महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-053
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कुरुपुराद्द्वारकां गच्छता कृष्णेन मध्येमार्गं दृष्टेनोदङ्केन सह संवादः।।1 ।। तथा कौरवादिविनाशे स्वोपेक्ष्याया हेतुत्वधिया स्वंप्रति शापदानोद्यतोदङ्कपरिसान्त्वनाय तंप्रति तत्वकथनोपक्रमः।। 2 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 14-53-1x |
तथा प्रयान्तं वार्ष्णेयं द्वारकां भरतर्षभाः। परिष्वज्य न्यवर्तन्त सानुयात्राः परंतपाः।। | 14-53-1a 14-53-1b |
पुनःपुनश्च वार्ष्णेयं पर्यष्वजत फल्गुनः। आचक्षुर्विषयाच्चैनं स ददर्श पुनःपुनः।। | 14-53-2a 14-53-2b |
कृच्छ्रेणैव तु तां पार्तो गोविन्दे विनिवेशिताम्। संजहार ततो दृष्टिं कृष्णश्चाप्यपराजितः।। | 14-53-3a 14-53-3b |
तस्य प्रयाणे यान्यासन्निमित्तानि महात्मनः। बहून्यद्भुतरूपाणि तानि मे गदतः शृणु।। | 14-53-4a 14-53-4b |
वायुर्वेगेन महता रथस्य पुरतो ववौ। कुर्वन्निःशर्करं मार्गं विरजस्कमकण्टकम्।। | 14-53-5a 14-53-5b |
ववर्ष वासवश्चैव तोयं शुचि सुगन्धि च। दिव्यानि चैव पुष्पाणि पुरतः शाङ्गधन्वनः।। | 14-53-6a 14-53-6b |
स प्रयातो महाबाहुः समेषु मरुधन्वसु। ददर्शाथ मुनिश्रेष्ठमुदङ्कममितौजसम्।। | 14-53-7a 14-53-7b |
`महर्षिं सिद्धतपसं सर्वलोकान्तविश्रुतम्।' स तं सम्पूज्य तेजस्वी मुनिं पृथुललोचनः। पूजितस्तेन च तदा पर्यपृच्छदनामयम्।। | 14-53-8a 14-53-8b 14-53-8c |
स पृष्टः कुशलं तेन सम्पूज्य मधुसूदनम्। उदङ्को ब्राह्मणश्रेष्ठस्ततः पप्रच्छ माधवम्।। | 14-53-9a 14-53-9b |
कच्चिच्छौरे त्वया गत्वा कुरुपाण्डवसद्म तत्। कृतं सौभ्रात्रमचलं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 14-53-10a 14-53-10b |
अपि सन्धाय तान्वीरानुपावृत्तोसि केशव। सम्बन्दिनःक स्वदयितान्सततं वृष्णिपुङ्गव।। | 14-53-11a 14-53-11b |
कच्चित्पाण्डुसुताः पञ्च धृतराष्ट्रस्य चात्मजाः। लोकेषु विहरिष्यन्ति त्वया सह परंतप।। | 14-53-12a 14-53-12b |
स्वराष्ट्रे ते च राजानः कच्चित्प्राप्स्यन्ति वै सुखम्। कौरवेषु प्रशान्तेषु त्वया नाथेन केशव।। | 14-53-13a 14-53-13b |
या मे सम्भावना तात त्वयि नित्यमवर्तत। अपि सा सफला तात कृता ते भरतान्प्रति।। | 14-53-14a 14-53-14b |
श्रीभगवानुवाच। | 14-53-15x |
कृतो यत्नो मया पूर्वं सौशाम्ये कौरवान्प्रति। नाशक्यन्त यदा साम्ये ते स्थापयितुमञ्जसा। | 14-53-15a 14-53-15b |
न दिष्टमप्यतिक्रान्तुं शक्यं बुद्ध्या बलेन वा। महर्षे विदितं भूयः सर्वमेतत्तवानघ।। | 14-53-16a 14-53-16b |
तेऽत्यक्रामन्मतिं मह्यं भीष्मस्य विदुरस्य च। ततो यमक्षयं जग्मुः समासाद्येतरेतरम्।। | 14-53-17a 14-53-17b |
पञ्चैव पाण्डवाः शिष्टा इतमित्रा हतात्मजाः। धार्तराष्ट्राश्च निहताः सर्वे ससुतबान्धवाः।। | 14-53-18a 14-53-18b |
इत्युक्तवचने कृष्णे भृशं क्रोधसमन्वितः। उदङ्क इत्युवाचैनं रोषादुत्फुल्ललोचनः।। | 14-53-19a 14-53-19b |
यस्माच्छक्तेन ते कृष्ण न त्राताः कुरुपुङ्गवाः। सम्बन्धिनः प्रियास्तस्माच्छप्स्येऽहं त्वामसंशयम्।। | 14-53-20a 14-53-20b |
न च ते प्रसभं यस्मात्ते निगृह्य निवारिताः। तस्मान्मन्युपरीतस्त्वां शप्स्यामि मधुसूदन।। | 14-53-21a 14-53-21b |
त्वया शक्तेन हि सता मिथ्याचारेणि माधव। ते परीताः कुरुश्रेष्ठा नश्यन्तः स्म ह्युपेक्षिताः।। | 14-53-22a 14-53-22b |
वासुदेव उवाच। | 14-53-23x |
शृणु मे विस्तरेणेदं यद्वक्ष्ये भृगुनन्दन। गृहाणानुनयं चापि तपस्वी ह्यसि भार्गवम्।। | 14-53-23a 14-53-23b |
श्रुत्वा च मे तदध्यात्मं मुञ्चेथाः शापमद्य वै। न च मां तपसाऽल्पेन शक्तोऽभिभवितुं पुमान्।। | 14-53-24a 14-53-24b |
न च ते तपसो नाशमिच्छामि तपतां वर। तपस्ते सुमहद्दीप्तं गुरवश्चापि तोषिताः।। | 14-53-25a 14-53-25b |
कौमारं ब्रह्मचर्यं ते जानामि द्विजसत्तम। दुःखार्जितस्य तपसस्तस्मान्नेच्चामि तेऽव्ययम्।। | 14-53-26a 14-53-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि त्रिपञ्चाशोऽध्यायः।। 53 ।। |
14-53-15 सौशाम्ये सौरस्ये।।
14-53-22 परीताः परितः प्राप्ताः।।
14-53-23 अनुनयं शिक्षाम्।।
14-53-24 मे मत्तः।।
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