महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-112
दिखावट
← आश्वमेधिकपर्व-111 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-112 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-113 → |
|
कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति चान्द्रायणविधिनिरूपणपूर्वकं तदाचरणफलकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 14-112-1x |
चक्रायुध नमस्तेऽस्तु देवेश गरुडध्वज। चान्द्रायणविधिं पुण्यमाख्याहि भगवन्मम।। | 14-112-1a 14-112-1b |
भगवानुवाच। | 14-112-2x |
शृणु पाण्डव तत्वेन सर्वपापप्रणाशनम्। पापिनो येन शुद्ध्यन्ति तत्ते वक्ष्यामि सर्वशः।। | 14-112-2a 14-112-2b |
ब्राह्मणः क्षत्रियो वाऽपि वैश्यो वा चरितव्रतः। यथावत्कर्तुकामो वै तस्यैवं प्रथमा क्रिया।। | 14-112-3a 14-112-3b |
शोधयेत्तु शरीरं स्वं पञ्चगव्येन यन्त्रितः। सशिरः कृष्णपक्षस्य ततः कुर्वीत वापनम्।। | 14-112-4a 14-112-4b |
शुक्लवासाः शुचिर्भूत्वा मौञ्जीं बध्नीत मेखलाम्। पालाशद्ण्डमादाय ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।। | 14-112-5a 14-112-5b |
कृतोपलासः पूर्वं तु शुक्लप्रतिपदि द्विजः। नदीसंगमतीर्थेषु शुचौ देशे गृहेऽपि वा। गोमयेनोपलिप्रेऽथ स्थण्डिलेऽग्निं निधापयन्।। | 14-112-6a 14-112-6b 14-112-6c |
आघारावाज्यभागौ च प्रणवं व्याहृतीस्तथा। वारुणं चैव पञ्चैव हुत्वा सर्वान्यथाक्रमम्।। | 14-112-7a 14-112-7b |
सत्याय विष्णवे चेति ब्रह्मर्षिभ्योऽथ ब्रह्मणे। विश्वेभ्यो हि च देवेभ्यः सप्रजापतये तथा।। | 14-112-8a 14-112-8b |
षडुक्त्वा जुहुयात्पश्चात्प्रायश्चित्ताहुतिं द्विजः। अतः समापयेदग्निं शान्तिं कृत्वाऽथ पौष्टिकिम्।। | 14-112-9a 14-112-9b |
प्रणम्य् चाग्निं सोमं च भस्म दिग्ध्वा यथाविधि। नदीं गत्वा विशुद्धात्मा सोमाय वरुणाय च। आदित्याय नमस्कृत्वा ततः स्नायात्समाहितः।। | 14-112-10a 14-112-10b 14-112-10c |
उत्तीर्योदकमाचम्य चासीनः पूर्वतोमुखः। प्राणायामं ततः कृत्वा पवित्रैरभिषेचनम्।। | 14-112-11a 14-112-11b |
आचान्तस्त्वमिवीक्षेत ऊर्ध्वबाहुर्दिवाकरम्। कृताञ्जलिपुटः स्थित्वा कुर्याच्चैव प्रदक्षिणम्।। | 14-112-12a 14-112-12b |
नारायणं वा रुद्रं वा ब्रह्मणमथवाऽपि च। वारुणं मन्त्रमूक्तं वा प्राग्भोजनमथापि वा।। | 14-112-13a 14-112-13b |
वीरघ्नमृषभफं वाऽपि तथा चाप्यघमर्षणम्। गायत्रीं मम देवीं वा सावित्रीं वा जपेत्ततः। शतं वाऽष्टशतं वाऽपि सहस्रमथवा परम्।। | 14-112-14a 14-112-14b 14-112-14c |
ततो मध्याह्नकाले वै पायसं यावकं हि वा। पाचयित्वा प्रयत्नेन प्रयतः सुसमाहितः।। | 14-112-15a 14-112-15b |
पात्रं तु सुसमादाय सौवर्णं राजतं तु वा। ताम्रं वा मृन्मयं वापि औदुंबरमथापि वा। | 14-112-16a 14-112-16b |
वृक्षाणां याज्ञियानं तु पर्णैरार्द्रैरकुत्सितैः। पुटकेन तु गुप्तेनि चरेद्भैक्षं समाहितः।। | 14-112-17a 14-112-17b |
ब्राह्मणानां गृहाणां तु सप्तानां नापरं व्रजेत्। गोदोहमात्रं तिष्ठित्तु वाग्यतः संयतेन्द्रियः।। | 14-112-18a 14-112-18b |
न हसेन्न च वीक्षेत नाभिभाषेत वा स्त्रियम्।। | 14-112-19a |
दृष्ट्वा मूत्रं पुरीषं वा चण्डालं वा रजस्वलाम्। पतितं च तथा श्वानमादित्यमवलोकयेत्।। | 14-112-20a 14-112-20b |
यो हि पादुकमारुह्य सर्वदा प्रचरेद्द्विजः। तं दृष्ट्वा पापकर्माणमादित्यमवलोकयेत्।। | 14-112-21a 14-112-21b |
ततस्त्वावसथं प्राप्तो भिक्षां निक्षिप्य भूतले। प्रक्षाल्य पादावाजान्वोर्हस्तावाकूर्परं पुनः। आचम्य वारिणा तेन वह्निं विप्रांश्च पूययेत्।। | 14-112-22a 14-112-22b 14-112-22c |
पञ्च सप्ताथवा कुर्याद्भागान्भैक्षस्य तस्य वै। तेषामन्यतमं पिण्डमादित्याय निवेदयेत्।। | 14-112-23a 14-112-23b |
ब्रह्मणे चाग्नये चैव सोमाय वरुणाय च। विश्वेभ्यश्चैव देवेभ्यो दद्यादन्नं यथाक्रमम्।। | 14-112-24a 14-112-24b |
