महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-094
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वैशंपायनेन जनमेजयंप्रति पशुहिंसां विनैव ध्यानदानादिभिरेव यज्ञफलसंसिद्धौ दृष्टान्ततयाऽगस्त्ययज्ञप्रकारकथनम्।। 1 ।।
जनमेजय उवाच। | 14-94-1x |
धर्मागतेन त्यागेन भगवन्सर्वमस्ति चेत्। एतन्मे सर्वमाचक्ष्व कुशलो ह्यसि भाषितुम्।। | 14-94-1a 14-94-1b |
तस्योञ्छवृत्तेर्यद्वृत्तं सक्तुदाने फलं महत्। कथितं तु मम ब्रह्मंस्तथ्यमेतदसंशयम्।। | 14-94-2a 14-94-2b |
कथं हि सर्वयज्ञेषु निश्चयः परमो भवेत्। एतदर्हसि मे वक्तुं निखिलेन द्विजर्षभ।। | 14-94-3a 14-94-3b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-94-4x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। अगस्त्यस्य महायज्ञे पुरावृत्तमरिंदम।। | 14-94-4a 14-94-4b |
पुराऽगस्त्यो महातेजा दीक्षां द्वादशवार्षिकीम्। प्रविवेश महाराज सर्वभूतहिते रतः।। | 14-94-5a 14-94-5b |
तत्राग्निकल्पा होतार आसन्सत्रे महात्मनः। मूलाहाराः फलाहाराश्चाश्मकुट्टा मरीचिपाः।। | 14-94-6a 14-94-6b |
परिपृष्टिका वैघसिकाः प्रसङ्ख्यानास्तथैव च। यतयो भिक्षवश्चात्र बभूवुः पर्यवस्थिताः।। | 14-94-7a 14-94-7b |
सर्वे प्रत्यक्षधर्माणो जितक्रोधा जितेन्द्रियाः। दमे स्थिताश्च सर्वे ते हिंसादंभविवर्जिताः।। | 14-94-8a 14-94-8b |
वृत्ते शुद्धे स्थिता नित्यमिन्द्रियैश्चाप्यबाधिताः। उपातिष्ठन्त तं यज्ञं यजन्तस्ते महर्षयः।। | 14-94-9a 14-94-9b |
यथाशक्त्या भगवता तदन्नं समुपार्जितम्। तस्मिन्सत्रे तु यद्वृत्तं यद्योग्यं च तदाऽभवत्।। | 14-94-10a 14-94-10b |
तथा ह्यनेकैर्मुनिभिर्महान्तः क्रतवः कृताः। एवंविधे त्वगस्त्यस्य वर्तमाने तथाऽध्वरे। न ववर्ष सहस्राक्षस्तदा भरतसत्तम।। | 14-94-11a 14-94-11b 14-94-11c |
ततः कर्मान्तरे राजन्नगस्त्यस्य महात्मनः। कथेयमभिनिर्वृत्ता मुनीनां भावितात्मनाम्।। | 14-94-12a 14-94-12b |
अगस्त्यो यजमानोसौ ददात्यन्नं विमत्सरः। न च वर्षति पर्जन्यः कथमन्नं भविष्यति।। | 14-94-13a 14-94-13b |
सत्रं चेदं महद्विप्रा मुनेर्द्वादशवार्षिकम्। न वर्षिष्यति देवश्च वर्षाण्येतानि द्वादश।। | 14-94-14a 14-94-14b |
एतद्भवन्तः संचिन्त्य महर्षेरस्य धीमतः। अगस्त्यस्यातितपसः कर्तुमर्हन्त्यनुग्रहम्।। | 14-94-15a 14-94-15b |
इत्येवमुक्ते वचने ततोऽगस्त्यः प्रतापवान्। प्रोवाच वाक्यं स तदा प्रसाद्य शिरसा मुनीन्।। | 14-94-16a 14-94-16b |
यदि द्वादशवर्षाणि न वर्षिष्यति वासवः। चिन्तायज्ञं करिष्यामि विधिरेष सनातनः।। | 14-94-17a 14-94-17b |
यदि द्वादशवर्षाणि न वर्षिष्यति वासवः। स्पर्शयज्ञं करिष्यामि विधिरेष सनातनः।। | 14-94-18a 14-94-18b |
यदि द्वादशवर्षाणि न वर्षिष्यति वासवः। व्यायामेनाहरिष्यामि यज्ञानेतान्यतव्रतः।। | 14-94-19a 14-94-19b |
बीजयज्ञो मयाऽयं वै बहुवर्षसमाचितः। बीजैर्हितं करिष्यामि नात्र विघ्नो भविष्यति।। | 14-94-20a 14-94-20b |
