः
गच्छध्वमृषिसत्रं तन्नाशयध्वं महाध्वरम्।

ब्रह्मोवाच
इति देववचः श्रुत्वा प्रोचुस्ते राक्षसाः सुरान्।। ११६.६ ।।

असुरा ऊचुः
विध्वंसयामस्तं यज्ञमस्माकं किं फलं ततः।
प्रवर्तते विना हेतुं न कोऽपि क्वापि जातुचित्।। ११६.७ ।।

ब्रह्मोवाच
देवा अप्यसुरानूचुर्यज्ञार्धं भवतामपि।
भवेदेव ततो यान्तु ऋषीणां सत्रमुत्तमम्।। ११६.८ ।।

ते श्रुत्वा त्वरिताः सर्वे यत्र यज्ञः प्रवर्तते।
जग्मुस्तत्र विनाशाय देववाक्याद्विशेषतः।। ११६.९ ।।

तज्ज्ञात्वा ऋषयो मृत्युमाहुः किं कुर्महे वयम्।
आगता देववचनाद्राक्षसा यज्ञनाशिनः।। ११६.१० ।।

मृत्युना सह संमन्त्र्य नैमिषारण्यवासिनः।
सर्वे त्यक्त्वा स्वाश्रमं तं शमित्रा सह नारद।। ११६.११ ।।

अग्निमात्रमुपादाय त्यक्त्वा पात्रादिकं तु यत्।
क्रतुनिष्पत्तये जग्मुगौर्तमीं प्रति सत्वराः।। ११६.१२ ।।

तत्र स्नात्वा महेशानं रक्षणायोपतस्थिरे।
कृताञ्जलिपुटास्ते तु तुष्टुवुस्त्रिदशेश्वरम्।। ११६.१३ ।।

ऋषय ऊचुः
यो लीलया विश्वमिदं चकार, धाता विधाता भुवनत्रयस्य।
यो विश्वरूपः सदसत्परो यः, सोमेश्वरं तं शरणं व्रजाम्।। ११६.१४ ।।

मृत्युरुवाच
इच्छामात्रेण यः सर्वं हन्ति पाति करोति च।
तमहं त्रिदशेशानं शरणं यामि शंकरम्।। ११६.१५ ।।

महानलं महाकायं महानागविभूषणम्।
महामूर्तिधरं देवं शरणं यामि शंकरम्।। ११६.१६ ।।

ब्रह्मोवाच
ततः प्रोवाच भगवान्मृत्यो का प्रीतिरस्तु ते।। ११६.१७ ।।

मृत्युरुवाच
राक्षसेभ्यो भयं घोरमापन्नं त्रिदशेश्वर।
यज्ञमस्मांश्च रक्षस्व यावत्सत्रं समाप्यते।। ११६.१८ ।।

ब्रह्मोवाच
तथा चकार भगवांस्त्रिनेत्रो वृषभध्वजः।
शमित्राः मृत्युना सत्रमृषीणां पूर्णतां ययौ।। ११६.१९ ।।

हविषां भागधेयाय आजग्मुरमराः क्रमात्।
तानवोचन्मुनिगणाः संक्षुब्धा मृत्युना सह।। ११६.२० ।।

ऋषय ऊचुः
अस्मन्मखविनाशाय राक्षसाः प्रेषिता यतः।
तस्माद्भवद्भ्यः पापिष्ठा राक्षसाः सन्तु शत्रवः।। ११६.२१ ।।

ततः प्रभृति देवानां राक्षसा वैरिणोऽभवन्।
कृत्यां च व़डवां तत्र देवाश्च ऋषयोऽमलाः।। ११६.२२ ।।

मृत्योर्भार्या भव त्वं तामित्युक्त्वा तेऽभ्यषेचयत्।
अभिषेकोदकं यत्तु सा नदी वडवाऽभवत्।। ११६.२३ ।।

मृत्युना स्थापितं लिङ्गं महानलमिति श्रुतम्।
ततः प्रभृति तत्तीर्थं वडवासंगमं विदुः।। ११६.२४ ।।

महानलो यत्र देवस्तत्तीर्थं भुक्तिमुक्तिदम्।
सहस्रं तत्र तीर्थानां सर्वाभीष्टप्रदायिनाम्।।
उभयोस्तीरयोस्तत्र स्मरणादघघातिनाम्।। ११६.२५ ।।

इति श्रीमहापुराणे आदिब्राह्मो तीर्थमाहात्म्ये व़डवादिसहस्रतीर्थवर्णनं नाम षोडशाधिकशततमोऽध्यायः।। ११६ ।।

गौतमिमाहात्म्ये सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः।। ४७ ।।