महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-029

विकिस्रोतः तः
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
← आश्वमेधिकपर्व-028 महाभारतम्
चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-029
वेदव्यासः
आश्वमेधिकपर्व-030 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118

कृष्णेनार्जुनंप्रति यागीयहिंसाया अधर्म्यत्वाभावप्रतिपादकाध्वर्युयतिसंवादानुवादः।। 1 ।।

ब्राह्मण उवाच। 14-29-1x
गन्धान्न जिघ्रामि रासान्न वेद्मि
रूपं न पश्यामि न च स्पृशामि।
न चापि शब्दान्विविधाञ्शृणोमि
न चापि सङ्कल्पमुपैमि कञ्चित्।।
14-29-1a
14-29-1b
14-29-1c
14-29-1d
अर्थानिष्टान्कामयते स्वभावः
सर्वान्द्वेष्यान्प्रद्विषते स्वभावः।
कामद्वेषानुद्भवतः स्वभावा-
त्प्राणापानौ जन्तुदेहान्निवेश्य।।
14-29-2a
14-29-2b
14-29-2c
14-29-2d
तेभ्यश्चान्यांस्तेषु नित्यांश्च भावा-
न्भूतात्मानं अक्षयेऽहं शरीरे।
तस्मिंस्तिष्ठन्नास्मि सक्तः कथंचि-
त्कामक्रोधाभ्यां जरया मृत्युना च।।
14-29-3a
14-29-3b
14-29-3c
14-29-3d
अकामयानस्य च सर्वकामा-
नविद्विषाणस्य च सर्वदोषान्।
न मे स्वभावेषु भवन्ति लेपा-
स्तोयस्य बिन्दोरिव पुष्करेषु।।
14-29-4a
14-29-4c
14-29-4d
14-29-4c
नित्यस्य चैतस्य भवन्ति नित्या
निरीक्ष्यमाणस्य बहून्स्वभावान्।
न सज्जते कर्मसु भोगजालं
दिवीव सूर्यस्य मयूखजालम्।।
14-29-5a
14-29-5b
14-29-5c
14-29-5d
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
अध्वर्युयतिसंवादं तं निबोध यशस्विनि।।
14-29-6a
14-29-6b
प्रोक्ष्यमाणं पशुं दृष्ट्वा यज्ञकर्मण्यथाब्रवीत्।
यतिरध्वर्युमासीनो हिंसोयमिति कुत्सयन्।।
14-29-7a
14-29-7b
तमध्वर्युः प्रत्युवाच नायं छागो विनश्यति।
श्रेयसा योक्ष्यते जन्तुर्यज्ञाच्छ्रुतिरियं तथा।।
14-29-8a
14-29-8b
यो ह्यस्य पार्थिवो भागः पृथिवीं स गमिष्यति।
यदस्य वारिजं किञ्चिदपस्तत्सम्प्रवेक्ष्यति।।
14-29-9a
14-29-9b
सूर्यं चक्षुर्दिशः श्रोत्रे प्राणोऽस्य दिवमेव च।
आगमे वर्तमानस्य नमे दोषोस्ति कश्चन।।
14-29-10a
14-29-10b
यतिरुवाच। 14-29-11x
प्राणैर्वियोगे च्छागस्य यदि श्रेयः प्रपश्यसि।
छागार्थे वर्तते यज्ञो भवतः किं प्रयोजनम्।।
14-29-11a
14-29-11b
अनु त्वां मन्यते माता अनु त्वां मन्यते पिता।
मन्त्रविज्ञानमुन्नीय परिवर्ते विशेषतः।।
14-29-12a
14-29-12b
एवमेवानुमन्येरंस्तान्भवान्द्रष्टुमर्हति।
तेषामनुमतिं श्रुत्वा शक्या कर्तुं विचारणा।।
14-29-13a
14-29-13b
अध्वर्युरुवाच। 14-29-14x
प्राणा अप्यस्य च्छागस्य प्रापितास्ते स्वयोनिषु।
शरीरं केवलं शिष्टं निश्चेष्टमिति मे मतिः।।
14-29-14a
14-29-14b