नेदं शक्यं वृथा कर्तुं मम सत्रं कथञ्चन। वर्षिष्यतीह वा देवो नवा वर्षं भविष्यति।। | 14-94-21a 14-94-21b |
अथवाऽभ्यर्थनामिन्द्रो न करिष्यति कामतः। स्वयमिन्द्रो भविष्यामि जीवयिष्यामि च प्रजाः।। | 14-94-22a 14-94-22b |
यो यदाहारजातश्च स तथैव भविष्यति। विशेषं चैव कर्तास्मि पुनः पुनरतीव हि।। | 14-94-23a 14-94-23b |
अद्येह स्वर्णमभ्येतु यच्चान्यद्वसु दुर्लभम्। त्रिषु लोकेषु यच्चास्ति तदिहागम्यतां स्वयम्।। | 14-94-24a 14-94-24b |
दिव्याश्चाप्सरसां सङ्घा गन्धर्वाश्च सकिन्नराः। विश्वावसुश्च ये चान्ये तेऽप्युपासन्तु मे मखम्।। | 14-94-25a 14-94-25b |
उत्तरेभ्यः कुरुभ्यश्च यत्किंचिद्वसु विद्यते। सर्वं तदिह यज्ञेषु स्वयमेवोपतिष्ठतु।। | 14-94-26a 14-94-26b |
स्वर्गः स्वर्गसदश्चैवक धर्मश्च स्वयमेव तु। इत्युक्ते सर्वमेवैतदभवत्तपसा मुनेः। तस्य दीप्ताग्निमहसस्त्वगस्त्यस्यातितेजसः।। | 14-94-27a 14-94-27b 14-94-27c |
ततस्ते मुनयो हृष्टा ददृशुस्तपसो बलम्। विस्मिता वचनं प्राहुरिदं सर्वे महार्थवत्।। | 14-94-28a 14-94-28b |
प्रीताः स्म तव वाक्येन न त्विच्छामस्तपोवनम्। तैरेव यज्ञैस्तुष्टाः स्य न्यायेनेच्छामहे वयम्।। | 14-94-29a 14-94-29b |
यज्ञं दीक्षां तथा होमान्यच्चान्यन्मृगयामहे। `तयोस्संधर्षितैर्यज्ञैर्नान्यतो मृगयामहे।।' | 14-94-30a 14-94-30b |
न्यायेनोपार्जिताहाराः स्वकर्माभिरता वयम्। वेदांश्च ब्रह्मचर्येण न्यायतः प्रार्थयामहे।। | 14-94-31a 14-94-31b |
न्यायेनोत्तरकालं च गृहेभ्यो निःसृता वयम्। धर्मदृष्टैर्विधिद्वारैस्तपस्तप्स्यामहे वयम्।। | 14-94-32a 14-94-32b |
भवतः सम्यगिष्टा तु बुद्धिर्हिसाविवर्जिता। एतामहिंसा यज्ञेषु ब्रूयास्त्वं सततं प्रभो।। | 14-94-33a 14-94-33b |
प्रीतास्ततो भविष्यामो वयं तु द्विजसत्तम। विसर्जिताः समाप्तौ च सत्रादस्माद्व्रजामहे।। | 14-94-34a 14-94-34b |
तथा कथयतां तेषां देवराजः पुरंदरः। ववर्ष सुमहातेजा दृष्ट्वा तस्य तपोबलम्।। | 14-94-35a 14-94-35c |
आसमाप्तेश्च यज्ञस्य तस्यामितपराक्रमः। निकामवर्षी पर्जन्यो बभूव जनमेजय।। | 14-94-36a 14-94-36b |
प्रसादयामास च तमगस्त्यं त्रिदशेश्वरः। स्वयमभ्येत्य राजर्षे पुरस्कृत्य बृहस्पतिम्।। | 14-94-37a 14-94-37b |
ततो यज्ञसमाप्तौ तान्विससर्ज महामुनीन्। अगस्त्यः परमप्रीतः पूजयित्वा यथाविधि।। | 14-94-38a 14-94-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वि चतुर्नवतितमोऽध्यायः।। 94 ।। |
14-94-6 मरीचिपाश्चन्द्रमरीचिपानमातृप्ताः।। 14-94-7 परिपृष्टं चेदेव गृह्णन्ति नान्यथा मे परिपृष्टिकाः। प्रसंख्यानास्तत्कालमात्रसंग्रहाः।। 14-94-17 चिन्तायज्ञं मानसं यज्ञम्। संकल्पमात्रेणैव देवानृषीश्च तर्पयिष्यामीत्यर्थ।। 14-94-18 स्पर्शयज्ञं उपाहृतद्रव्यस्य व्ययमकृत्वा तत्स्पर्शेनैव तांस्तर्पयिष्यामि। एवं दृष्टियज्ञोपि ज्ञेयः।। 14-94-19 व्यायामेन शरीरक्लेशेन। ध्येयात्मना हरिष्यामि हति झ.पाठः।। 14-94-29 न त्विच्छामस्तपोव्ययमिति झ.पाठः।।
आश्वमेधिकपर्व-093 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-095 |