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महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-059

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महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-059
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उदङ्काय वरदानात्परं द्वारकामागच्छता कृष्णेन मध्ये रैवतकप्रवेशः।। 1 ।। रैवतकोत्सववर्णनम्।। 2 ।। ततः कृष्णेन स्वभवनमेत्य मातापितृभ्यामभिवादनम्।। 3 ।।

जनमेजय उवाच। 14-59-1x
उदङ्कस्य वरं दत्त्वा गोविन्दो द्विजत्तम।
अत ऊर्ध्वं महाबाहुः किं चकार महायशाः।।
14-59-1a
14-59-1b
वैशम्पायन उवाच। 14-59-2x
उदङ्काय वरं दत्त्वा प्रायात्सात्यकिना सह।
द्वारकामेव गोविन्दः शीघ्रवेगैर्महाहयैः।।
14-59-2a
14-59-2b
सरांसि सरितश्चैव वनानि च गिरींस्तथा।
अतिक्रम्याससादाथ रम्यां द्वारवतीं पुरीम्।।
14-59-3a
14-59-3b
वर्तमाने महाराज महे रैवतकस्य च।
उपायात्पुण्डरीकाक्षो युयुधानानुगस्तदा।।
14-59-4a
14-59-4b
अलङ्कृतस्तु स गिरिर्नानारूपैर्विचित्रितैः।
बभौ रत्नमयैः कोशैः संवृतः पुरुर्षर्षभ।।
14-59-5a
14-59-5b
काञ्चनस्रग्भिरग्र्याभिः सुमनोभिस्तथैव च।
वासोभिश्च महाशैलः कल्पवृक्षैस्तथैव च।।
14-59-6a
14-59-6b
दीपवृक्षैश्च सौवर्णैरभीक्ष्णमुपशोभितः।
गुहानिर्झरदेशेषु दिवाभूतो बभूव ह।।
14-59-7a
14-59-7b
एताकाभिर्विचित्राभिः सघण्टाभिः समन्ततः।
पुंभिः स्त्रीभिश्च संघुष्टः प्रगीत इव चाभवत्।
अतीव प्रेक्षणीयोऽभून्मेरुर्मुनिगणैरिव।।
14-59-8a
14-59-8b
14-59-8c
मत्तानां हृष्टरूपाणां स्त्रीणां पुंसां च भारत।
गायतां पर्वतेन्द्रस्य दिविस्पृगिव निःस्वनः।।
14-59-9a
14-59-9b
प्रमत्तमत्तसम्मत्तक्ष्वेडितोद्धुष्टसंकुलः।
तथा किलकिलाशब्दैर्भूधरोऽभून्मनोहरः।।
14-59-10a
14-59-10b
विपणापणवान्रम्यो भक्ष्यभोज्यविहारवान्।
वस्त्रमाल्योत्करयुतो वीणावेणुमृदङ्गवान्।।
14-59-11a
14-59-11b
सुरामैरेयमिश्रेण भक्ष्यभोज्येन चैव ह।
दीनान्धकृपणादिभ्यो दीयमानेन चानिशम्।
बभौ परमकल्याणो महस्तस्य महागिरेः।।
14-59-12a
14-59-12c
14-59-12d
पुण्यावसथवान्वीरैः पुण्यकृद्भिर्निषेवितः।
विहारो वृष्णिवीराणां महे रैवतस्य ह।।
14-59-13a
14-59-13b
स नानावेश्मसंकीर्णो देवलोक इवाबभौ।
तदा च कृष्णसान्निध्यान्मुदा देवगणैर्युतः।।
14-59-14a
14-59-14b
`स्तुवन्त्यन्तर्हिता देवा गन्धर्वाश्च सहर्षिभिः।
साधकः सर्वधर्माणामसुराणां विनाशकः।।
14-59-15a
14-59-15b
त्वं स्रष्टा सृज्यमाधारं कारणं धर्मवेदवित्।
त्वया सत्क्रियते देव ज जानीमोऽत्र मायया।।
14-59-16a
14-59-16b
केवलं त्वाऽभिजानीमः शरणं परमेश्वरम्।
ब्रह्मादीनां च गोविन्द सान्निध्वं शरणं नमः।।
14-59-17a
14-59-17b
इति स्तुते मानुषैश्च पूजिते देवकीसुते।'
शक्रसद्मप्रतीकाशो बभूव स हि शैलराट्।।
14-59-18a
14-59-18b
ततः सम्पूज्यमानः स विवेश भवनं शुभम्।
गोविन्दः सात्यकिश्चैव जग्मतुर्भवनं स्वकम्।।
14-59-19a
14-59-19b
विवेश च प्रहृष्टात्मा चिरकालप्रवासतः।
कृत्वा नसुकरं कर्म दानवेष्विव वासवः।।
14-59-20a
14-59-20b
उपायान्तं तु वार्ष्णेयं भोजवृष्ण्यन्धकास्तथा।
अभ्यगच्चन्महात्मानं देवा इव शतक्रतुम्।।
14-59-21a
14-59-21b
स तानभ्यर्च्य मेधावी पृष्ट्वा च कुशलं तदा।
अभ्यवादयत प्रीतः पितरं मातरं तदा।।
14-59-22a
14-59-22b
ताभ्यां स सम्परिष्वक्तः सान्त्वितश्च महाभुजः।
उपोपविष्टैः सर्वैस्तैर्वृष्णिभिः परिवारितः।।
14-59-23a
14-59-23b
स विश्रान्तो महातेजाः कृतपादावनेजनः।
कथयामास तत्सर्वं पृष्टः पित्रा महाहवम्।।
14-59-24a
14-59-24b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अनुगीतापर्वणि एकोनषष्टितमोऽध्यायः।। 59 ।।

14-59-4 महे उत्सवे।। 14-59-7 दीपभूतो बभूवहेति क.थ.पाठः।। 14-59-10 प्रमत्ताः क्रीडाद्यासत्तयानवहिताः। मत्ताः मद्यादिना। सम्मता हृष्टाः।। 14-59-23 सात्यकिश्च महाभुज इति क.पाठः।।

आश्वमेधिकपर्व-058 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-060