महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-018

विकिस्रोतः तः
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
← आश्वमेधिकपर्व-017 महाभारतम्
चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-018
वेदव्यासः
आश्वमेधिकपर्व-019 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118

ब्राह्मणेन कृष्णंप्रति प्राणिनां जननमरणादिप्रतिपादकसिद्धकश्यपसंवादनुवादः।। 1 ।।

वासुदेव उवाच। 14-18-1x
ततस्तस्योपसङ्गृह्य पादौ प्रश्नान्सुदुर्वचान्।
पप्रच्छ तांश्च धर्मान्स प्राह धर्मभृतांवरः।।
14-18-1a
14-18-1b
काश्यप उवाच। 14-18-2x
कथं शरीराच्च्यवते कथं चैवोपपद्यते।
कथं कष्टाच्च संसारात्संसरन्परिमुच्यते।।
14-18-2a
14-18-2b
आत्मानं वा कथं युक्त्वा तच्छरीरं विमुञ्चति।
शरीरे च विनिर्मुक्तो कथमन्यत्प्रपद्यते।।
14-18-3a
14-18-3b
कथं शुभाशुभे चायं कर्मणी स्वकृते नरः।
उपभुङ्क्ते क्व वा कर्म विदेहस्योपतिष्ठते।।
14-18-4a
14-18-4b
ब्राह्मण उवाच। 14-18-5x
एवं सञ्चोदितः सिद्धः प्रश्नांस्तान्प्रत्यभाषत।
आनुपूर्व्येण वार्ष्णेय तन्मे निगदतः शृणुः।।
14-18-5a
14-18-5b
सिद्ध उवाच। 14-18-6x
`अस्मिन्नेवाशु फलदा आयुष्यास्तु क्रियाःस्मृताः।
आयुःकीर्तिकराणीह यानि कृत्यानि सेवते।
शरीरग्रहणेऽन्यस्मिंस्तेषु क्षीणेषु सर्वशः।।
14-18-6a
14-18-6b
14-18-6c
आयुःक्षयपरीतात्मा विपरीतानि सेवते।
बुद्धिर्व्यावर्तते चास्य विनाशे प्रत्युपस्थिते।।
14-18-7a
14-18-7b
सत्त्वं बलं च कालं चाविदित्वा चात्मनस्तथा।
अतिवेलमुपाश्नाति स्वविरुद्धान्यनात्मवान्।।
14-18-8a
14-18-8b
यदाऽयमतिकष्टानि सर्वाण्युपनिषेवते।
अत्यर्थमपि वा भुङ्क्ते न वा भुङ्क्ते कदाचन।।
14-18-9a
14-18-9b
दुष्टान्नामिषपानं च यदन्योन्यविरोधि च।
गुरु चाप्यमितं भुङ्क्ते नातिजीर्णे दिवा पुनः।।
14-18-10a
14-18-10b
व्यायाममतिमात्रं च व्यावाय चोपसेवते।
सततं कर्मलोभाद्वा प्राप्तं वेगं विधारयेत्।।
14-18-11a
14-18-11b
रसाभियुक्तमन्नं वा दिवास्वप्नं च सेवते।
अपक्वानागते काले स्वयं दोषान्प्रकोपयेत्।।
14-18-12a
14-18-12b
स्वदोषकोपनाद्रोगं लभते मरणान्तिकम्।
अपि वोद्बन्धनादीनि परीतानि व्यवस्यति।।
14-18-13a
14-18-13b
तस्य तैः कारणैर्जन्तोः शरीरं च्यवते तदा।
जीवितं प्रोच्यमानं तद्यथावदुपधारय।।
14-18-14a
14-18-14b
ऊष्मा प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः।
शरीरमनुपर्येत्य सर्वान्प्राणान्रुणद्धि वै।।
14-18-15a
14-18-15b
अत्यर्थं बलवानूष्मा शरीरे परिकोपितः।
भिनत्ति जीवस्थानानि तानि कर्मणि विद्धि च।।
14-18-16a
14-18-16b
ततः सवेदनः सद्यो जीवः प्रच्यवते क्षरन्।
शरीरं त्यजते जन्तुश्छिद्यमानेषु मर्मसु।
वेदनाभिः परीतात्मा तद्विद्धि द्विजसत्तम।।
14-18-17a
14-18-17b
14-18-17c
जनीमरणसंविग्राः सततं सर्वजन्तवः।
दृश्यन्ते संत्यजन्तश्च शरीराणि द्विजर्षभ।।
गर्भसंक्रमणे चापि गर्भाणापुपसर्पणे।
तादृशीमेव लभते वेदनां मानवः पुनः।।
14-18-18a
14-18-18b
14-18-19c
14-18-19b
भिन्नसंधिरथ क्लेदमद्भिः स लभते नरः।। 14-18-20a
यथा पञ्चसु भूतेषु सम्भूतत्वं नियच्छति।
शैत्यात्प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः।।
14-18-21a
14-18-21b
यः स पञ्चसु भूतेषु प्राणापाने व्यवस्थितः।
