महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-094

विकिस्रोतः तः
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
← आश्वमेधिकपर्व-093 महाभारतम्
चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-094
वेदव्यासः
आश्वमेधिकपर्व-095 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118

वैशंपायनेन जनमेजयंप्रति पशुहिंसां विनैव ध्यानदानादिभिरेव यज्ञफलसंसिद्धौ दृष्टान्ततयाऽगस्त्ययज्ञप्रकारकथनम्।। 1 ।।

जनमेजय उवाच। 14-94-1x
धर्मागतेन त्यागेन भगवन्सर्वमस्ति चेत्।
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व कुशलो ह्यसि भाषितुम्।।
14-94-1a
14-94-1b
तस्योञ्छवृत्तेर्यद्वृत्तं सक्तुदाने फलं महत्।
कथितं तु मम ब्रह्मंस्तथ्यमेतदसंशयम्।।
14-94-2a
14-94-2b
कथं हि सर्वयज्ञेषु निश्चयः परमो भवेत्।
एतदर्हसि मे वक्तुं निखिलेन द्विजर्षभ।।
14-94-3a
14-94-3b
वैशम्पायन उवाच। 14-94-4x
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
अगस्त्यस्य महायज्ञे पुरावृत्तमरिंदम।।
14-94-4a
14-94-4b
पुराऽगस्त्यो महातेजा दीक्षां द्वादशवार्षिकीम्।
प्रविवेश महाराज सर्वभूतहिते रतः।।
14-94-5a
14-94-5b
तत्राग्निकल्पा होतार आसन्सत्रे महात्मनः।
मूलाहाराः फलाहाराश्चाश्मकुट्टा मरीचिपाः।।
14-94-6a
14-94-6b
परिपृष्टिका वैघसिकाः प्रसङ्ख्यानास्तथैव च।
यतयो भिक्षवश्चात्र बभूवुः पर्यवस्थिताः।।
14-94-7a
14-94-7b
सर्वे प्रत्यक्षधर्माणो जितक्रोधा जितेन्द्रियाः।
दमे स्थिताश्च सर्वे ते हिंसादंभविवर्जिताः।।
14-94-8a
14-94-8b
वृत्ते शुद्धे स्थिता नित्यमिन्द्रियैश्चाप्यबाधिताः।
उपातिष्ठन्त तं यज्ञं यजन्तस्ते महर्षयः।।
14-94-9a
14-94-9b
यथाशक्त्या भगवता तदन्नं समुपार्जितम्।
तस्मिन्सत्रे तु यद्वृत्तं यद्योग्यं च तदाऽभवत्।।
14-94-10a
14-94-10b
तथा ह्यनेकैर्मुनिभिर्महान्तः क्रतवः कृताः।
एवंविधे त्वगस्त्यस्य वर्तमाने तथाऽध्वरे।
न ववर्ष सहस्राक्षस्तदा भरतसत्तम।।
14-94-11a
14-94-11b
14-94-11c
ततः कर्मान्तरे राजन्नगस्त्यस्य महात्मनः।
कथेयमभिनिर्वृत्ता मुनीनां भावितात्मनाम्।।
14-94-12a
14-94-12b
अगस्त्यो यजमानोसौ ददात्यन्नं विमत्सरः।
न च वर्षति पर्जन्यः कथमन्नं भविष्यति।।
14-94-13a
14-94-13b
सत्रं चेदं महद्विप्रा मुनेर्द्वादशवार्षिकम्।
न वर्षिष्यति देवश्च वर्षाण्येतानि द्वादश।।
14-94-14a
14-94-14b
एतद्भवन्तः संचिन्त्य महर्षेरस्य धीमतः।
अगस्त्यस्यातितपसः कर्तुमर्हन्त्यनुग्रहम्।।
14-94-15a
14-94-15b
इत्येवमुक्ते वचने ततोऽगस्त्यः प्रतापवान्।
प्रोवाच वाक्यं स तदा प्रसाद्य शिरसा मुनीन्।।
14-94-16a
14-94-16b
यदि द्वादशवर्षाणि न वर्षिष्यति वासवः।
चिन्तायज्ञं करिष्यामि विधिरेष सनातनः।।
14-94-17a
14-94-17b
यदि द्वादशवर्षाणि न वर्षिष्यति वासवः।
स्पर्शयज्ञं करिष्यामि विधिरेष सनातनः।।
14-94-18a
14-94-18b
यदि द्वादशवर्षाणि न वर्षिष्यति वासवः।
व्यायामेनाहरिष्यामि यज्ञानेतान्यतव्रतः।।
14-94-19a
14-94-19b
बीजयज्ञो मयाऽयं वै बहुवर्षसमाचितः।
बीजैर्हितं करिष्यामि नात्र विघ्नो भविष्यति।।