इन्धनस्य तु तुल्येन शरीरेणि विचेतसा।
हिंसा हि यष्टुकामानामिन्धनं पशुसंज्ञितम्।।
14-29-15a
14-29-15b
अहिंसा सर्वधर्माणामिति वृद्धानुशासनम्।
यदहिंस्रं भवेत्कर्म तत्कार्यमिति विद्महे।।
14-29-16a
14-29-16b
अहिंसेति प्रतिज्ञेयं यदि वक्ष्याम्यतः परम्।
शक्यं बहुविधं वक्तुं भवता कार्यदूषणम्।।
14-29-17a
14-29-17b
अहिंसा सर्वभूतानां नित्यमस्मासु रोचते।
प्रत्यक्षतः साधयामो न परोक्षमुपास्महे।।
14-29-18a
14-29-18b
अध्वर्यरुवाच। 14-29-19x
भूमेर्गन्धगुणान्भुङ्क्ष्व पिबस्यापोमयान्रसान्।
ज्योतिषां पश्यते रूपं स्पृशस्यनिलजान्गुणान्।।
14-29-19a
14-29-19b
शृणोष्याकाशजाञ्शब्दान्मनसा मन्यसे मतिम्।
सर्वाण्येतानि भूतानि प्राणा इति च मन्यसे।।
14-29-20a
14-29-20b
प्राणादाने निवृत्तोसि हिंसायां वर्तते भवान्।
नास्ति चेष्टा विना हिंसां किं वा त्वं मन्यसे द्विज।।
14-29-21a
14-29-21b
यतिरुवाच। 14-29-22x
अक्षरं च क्षरं चैव द्वैधीभावोऽयमात्मनः।
अक्षरं तत्र सद्भावः स्वभावः क्षर उच्यते।।
14-29-22a
14-29-22b
प्राणो जिह्वा मनः सत्त्वं सद्भावो रजसा सह।
भावैरेतैर्विमुक्तस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः।।
14-29-23a
14-29-23b
समस्य सर्वभूतेषु निर्ममस्य जितात्मनः।
समन्तात्परिमुक्तस्य न भयं विद्यते क्वचित्।।
14-29-24a
14-29-24b
अध्वर्युरुवाच। 14-29-25x
सद्भिरेवेह संवादः कार्यो मतिमतांवर।
भवतो हि मतं श्रुत्वा प्रतिभाति मतिर्मम।।
14-29-25a
14-29-25b
भगवन्भगवद्बुद्ध्या प्रतिबुद्धो ब्रवीम्यहम्।
व्रतं मन्त्रकृतं कर्तुर्नापराधोस्ति मे द्विज।।
14-29-26a
14-29-26b
ब्राह्मण उवाच। 14-29-27x
उपपत्त्या यतिस्तूष्णीं वर्तमानस्ततः परम्।
अध्वर्युरपि निर्मोहः प्रचचार महामखे।।
14-29-27a
14-29-27b
एवमेतादृशं मोक्षं सुसूक्ष्मं ब्राह्मणा विदुः।
विदित्वा चानुतिष्ठन्ति क्षेत्रज्ञेनार्थदर्शिना।।
14-29-28a
14-29-28b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेदिकपर्वणि
अनुगीतापर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः।। 29 ।।

[सम्पाद्यताम्]

14-29-2 सर्वानेतान्द्वेष्टि चैव स्वभाव इति क.ट.पाठः। जन्तुदेहानिहैत्येति क.ट.पाठः।। 14-29-3 नास्ति शक्यः कथंचिदिति क.ट.थ.पाठः।। 14-29-12 अत्र त्वां मन्यतां भ्राता पिता माता सखेति च। मन्त्रयस्वैनमुन्नीय परवन्तं विशेषत इति झ.द.पाठः।। 14-29-19 भूमेरिति नानुपहत्य भूतानि भोगः सम्भवतीति न्यायाज्जीवतोऽपरिहार्यैव हिंसेत्यर्थः।। 14-29-21 किं कथं त्वं मन्यसेऽहिंसामिति शेषः।। 14-29-26 मतं मन्तुं क्रतुं कर्तुमिति थ.पाठः।।

आश्वमेधिकपर्व-028 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-030