महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-114

विकिस्रोतः तः
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
← आश्वमेधिकपर्व-113 महाभारतम्
चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-114
वेदव्यासः
आश्वमेधिकपर्व-115 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118

कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति केशवादिभगवन्मूर्त्युपास्तिपूर्वकं मार्गशीर्षादिद्वादशद्वादशीव्रताचरणफलकथनम्।। 1 ।। युधिष्ठिरेण विस्तरेण कृष्णस्तवनम्।। 2 ।। पुनः कृष्णेन युधिष्ठिराय एकादश्युपवासपूर्वकं द्वादश्यां भगवत्पूजायाः फलकथनम्।। 3 ।।

युधिष्ठिर उवाच। 14-114-1x
एवं संवत्सरं पूर्णमेकभुक्तेन यः क्षिपेत्।
तस्य पुण्यफलं यद्वै तन्ममाचक्ष्व केशव।।
14-114-1a
14-114-1b
भगवानुवाच। 14-114-2x
शृणु पाण्डव तत्त्वं मे वचनं पुण्यमुत्तमम्।
यदकृत्वाऽथवा कृत्वा नरः पापैः प्रमुच्यते।।
14-114-2a
14-114-2b
एकभुक्तेन वर्तेत नरः संवत्सरं तु यः।
ब्रह्मचारी जितक्रोधो ह्यधश्शायी जितेन्द्रियः।।
14-114-3a
14-114-3b
शुचिश्चि स्नानतो व्यग्रः सत्यवागनसूयकः।
अर्चन्नेव तु मां नित्यं मद्गतेनान्तरात्मना।
सन्ध्ययोस्तु जपेन्नित्यं मद्गायत्रीं समाहितः।।
14-114-4a
14-114-4b
14-114-4c
नमो ब्रह्मण्यदेवायेत्यसकृन्मां प्रणम्य च।
विप्रमग्रासने कृत्वा यावकं भैत्रमेव वा।।
14-114-5a
14-114-5b
भुक्त्वा तु वाग्यतो भूमावाचान्तस्य द्विजन्मनः।
नमोऽस्तु वासुदेवायेत्युक्त्वा तु चरणौ स्पृशेत्।।
14-114-6a
14-114-6b
मासेमासे समाप्ते तु भोजयित्वा द्विजाञ्शुचीन्।
संवत्सरे ततः पूर्णे दद्यात्तु व्रतदक्षिणाम्।।
14-114-7a
14-114-7b
नवनीतमयीं गां वा तिलधेनुमथापि वा।
विप्रहस्तच्युतैस्तोयैः सहिरण्यैः समुक्षितः।
तस्य पुण्यफलं राजन्कथ्यमानं मया शृणु।।
14-114-8a
14-114-8b
14-114-8c
दशजन्मकृतं पापं ज्ञानतोऽज्ञानतोपि वा।
तद्विनश्यति तस्याशु नात्र कार्या विचारणा।।
14-114-9a
14-114-9b
युधिष्ठिर उवाच। 14-114-10x
सर्वेषामुपवासानां यच्छ्रेयः सुमहत्फलम्।
यच्च निःश्रेयसं लोके तद्भवान्वक्तुमर्हति।।
14-114-10a
14-114-10b
भगवानुवाच। 14-114-11x
शृणु राजन्यथापूर्वं मयाऽभीष्टं तु मोदते।
तथा ते कथयिष्यामि मद्भक्ताय युधिषठिर।।
14-114-11a
14-114-11b
यस्तु भक्त्या शुचिर्भूत्वा पञ्चम्यां मे नराधिप।
उपवासव्रतं कुर्यात्त्रिकालं चार्चयंस्तु माम्।
सर्वक्रतुफलं लब्ध्वा मम लोके महीयते।।
14-114-12a
14-114-12b
14-114-11c
युधिष्ठिर उवाच। 14-114-13x
भगवन्देवदेवेश पञ्चमी नाम का तव।
तामहं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व ममानघ।।
14-114-13a
14-114-13b