14-94-20a
14-94-20b
नेदं शक्यं वृथा कर्तुं मम सत्रं कथञ्चन।
वर्षिष्यतीह वा देवो नवा वर्षं भविष्यति।।
14-94-21a
14-94-21b
अथवाऽभ्यर्थनामिन्द्रो न करिष्यति कामतः।
स्वयमिन्द्रो भविष्यामि जीवयिष्यामि च प्रजाः।।
14-94-22a
14-94-22b
यो यदाहारजातश्च स तथैव भविष्यति।
विशेषं चैव कर्तास्मि पुनः पुनरतीव हि।।
14-94-23a
14-94-23b
अद्येह स्वर्णमभ्येतु यच्चान्यद्वसु दुर्लभम्।
त्रिषु लोकेषु यच्चास्ति तदिहागम्यतां स्वयम्।।
14-94-24a
14-94-24b
दिव्याश्चाप्सरसां सङ्घा गन्धर्वाश्च सकिन्नराः।
विश्वावसुश्च ये चान्ये तेऽप्युपासन्तु मे मखम्।।
14-94-25a
14-94-25b
उत्तरेभ्यः कुरुभ्यश्च यत्किंचिद्वसु विद्यते।
सर्वं तदिह यज्ञेषु स्वयमेवोपतिष्ठतु।।
14-94-26a
14-94-26b
स्वर्गः स्वर्गसदश्चैवक धर्मश्च स्वयमेव तु।
इत्युक्ते सर्वमेवैतदभवत्तपसा मुनेः।
तस्य दीप्ताग्निमहसस्त्वगस्त्यस्यातितेजसः।।
14-94-27a
14-94-27b
14-94-27c
ततस्ते मुनयो हृष्टा ददृशुस्तपसो बलम्।
विस्मिता वचनं प्राहुरिदं सर्वे महार्थवत्।।
14-94-28a
14-94-28b
प्रीताः स्म तव वाक्येन न त्विच्छामस्तपोवनम्।
तैरेव यज्ञैस्तुष्टाः स्य न्यायेनेच्छामहे वयम्।।
14-94-29a
14-94-29b
यज्ञं दीक्षां तथा होमान्यच्चान्यन्मृगयामहे।
`तयोस्संधर्षितैर्यज्ञैर्नान्यतो मृगयामहे।।'
14-94-30a
14-94-30b
न्यायेनोपार्जिताहाराः स्वकर्माभिरता वयम्।
वेदांश्च ब्रह्मचर्येण न्यायतः प्रार्थयामहे।।
14-94-31a
14-94-31b
न्यायेनोत्तरकालं च गृहेभ्यो निःसृता वयम्।
धर्मदृष्टैर्विधिद्वारैस्तपस्तप्स्यामहे वयम्।।
14-94-32a
14-94-32b
भवतः सम्यगिष्टा तु बुद्धिर्हिसाविवर्जिता।
एतामहिंसा यज्ञेषु ब्रूयास्त्वं सततं प्रभो।।
14-94-33a
14-94-33b
प्रीतास्ततो भविष्यामो वयं तु द्विजसत्तम।
विसर्जिताः समाप्तौ च सत्रादस्माद्व्रजामहे।।
14-94-34a
14-94-34b
तथा कथयतां तेषां देवराजः पुरंदरः।
ववर्ष सुमहातेजा दृष्ट्वा तस्य तपोबलम्।।
14-94-35a
14-94-35c
आसमाप्तेश्च यज्ञस्य तस्यामितपराक्रमः।
निकामवर्षी पर्जन्यो बभूव जनमेजय।।
14-94-36a
14-94-36b
प्रसादयामास च तमगस्त्यं त्रिदशेश्वरः।
स्वयमभ्येत्य राजर्षे पुरस्कृत्य बृहस्पतिम्।।
14-94-37a
14-94-37b
ततो यज्ञसमाप्तौ तान्विससर्ज महामुनीन्।
अगस्त्यः परमप्रीतः पूजयित्वा यथाविधि।।
14-94-38a
14-94-38b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अनुगीतापर्वि चतुर्नवतितमोऽध्यायः।। 94 ।।

[सम्पाद्यताम्]

14-94-6 मरीचिपाश्चन्द्रमरीचिपानमातृप्ताः।। 14-94-7 परिपृष्टं चेदेव गृह्णन्ति नान्यथा मे परिपृष्टिकाः। प्रसंख्यानास्तत्कालमात्रसंग्रहाः।। 14-94-17 चिन्तायज्ञं मानसं यज्ञम्। संकल्पमात्रेणैव देवानृषीश्च तर्पयिष्यामीत्यर्थ।। 14-94-18 स्पर्शयज्ञं उपाहृतद्रव्यस्य व्ययमकृत्वा तत्स्पर्शेनैव तांस्तर्पयिष्यामि। एवं दृष्टियज्ञोपि ज्ञेयः।। 14-94-19 व्यायामेन शरीरक्लेशेन। ध्येयात्मना हरिष्यामि हति झ.पाठः।। 14-94-29 न त्विच्छामस्तपोव्ययमिति झ.पाठः।।

आश्वमेधिकपर्व-093 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-095