स गच्छत्यूर्ध्वगो वायुः कृच्छ्रान्मुक्त्वा शरीरिणः।
शरीरं च जहात्येवं निरुच्छ्वासश्च दृश्यते।।
14-18-22a
14-18-22b
14-18-22c
स निरूष्मा निरुच्छ्वासो निःश्रीको गतचेतनः।
कर्मणा सम्परित्यक्तो मृत इत्युच्यते नरः।।
14-18-23a
14-18-23b
स्रोतोभिर्यैर्विजानाति इन्द्रियार्थाञ्शरीरभृत्।
तैरेव न विजानाति प्राणानाहारसम्भवान्।।
14-18-24a
14-18-24b
तत्रैव कुरुते काये यः स जीवः सनातनः।। 14-18-25a
तथा यद्यद्भवेन्मुक्तं सन्निपाते क्वचित्क्वचित्।
तत्तन्मर्म विजानीहि शास्त्रदृष्टं हि तत्तथा।।
14-18-26a
14-18-26b
तेषु मर्मसु भिन्नेषु ततः स समुदीरयन्।
आविश्य हृदयं जन्तोः सत्त्वं चाशु रुणद्धि वै।।
14-18-27a
14-18-27b
ततः सचेतनो जन्तुर्नाभिजानाति किञ्चन।
तमसा संवृतज्ञानः संवृतेष्वेव मर्मसु।
स जीवो निरदिष्ठानश्चाल्यते मातरिश्वना।।
14-18-28a
14-18-28b
14-18-28c
ततः स तं महोच्छ्वासं भृशमुच्छ्वस्य दारुणम्।
निष्क्रमन्कम्पयत्याशु तच्छरीरमचेतनम्।।
14-18-29a
14-18-29b
स जीवः प्रच्युतः कायात्कर्मभिः स्वैः समावृतः।
अङ्कितः स्वैः शुभैः पुण्यैः पापैर्वाऽप्युपपद्यते।।
14-18-30a
14-18-30b
ब्राह्मणा ज्ञानसम्पन्ना यथावच्छ्रुतनिश्चयाः।
इतरं कृतपुण्यं वा तं विजानन्ति लक्षणैः।।
14-18-31a
14-18-31b
यथान्धकारे खद्येतं दीप्यमानं ततस्ततः।
चक्षुष्मन्तः प्रपश्यन्ति तथा च ज्ञानचक्षुषः।।
14-18-32a
14-18-32b
पश्यन्त्येवंविधं सिद्धा जीवं दिव्येन चक्षुषा।
च्यवन्तं जायमानं च योनिं चानुप्रवेशितम्।।
14-18-33a
14-18-33b
तस्य स्थानानि दृष्टानि विविधानीह शास्त्रतः।
कर्मभूमिरियं भूमिर्यत्र तिष्ठन्ति जन्तवः।।
14-18-34a
14-18-34b
ततः शुभाशुभं कृत्वा लभन्ते सर्वदेहिनः।
इहैवोच्चावचान्भोगान्प्राप्नुवन्ति स्वकर्मभिः।।
14-18-35a
14-18-35b
इहैवाशुभकर्माणः कर्मभिर्निरयं गताः।
अवाग्गतिरियं कष्टा यत्र पच्यन्ति मानवाः।
तस्मात्सुदुर्लभो मोक्षो रक्ष्यश्चात्मा ततो भृशम्।।
14-18-36a
14-18-36b
14-18-36c
ऊर्ध्वं तु जन्तवो गत्वा येषु स्थानेष्ववस्थिताः।
कीर्त्यमानानि तानीह तत्त्वतः संनिबोध मे।।
14-18-37a
14-18-37b
तच्छ्रुत्वा नैष्ठिकीं बुद्धिं बुद्ध्येथाः कर्मनिश्चयम्।
तारारूपाणि सर्वाणि यत्रैतच्चन्द्रमण्डलम्।।
14-18-38a
14-18-38b
यत्र विभ्राजते लोके स्वभासा सूर्यमण्डलम्।
स्थानान्येतानि जानीहि जनानां पुण्यकर्मणाम्।।
14-18-39a
14-18-39b
कर्मक्षयाच्च ते सर्वे च्यवन्ते वै पुनः पुनः।
तत्रापि च विशेषोस्ति दिवि नीचोच्चमध्यमः।।
14-18-40a
14-18-40b
न च तत्रापि संतोषो दृष्ट्वा दीप्ततरां श्रियम्।
इत्येता गतयः सर्वाः पृथक्ते समुदीरिताः।।
14-18-41a
14-18-41b
उपपत्तिं तु वक्ष्यामि गर्भस्याहमतः परम्।
तथावत्तां निगदतः शृणुष्वावहितो द्विज।।
14-18-42a
14-18-42b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अनुगीतापर्वणि अष्टादशोऽध्यायः।। 18 ।।

[सम्पाद्यताम्]

14-18-10 दुष्टान्नं विषमान्नं विते क.ट.पाठः।। 14-18-12 अपक्वाशं गते काले स्वयं दोषप्रकोपनमिति क.ठ.थ.पाठः।। 14-18-19 गर्भसङ्क्रमणे गर्भस्थदेहप्रवेशे।। 14-18-21 श्लेष्मा प्रकुपित इति क.थ.पाठः।। 14-18-24 स्नोतोभिरिन्द्रियैः।।

आश्वमेधिकपर्व-017 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-019