भगवानुवाच। 14-114-14x
पर्वद्वयं च द्वादश्यां श्रवणं च नराधिप।
मत्पञ्चमीति विख्यातां मत्प्रिया च विशेषतः।।
14-114-14a
14-114-14b
तस्मात्तु ब्राह्मणश्रेष्ठैर्मन्निवेशितबुद्धिभिः।
उपवासस्तु कर्तव्यो मत्प्रियार्तं विशेषतः।।
14-114-15a
14-114-15b
द्वादश्यामेव वा कुर्यादुपवासमशक्नुवन्।
तेनाहं परमां प्रीति यास्यामि नरपुङ्गव।।
14-114-16a
14-114-16b
अहोरात्रेण द्वादश्यां मार्गशीर्षेण केशवम्।
उपोष्य पूजयेद्यो मां सोऽस्वमेधफलं लभेत्।।
14-114-17a
14-114-17b
द्वादश्यां पुष्यमासे तु नाम्ना नारायणं तु माम्।
उपोष्य पूजयेद्यो मां वाजिमेधफलं लभेत्।।
14-114-18a
14-114-18b
द्वादश्यां माघमासे तु मामुपोष्य तु माधवम्।
पूजयेद्यः समाप्नोति राजसूयफलं नृप।।
14-114-19a
14-114-19b
द्वादश्यां फाल्गुने मासि गोविन्दाख्यमुपोष्य माम्।।
पूजयेद्यः समाप्नोति ह्यतिरात्रफलं नृप।।
14-114-20a
14-114-20c
द्वादश्यां मासि चैत्रे तु मां विष्णुं समुपोष्य यः।
पूजयंस्तदवाप्नोति पौण्डरीकस्य यत्फलम्।।
14-114-21a
14-114-21b
द्वादश्यां मासि वैशाखे मधुसूदनसंज्ञितम्।
उपोष्य पूजयेद्यो मां सोग्निष्टोमस्य पाण्डव।।
14-114-22a
14-114-22b
द्वादश्यां ज्येष्ठमासे तु मामुपोष्य त्रिविक्रमम्।
अर्ययेद्यः समाप्नोति गवां मेधफलं नृप।।
14-114-23a
14-114-23b
आषाढे वामनाख्यं मां द्वादश्यां समुपोष्य यः।
नरमेधस्य स फलं प्राप्नोति भरतर्षभ।।
14-114-24a
14-114-24b
द्वादश्यां श्रावणे मासि श्रीधराख्यमुपोष्य माम्।
पूजयेद्य समाप्नोति पञ्चयज्ञफलं नृप।।
14-114-25a
14-114-25b
मासे भाद्रपदे यो मां हृषीकेशाख्यमर्चयेत्।
उपोष्य स समाप्नोति सौत्रामणिफलं नृप।।
14-114-26a
14-114-26b
द्वादश्यामाश्वयुङ्मासे पद्मनाभमुपोष्य माम्।
अर्चयेद्यः समाप्नोति गोसहस्रफलं नृप।।
14-114-27a
14-114-27b
द्वादश्यां कार्तिके मासि मां दामोदरसंज्ञितम्।
उपोष्य पूजयेद्यस्तु सर्वक्रतुफलं नृप।।
14-114-28a
14-114-28b
केवलेनोपवासेन द्वादश्यां पाण्डुनन्दन।
यत्फलं पूर्वमुद्दिष्टं तस्यार्धं लभते नृप।।
14-114-29a
14-114-29b
श्रावणेऽप्येवमेवं मामर्चयेद्भक्तिमान्नरः।
मम सालोक्यमाप्नोति नात्र कार्या विचारणा।।
14-114-30a
14-114-30b
मासेमासे समभ्यर्च्य क्रमशो मामतन्द्रितः।
पूर्मे संवत्सरे कुर्यात्पुनः संवत्सरं तु माम्।।
14-114-31a
14-114-31b
अविघ्नमर्चयानस्तु यो मद्भक्तो मत्परायणः।
अविघ्नमर्चयानस्तु मम सायुज्यमाप्नुयात्।।
14-114-32a
14-114-32b
अर्चयेत्प्रीतिमान्यो मां द्वादस्यां वेदसंहिताम्।
स पूर्वोक्तफलं राजँल्लभते नात्र संशयः।।
14-114-33a
14-114-33b
गन्धं पुष्पं फलं तोयं पत्रं वा मूलमेव वा।
