महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-097

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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति चातुर्वर्ण्यधर्मनिरूपणम्।। 1 ।।

वैशंपायन उवाच। 14-97-1x
एवमात्मोद्भवं सर्वं यगदुद्दिश्य केशवः।
धर्मान्धर्मात्मजस्याथ पुण्यानकथयत्प्रभुः।।
14-97-1a
14-97-1b
शृणु पाण्डव तत्वेन पवित्रं पापनाशनम्।
कथ्यमानं मया पुण्यं धर्मशास्त्रफलं महत्।।
14-97-2a
14-97-2b
यः शृणोति शुचिर्भूत्वा एकचित्तस्तपोयुतः।
स्वर्ग्यं यशस्यामायुष्यं धर्मं ज्ञेयं युधिष्ठिर।।
14-97-3a
14-97-3b
श्रद्दधानस्य तस्येह यत्पापं पूर्वसंचितम्।
विनश्यत्याशु तत्सर्वं मद्भक्तस्य विशेषतः।।
14-97-4a
14-97-4b
वैशंपायन उवाच। 14-97-5x
एवं श्रुत्वा वचः पुण्यं सत्यं केशवभाषितम्।
प्रहृष्टमनसो भूत्वा चिन्तयन्तोऽद्भुतं परम्।।
14-97-5a
14-97-5b
देवब्रह्मर्षयः सर्वे गन्धर्वाप्सरसस्तथा।
भूता यक्षग्रहाश्चैव गुह्यका भुजगास्तथा।।
14-97-6a
14-97-6b
वालखिल्या महात्मानो योगिनस्तत्वदर्शिनः।
तथा भागवताश्चापि पञ्चकालमुपासकाः।।
14-97-7a
14-97-7b
कौतूहलसमाविष्टाः प्रहृष्टैन्द्रियमानसाः।
श्रोतुकामाः परं धर्मं वैष्णवं धर्मशासनम्।
हृदि कर्तुं च तद्वाक्यं प्रणेमुः शिरसा नताः।।
14-97-8a
14-97-8b
14-97-8c
ततस्तान्वासुदेवेन दृष्टान्दिव्येन चक्षुषा।
विमुक्तपापानालोक्य प्रणम्य शिरसा हरिम्।
पप्रच्छ केशवं धर्मं धर्मपुत्रः प्रतापवान्।।
14-97-9a
14-97-9b
14-97-9c
युधिष्ठिर उवाच। 14-97-10x
कीदृशी ब्राह्मणस्याथ क्षत्रियस्यापि कीदृशी।
वैश्यस्य कीदृशी देव गतिः शूद्रस्य कीदृशी।।
14-97-10a
14-97-10b
कथं बध्येत पाशेन ब्राह्मणस्तु यमालये।
क्षत्रियो वाथ वैश्यो वा शूद्रो वा बध्यते कथम्।
एतत्कर्मफलं ब्रूहि लोकनाथ नमोस्तु ते।।
14-97-11a
14-97-11b
14-97-11c
वैशंपायन उवाच। 14-97-12x
पृष्टोऽथ केशवो ह्येवं धर्मपुत्रेण धीमता।
उवाच संसारगतिं चातुर्वर्ण्यस्य कर्मजाम्।।
14-97-12a
14-97-12b
भगवानुवाच। 14-97-13x
शृणु वर्णक्रमेणैव धर्मं धर्मभृतां वर।
नास्ति किंचिन्नरश्रेष्ठ ब्राह्मणस्य तु दुष्कृतम्।।
14-97-13a
14-97-13b
शिखांयज्ञोपवीता ये सन्ध्यां ये चाप्युपासते।
यैश्च पूर्णाहुतिः प्राप्ता विधिवज्जुह्वते च ये।।
14-97-14a
14-97-14b
वैश्वदेवं च ये चक्रुः पूजयन्त्यतिथींश्च ये।
नित्यं स्वाध्यायशीलाश्च जपयज्ञपराश्च ये।।
14-97-15a
14-97-15b
सायंप्रातर्हुताशाश्च शूद्रभोजनवर्जिताः।
डंभानृतविमुक्ताश्च स्वदारनिरताश्च ये।
पञ्चयज्ञपरा ये च येऽग्निहोत्रमुपासते।।
14-97-16a
14-97-16b
14-97-16c
दहन्ति दुष्कृतं येषां हूयमानास्त्रयोऽग्नयः।
नष्टदुष्कृतकर्माणो ब्रह्मलोकं व्रजन्ति ते।।
14-97-17a
14-97-17b
ब्रह्मलोके पुनः कामं गन्धर्वैर्ब्रह्मगायकैः।
उद्गीयमानाः प्रयतैः पूज्यमानाः स्वयंभुवा।
ब्रह्मिलोके प्रमोदन्ते यावदाभूतसंप्लुवम्।।
14-97-18a
14-97-18b
14-97-18c
क्षत्रियोपि स्थितो राज्ये स्वधर्मपरिपालकः।
सम्यक्प्रजाः पालयिता षड्भागनिरतः सदा।।
14-97-19a
14-97-19b
यज्ञदानरतो धीरः स्वदारनिरतः सदा।
शास्त्रानुसारी तत्वज्ञः प्रजाकार्यपरायणः।।
14-97-20a
14-97-20b
विप्रेभ्यः कामदो नित्यं भृत्यानां भरणे रतः।
सत्यसन्धः शुचिर्नित्यं लोभडंभविवर्जितः।
क्षत्रियोप्युत्तमां याति गतिं देवनिषेविताम्।।
14-97-21a
14-97-21b
14-97-21c
