महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-035
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कृष्णेनार्जुनंप्रति ब्राह्मणीब्राह्मणशब्दनिर्दिष्टयोः क्रमेणि बुद्धिमनस्त्वकथनम्।। 1 ।।
ब्राह्मण उवाच। | 14-35-1x |
नेदमल्पात्मना शक्यं वेदितुं वाऽकृतात्मना। बहु चाल्पं च संक्षिप्तं विस्तृतं च मतं मम।। | 14-35-1a 14-35-1b |
उपायं तं मम ब्रूहि येनैषा लभ्यते मतिः। तन्मन्ये कारणं कर्म यत एषा प्रवर्तते।। | 14-35-2a 14-35-2b |
ब्राह्मण उवाच। | 14-35-3x |
अरणीं ब्राह्मणीं विद्धि गुरुरस्योत्तरारणिः। तपःश्रुतेभिमथिनी ज्ञानाग्निर्जायते ततः।। | 14-35-3a 14-35-3b |
ब्राह्मणयुवाच। | 14-35-4x |
यदिदं ब्रह्मणो लिङ्गं क्षेत्रज्ञ इति संज्ञितम्। ग्रहीतुं येन यच्छक्यं लक्षणं तस्य तद्वद।। | 14-35-4a 14-35-4b |
ब्राह्मण उवाच। | 14-35-5x |
अलिङ्गो निर्गुणश्चैव कारणं नास्य विग्रहे। उपायमेव वक्ष्यामि येन गृह्येत भावना।। | 14-35-5a 14-35-5b |
सम्यगप्युपदिष्टस्य ह्यमृतस्येव तृप्यसे। कर्मबुद्धिरबुद्धित्वाज्ज्ञानलिङ्गान्निपातितः। | 14-35-6a 14-35-6b |
इदं कार्यमिदं नेति न मोक्षेषूपदिश्यते। पश्यतः शृण्वतो बुद्धिरात्मनैवोपजायते।। | 14-35-7a 14-35-7b |
यावन्त इह शक्येरंस्तावतोंऽसान्प्रकल्पयेत्। अव्यक्तान्व्यक्तरूपांश्च शतशोऽथ सहस्रशः।। | 14-35-8a 14-35-8b |
सर्वानुमानयुक्तांश्च सर्वान्प्रत्यक्षहेतुकान्। यतः परं न विद्येत ततोऽभ्यासे भविष्यति।। | 14-35-9a 14-35-9b |
श्रीभगवानुवाच। | 14-35-10x |
ततस्तु तस्या ब्राह्मण्या मतिः क्षेत्रज्ञसंशये। क्षेत्रज्ञानेन परतः क्षेत्रज्ञोऽन्यः प्रवर्तते।। | 14-35-10a 14-35-10b |
अर्जुन उवाच। | 14-35-11x |
क्व नु सा ब्राह्मणि कृष्ण क्व चासौ ब्राह्मणर्षभः। याभ्यां सिद्धिरियं प्राप्ता तावुभौ वद मेऽच्युत।। | 14-35-11a 14-35-11b |
श्रीभगवानुवाच। | 14-35-12x |
मनो मे ब्राह्मणं विद्धि बुद्धिं मे विद्धि ब्राह्मणीम्। क्षेत्रज्ञ इति यश्चोक्तः सोऽहमेव धनंजय।। | 14-35-12a 14-35-12b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि पञ्चत्रिंशोऽध्यायः।। |
14-35-6 सम्यगुपायो दृष्टश्च भ्रमरैरिव लक्ष्यत इति झ.पाठः।।
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