द्वादश्यां मम यो दद्यात्तत्समो नास्ति मत्प्रियः।।
14-114-34a
14-114-34b
एतेन विधिना सर्वे देवाः शक्रपुरोगमाः।
मद्भक्ता नरशार्दूल स्वर्गलोकं तु भुञ्जते।।
14-114-35a
14-114-35b
वैशम्पायन उवाच। 14-114-36x
एवं वदति देवेशे केशवे पाडुनन्दनः।
कृताञ्जलिः स्तोत्रमिदं भक्त्तया धर्मात्मजोऽब्रवीत्।।
14-114-36a
14-114-36b
सर्वलोकेश देवेश हृषीकेशक नमोस्तु ते।
सहस्रशिरसे नित्यं सहस्राक्ष नमोस्तु ते।।
14-114-37a
14-114-37b
त्रयीमय त्रयीनाथ त्रयीस्तुत नमोनमः।
यज्ञात्मन्यज्ञसंभूत यज्ञनाथ नमोनमः।।
14-114-38a
14-114-38b
चतुर्मूर्ते चतुर्बाहो चतुर्व्यूह नमोनमः।
लोकात्मँल्लोककृन्नाथ लोकावास नमोनमः।।
14-114-39a
14-114-39b
सृष्टिसंहारकर्त्रे तु नरसिंह नमोनमः।
भक्तप्रिय नमस्तेऽस्तु कृष्ण नाथ नमोनमः।।
14-114-40a
14-114-40b
लोकप्रिय नमस्तेऽस्तु भक्तवत्सल ते नमः।
ब्रह्मवास नमस्तेऽस्तु ब्रह्मनाथ नमोनमः।।
14-114-41a
14-114-41b
रुद्ररूप नमस्तेऽस्तु रुद्रकर्मिरताय ते।
पञ्चयज्ञ नमस्तेऽस्तु सर्वयज्ञ नमोनमः।।
14-114-42a
14-114-42b
कृष्णप्रिय नमस्तेऽस्तु कृष्णनाथ नमोनमः।
योगिप्रिय नमस्तेऽस्तु योगिनाथ नमोनमः।।
14-114-43a
14-114-43b
हयवक्त्र नमस्तेऽस्तु चक्रपाणे नमोनमः।
पञ्चभूत नमस्तेऽस्तु पञ्चायुध नमोनमः।।
14-114-44a
14-114-44b
वैशम्पायन उवाच। 14-114-45x
भक्तिगद्गदया वाचा स्तुवत्येवं युधिष्ठिरे।
गृहीत्वा केशवो हस्ते प्रीतात्मा तं न्यवारयत्।।
14-114-45a
14-114-45b
निवार्य च पुनर्वाचा भक्तिनम्रं युधिष्ठिरम्।
वक्तुमेव नरश्रेषठ धर्मपूत्रं प्रचक्रमे।।
14-114-46a
14-114-46b
भगवानुवाच। 14-114-47x
अन्यवत्किमिदं राजन्मां स्तौषि नरपुङ्गव।
तिष्ठ पृच्छ यथापूर्वं धर्मपूत्र युधिष्ठिर।।
14-114-47a
14-114-47b
युधिष्ठिर उवाच। 14-114-48x
भगवंस्त्वत्प्रसादात्तु धर्मं स्मृत्वा पुनःपुनः।
न शान्तिरस्ति मे देव नृत्यतीव च मे मनः।।
14-114-48a
14-114-48b
इदं च धर्मसंपन्नं वक्तुमर्हसि माधव।
कृष्णपक्षेषु द्वादश्यामर्चनीयः कथं भवेत्।।
14-114-49a
14-114-49b
भगवानुवाच। 14-114-50x
शृणु राजन्यथापूर्वं तत्सर्वं कथयामि ते।
परमं कृष्णद्वादश्यामर्चनायां फलं मम।।
14-114-50a
14-114-50b
एकादश्यामुपोष्याथ द्वादश्यामर्चयेत्तु माम्।
विप्रानपि यथालाभं पूजयेद्भक्तिमान्नरः।।
14-114-51a
14-114-51b
स गच्छेद्दक्षिणामूर्तिं मां वा नात्र विचारणा।
चन्द्रसालोक्यमथवा ग्रहनक्षत्रपूजितः।।
14-114-52a
14-114-52b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
वैष्णवधर्मपर्वणि चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः।।
आश्वमेधिकपर्व-113 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-115