तत्र दिव्याप्सरोभिस्तु गन्धर्वैश्च विशेषतः।
सेव्यमानो महातेजाः क्रीडते शक्रपूजितः।।
14-97-22a
14-97-22b
चतुर्थगानि वै त्रिंशत्क्रीडित्वा तत्र देववत्।
इह मानुष्यलोके तु चतुर्वेदी द्विजो भवेत्।।
14-97-23a
14-97-23b
कृषिगोपालनिरतो धर्मानवेषणतत्परः। 14-97-24a
दानधर्मेपि निरतो विप्रशुश्रूषकस्तथा।। 14-97-24a
सत्यसन्धः शुचिर्नित्यं लोभडंभविवर्जितः।
ऋजुः स्वदारनिरतो हिंसाद्रोहविवर्जितः।।
14-97-25a
14-97-25b
वणिग्धर्मान्नमुञ्चन्वै देवब्राह्मणपूजकः।
वैश्यः स्वर्गतिमाप्नोति पूज्यमानोप्सरोगणैः।।
14-97-26a
14-97-26b
चतुर्युगानि वै त्रिंशत्क्रीडित्वा दश पञ्च च।
इह मानुष्यलोके च राजा भवति वीर्यवान्।।
14-97-27a
14-97-27b
सुवर्णकोट्यः पञ्चाशद्रत्नानां च शतं तथा।
हस्त्यश्वरश्वसंयुक्तो महाभोगांश्च सेवते।।
14-97-28a
14-97-28b
त्रयाणामपि वर्णानां शुश्रूषानिरतः सदा।
विशेषतस्तु विप्राणां दासवद्यस्तु तिष्टति।।
14-97-29a
14-97-29b
अयाचितप्रदाता च सत्यशौचसमन्वितः।
गुरुदेवार्चनरतः परदारविवर्जितः।।
14-97-30a
14-97-30b
परपीडामकृत्वैव भत्यवर्गं बिभर्ति यः।
शूद्रोपि स्वर्गमाप्नोति जीवानामभयप्रदः।।
14-97-31a
14-97-31b
स स्वर्गकलोके क्रीडित्वा वर्षकोटिं महातपाः।
इह मानुषलोके तु वैश्यो धनपतिर्भवेत्।।
14-97-32a
14-97-32b
एवं धर्मात्परं नास्ति महत्संसारमोक्षणम्।
न च धर्मात्पर किंचित्पापकर्मव्यपोहनम्।।
14-97-33a
14-97-33b
तस्माद्धर्मः सदा कार्यो मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम्।
न हि धर्मानुरक्तानां लोके किंचन दुर्लभम्।।
14-97-34a
14-97-34b
स्वयंभुविहितो धर्मो यो यस्येह नरेश्वर।
स तेन क्षपयेत्पापं सम्यगाचरितेन च ।।
14-97-35a
14-97-35b
सहजं यद्भदेत्कर्म न तत्त्याज्यं हि केनचित्।
स एव तस्य धर्मो हि तेन सिद्धिं स गच्छति।।
14-97-36a
14-97-36b
विगुणोपि स्वधर्मस्तु पापकर्म व्यपोहति।
एवमेव तु धर्मोपि क्षीयते पापवर्धनात्।।
14-97-37a
14-97-37b
युधिष्ठिर उवाच। 14-97-38x
भगवन्देवदेवेश श्रोतुं कौतूहलं हि मे।
शुभस्याप्यशुभस्यापि क्षयवृद्धी यथाक्रमम्।।
14-97-38a
14-97-38b
भगवानुवाच। 14-97-39x
शृणु पार्थिव तत्सर्वं धर्मसूक्ष्मं सनातनम्।
दुर्विज्ञेयतमं नित्यं यत्र मग्ना महाजनाः।।
14-97-39a
14-97-39b
यथैव शीतमुदकमुष्णेन बहुना वृतम्।
भवेत्तु तत्क्षणादुष्णं शीतत्वं च विनश्यति।।
14-97-40a
14-97-40b
यथोष्णं वा भवेदल्पं शीतेन बहुना वृतम्।
शीतलं च भवेत्सर्वमुष्णत्वं च विनश्यति।।
14-97-41a
14-97-41b
एवं च यद्भवेद्भूरि सुकृतं वाऽपि दुष्कृतम्।
तदल्पं क्षपयेच्छीघ्रं नात्र कार्या विचारणा।।
14-97-42a
14-97-42b
समत्वे सति राजेन्द्र तयोः सुकृतपापयोः।
गूहितस्य भवेद्वृद्धिः कीर्तितस्य भवेत्क्षयः।।
14-97-43a
14-97-43b
ख्यापनेनानुतापेन प्रायः पापं विनश्यति।
तथा कृतस्तु राजेन्द्र धर्मो नश्यति मानद।।
14-97-44a
14-97-44b
तावुभौ गूहितौ सम्यग्वृद्धिं यातो न संशयः।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन न पापं गूहयेद्बुधः।।
14-97-45a
14-97-45b
तस्मादेतत्प्रयत्नेनि कीर्तयेत्क्षयकारणात्।
तस्मात्संकीर्तयेत्पापं नित्यं धर्मं च गूहयेत्।।
14-97-46a
14-97-46b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
वैष्णवधर्मपर्वणि सप्तनवतितमोऽध्यायः।। 97 ।।
आश्वमेधिकपर्व-096 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-098