अवशिष्टमथैकं तु वक्त्रमात्रं प्रकल्पयेत्।। | 14-112-25a |
अङ्गुल्यग्रे स्थितं पिण्डं गायत्र्या चाभिमन्त्रयेत्। अङ्गुलीभिस्त्रिभिः पिण्डं प्राश्नीयात्प्राङ्मुखःक शुचिः। | 14-112-26a 14-112-26b |
यथा च वर्धते सोमो ह्रसते च यथा पुनः। तथा पिण्डाश्च वर्धन्ते ह्रसन्ते च दिनेदिने।। | 14-112-27a 14-112-27b |
त्रिकालं स्नानमस्योक्तं द्विकालमथवा सकृत्। ब्रह्मचारी सदा वाऽपि न च वस्त्रं प्रपीडयेत्।। | 14-112-28a 14-112-28b |
स्थान न दिवसं तिष्ठेद्रात्रौ वीरासनं व्रजेत्। भवेत्स्थण्डिलशायी वाऽप्यथा वृक्षमूलिकः।। | 14-112-29a 14-112-29b |
वल्कलं यदि वा क्षौमं शाणं कार्पासकं तथा। आच्छादनं भवेत्तस्य वस्त्रार्थं पाण्डुनन्दन।। | 14-112-30a 14-112-30b |
एवं चान्द्रायणे पूर्णे मासस्यान्ते प्रयत्नवान्। ब्राह्मणान्भोजयेद्भक्त्या दद्याच्चैव च दक्षिणाम्।। | 14-112-31a 14-112-31b |
चान्द्रायणेन चीर्णेन यत्कृतं तेन दुष्कृतम्। तत्सर्वं तत्क्षणादेव भस्मीभवति काष्ठवत्।। | 14-112-32a 14-112-32b |
ब्रह्महत्या च गोहत्या सुवर्णस्तैन्यमेव च। भ्रूणहत्या सुरापानं गुरोर्दारव्यतिक्रमः।। | 14-112-33a 14-112-33b |
एवमन्यानि पापानि पातकीयानि यानि च। चान्द्रायणेन नश्यन्ति वायुना पांसवो यथा।। | 14-112-34a 14-112-34b |
अनिर्दशाया गोः क्षीरमौष्ठ्रमाविकमेव च। मृतसूतकयोश्चान्नं भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-112-35a 14-112-35b |
उपपातकिनश्चान्नं पतितान्नं तथैव च। शूद्रस्योच्छेषणं चैव भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-112-36a 14-112-36b |
आकाशस्थं तु हस्तस्थमधः स्रस्तं तथैव च। परहस्तस्थितं चैव भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-112-37a 14-112-37b |
अथाग्रेधिषोरन्नं दिधिषूपपतेस्तता। परिवेत्तुस्तथा चान्नं परिवित्तान्नमेव च।। | 14-112-38a 14-112-38b |
कुण्डान्नं गोलकान्नं च देवलान्नं तथैव च। तथा पुरोहितस्यान्नं भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-112-39a 14-112-39b |
सुराऽऽसवं विषं सर्पिर्लाक्षा लवणमेव च। तैलं चापि च विक्रीणन्द्विजश्चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-112-40a 14-112-40b |
एकोद्दिष्टं तु यो भुङ्क्ते जनमध्यगतोऽपि यः। भिन्नभाण्डेषु यो भुङ्क्ते द्विजश्चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-112-41a 14-112-41b |
यो भुङ्क्तेऽनुपनीतेन यो भुङ्क्ते च स्त्रिया सह। कन्यया सह यो भुङ्क्ते द्विजश्चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-112-42a 14-112-42b |
उच्छिष्टं स्थापयेद्विप्रो यो मोहाद्भोजनान्तरे। दद्याद्वा यदि वा मोहाद्विजश्चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-112-43a 14-112-43b |
तुम्बकोशातकं चैव पलाण्डुं गृञ्जनं तथा। छत्राकं लशुनं चैव भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-112-44a 14-112-44b |
द्विजः पर्युषितं चान्नं पक्वं परगृहागतम्। विपक्वं च तथा मांसं भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-112-45a 14-112-45b |
उदक्यया शुना वाऽपि चण्डालैर्वा द्विजोत्तमः। दृष्टमन्नं तु भुञ्जानो द्विजश्चान्द्रायणं चरेत्।। | 14-112-46a 14-112-46b |
****तत्पुरा विशुद्ध्यर्थमृषिभिश्चरितं व्रतम्। पावनं सर्वभूतानां पुण्यं पाण्डवचोदितम्।। | 14-112-47a 14-112-47b |
एतेन वसवो रुद्राश्चादित्याश्च दिवं गताः। एतदद्य परं गुह्यं पवित्रं पापनाशनम्।। | 14-112-48a 14-112-48b |
यथोक्तमेतद्यः कुर्याद्द्विजः पापप्रणाशनम्।। स दिवं याति पूतात्मा निर्मलादित्यसंनिभः।। | 14-112-49a 14-112-49b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः।। 112 |
आश्वमेधिकपर्व-111 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-113 |