महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-105
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति दशधा कपिलाविभागकथनपूर्वकं तद्दानप्रशंसनम्।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 14-105-1x |
दानपुण्यफलं श्रुत्वा तपःपुण्यफलानि च। धर्मपुत्रः प्रहृष्टात्मा केशवं पुनरब्रवीत्।। | 14-105-1a 14-105-1b |
या चैषा कपिला देव पूर्वमुत्पादिता विभो। होमधेनुः सदा पुण्या चतुर्वक्त्रेण माधव।। | 14-105-2a 14-105-2b |
सा कथं ब्राह्मणेभ्यो हि देया कस्मिन्दिनेऽपि वा। कीदृशाय च विप्राय दातव्या पुण्यलक्षणा।। | 14-105-3a 14-105-3b |
कथिता कपिला प्रोक्ता स्वयमेव स्वयंभुवा। कैर्वा देयाश्च ता देव श्रोतुमिच्छामि तत्वतः।। | 14-105-4a 14-105-4b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-105-5x |
एवमुक्तो हृषीकेशो धर्मपुत्रेण संसदि। अब्रवीत्कपिलासङ्क्यां तासां माहात्म्यमेव च।। | 14-105-5a 14-105-5b |
शृणु पाण्डव तत्वेन पवित्रं पावनं परम्। यच्छ्रुत्वा पापकर्मा पि नरः पापात्प्रमुच्यते।। | 14-105-6a 14-105-6b |
अग्निमद्योद्भवां दिव्यामग्निज्वालासमप्रभाम्। अग्निज्वालोज्ज्वलच्छृङ्गीं प्रदीप्ताङ्गारलोचनाम्।। | 14-105-7a 14-105-7b |
अग्निपुच्छामग्निखुरामग्निरोमप्रभान्विताम्। तामग्नेयीमग्निजिह्वामग्निग्रीवां ज्वलत्प्रभाम्।। | 14-105-8a 14-105-8b |
भुञ्जते कपिलां ये तु शूद्रा लोभेन मोहिताः। पतितांस्तान्विजानीयाच्चण्डालसदृशा हि ते।। | 14-105-9a 14-105-9b |
न तेषां ब्राह्ममः कश्चिद्गृहे कुर्यात्प्रतिग्रहम्। दूराच्च परिहर्तव्या महापातकिनोपि ते।। | 14-105-10a 14-105-10b |
सार्वकालं हि ते सर्वैर्वर्जिताः पितृदैवतैः। ते सदा ह्यप्रतिग्राह्या ह्यसंभाष्याश्च पापिनः।। | 14-105-11a 14-105-11b |
पिबन्ति कपिलां यावत्तावत्तेषां पितामहाः। अमेध्यमुपभुञ्जन्ति भूम्यां वै श्वसृगालवत्।। | 14-105-12a 14-105-12b |
कपिलाया दधि क्षीरं घृतं तक्रमथापि वा। ये शूद्रा उपभुञ्जन्ति तेषां गतिमिमां शृणु।। | 14-105-13a 14-105-13b |
कपिलोपजीवी शूद्रस्तु मृतो गच्छति रौरवम्। क्लिश्यते रौरवे घोरे वर्षकोटिशतं वसन्।। | 14-105-14a 14-105-14b |
ततश्चापि च्युतः कालाच्छ्वानयोनिं स गच्छति। श्वयोन्याश्च परिभ्रष्टो विष्ठायां जायते क्रिमिः।। | 14-105-15a 14-105-15b |
विष्ठाकूपेषु पापिष्ठो दुर्गन्धेषु सहस्रशः। तत्रतत्रोपजायेत नोत्तारं तत्रथ विन्दति।। | 14-105-16a 14-105-16b |
ब्राह्मणश्चैव यस्तेषां गृहे कुर्यात्प्रतिग्रहम्। ततः प्रभृति तस्यापि पितरः स्युरमेध्यपाः।। | 14-105-17a 14-105-17b |
न तेन सार्धं सम्भाषेन्न चाप्येकासनं व्रजेत्। स नित्यं वर्जनीयो हि दूरात्तु ब्राह्मणाधमः।। | 14-105-18a 14-105-18b |
यस्तेन सह सम्भाषेदेकशय्यां व्रजेत् वा। प्राजापत्यं चरेत्कृच्छ्रं स च तेन विसुद्ध्यति।। | 14-105-19a 14-105-19b |
कपिलोपजीविनः शूद्राद्यः करोति प्रतिग्रहम्। प्रायश्चित्तं भवेत्तस्य विप्रस्यैतन्न संशयः।। | 14-105-20a 14-105-20b |
ब्रह्मकूर्चं प्रकुर्वीति चान्द्रायणमथापि वा। मुच्यते किल्बिषात्तस्मादेतेन ब्राह्मणो हि सः।। | 14-105-21a 14-105-21b |
कपिला ह्यग्निहोत्रार्थे विप्रार्थे वा स्वयंभुवा। सर्वं तेजः समुद्धृत्य निर्मिता ब्रह्मणा पुरा।। | 14-105-22a 14-105-22b |
पवित्रं च पवित्राणां मङ्गलानां च मङ्गलम्। पुण्यानां परमं पुण्यं कपिला पाण्डुनन्दन।। | 14-105-23a 14-105-23b |
तपसा तप एवाग्र्यं व्रातनामुत्तमं व्रतम्। दानानां परमं दानं निदानं ह्येतदक्षयम्।। | 14-105-24a 14-105-24b |
पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यान्यायतनानि च। पवित्राणि च रम्याणि सर्वलोकेषु पाण्डव।। | 14-105-25a 14-105-25b |
एभ्यस्तेजः समुद्धृत्य ब्रह्मणा लोककर्तृणा।। लोकनिस्तरणायैव निर्मिताः कपिलाः स्वयम्।। | 14-105-26a 14-105-26b |
सर्वतेजोमयी ह्येषां कपिला पाण्डुनन्दन। सदाऽमृतमयी मेध्या शुचिः पावनमुत्तमम्।। | 14-105-27a 14-105-27b |
क्षीरेण कपिलायास्तु दध्ना वा सघृतेन वा। होतव्यान्यग्निहोत्राणि सायं प्रातर्द्विजातिभिः।। | 14-105-28a 14-105-28b |
कपिलाया घृतेनापि दध्ना क्षीरेण वा पुनः। जुह्वते योऽग्निहोत्राणि ब्राह्मणा विधिवत्प्रभो।। | 14-105-29a 14-105-29b |
पूजयन्त्यतिथींश्चैव परां भक्तिमुपागताः। शूद्रान्नाद्विरता नित्यं डंभानृतविवर्जिताः।। | 14-105-30a 14-105-30b |
ते यान्त्यादित्यसङ्काशैर्विमानैर्द्विजसत्तमाः। सूर्यमण्डलमध्येन ब्रह्मलोकमनुत्तमम्।। | 14-105-31a 14-105-31b |
ब्रह्मणो भवने दिव्ये कामगाः कामरूपिणः। ब्रह्मणा पूज्यमानास्तु मोदन्ते कल्पमक्षयम्।। | 14-105-32a 14-105-32b |
एवं हि कपिला राजन्पुण्या मन्त्रामृतारणिः। आदावेवाग्निमध्ये तु मैत्रेयी ब्रह्मनिर्मिता।। | 14-105-33a 14-105-33b |
शृङ्गाग्रे कपिलायास्तु सर्वतीर्थानि पाण्डव। ब्रह्मणो हि नियोगेन निवसन्ति दिनेदिने।। | 14-105-34a 14-105-34b |
प्रातरुत्थाय यो मर्त्यः कपिलाशृङ्गमस्तकात्। यश्च्युतामंबुधारां वै शिरसा प्रयतः शुचिः।। | 14-105-35a 14-105-35b |
स तेन पुण्यतीर्थेन सहसा हतकिल्विषः। जन्मत्रयकृतं पापं प्रदहत्यग्निवतृणम्।। | 14-105-36a 14-105-36b |
मूत्रेण कपिलायास्तु यश्च प्राणानुपस्पृशेत्।। स्नानेन तेन पुण्येन नष्टपापः स मानवः। त्रिंशद्वर्षकृतात्पापान्मुच्यते नात्र संशयः।। | 14-105-37a 14-105-37b 14-105-37c |
प्रातरुत्थाय यो भक्तया प्रयच्छेत्तृणमुष्टिकम्। तस्य नश्यति तत्पापं त्रिंशद्रात्रकृतं नृप।। | 14-105-38a 14-105-38b |
प्रातरूत्थाय यद्भक्त्या कुर्याद्यस्मात्प्रदक्षिणम्। प्रदक्षिणीकृता तेन पृथिवी नात्र संशयः।। | 14-105-39a 14-105-39c |
प्रदक्षिणेन चैकेन श्रद्धायुक्तेन पाण्डव। दशरात्रकृतं पापं तस्य तन्नश्यति ध्रुवम्।। | 14-105-40a 14-105-40b |
कपिलापञ्चगव्येन यः स्नायात्तु शुचिर्नरः। स गङ्गाद्येषु तीर्थेषु स्नातो भवति पाण्डव।। | 14-105-41a 14-105-41b |
तेन स्नानेन तस्यापि श्रद्दायुक्तस्य पार्थिव। दशरात्रकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।। | 14-105-42a 14-105-42b |
दृष्ट्वा तु कपिलां भक्त्या श्रुत्वा हुङ्कारनिस्वनम्। व्यपोहति नरः पापमहोरात्रकृतं नृप।। | 14-105-43a 14-105-43b |
यत्र वा तत्र वा चाङ्गे कपिलां यः स्पृशेच्छुचिः। संवत्सरकृतं पापं विनाशयति पाण्डव।। | 14-105-44a 14-105-44b |
गोसहस्रं तु यो दद्यादेकां च कपिलां नरः। समं तस्य फलं प्राह ब्रह्मा लोकपितामहः।। | 14-105-45a 14-105-45b |
यस्त्वेवं कपिलां हन्यान्नरः कश्चित्प्रमादतः। गोसहस्रं हतं तेन भवेन्नात्र विचारणा।। | 14-105-46a 14-105-46b |
यश्चैकां कपिलां दद्याच्छ्रोत्रियायाहिताग्नये। गवां शतसहस्रं तु दत्तं भवति पाण्डव।। | 14-105-47a 14-105-47b |
दश वै कपिलाः प्रोक्ताः स्वयमेव स्वयंभुवा। यो दद्याच्छ्रोत्रियेभ्यो वै स्वर्गं गच्छति तच्छृणु।। | 14-105-48a 14-105-48b |
प्रथमा स्वर्णकपिला द्वितीया गौरपिङ्गला। तृतीया रक्तपिङ्गाक्षी चतुर्थीं गलपिङ्गला।। | 14-105-49a 14-105-49b |
पञ्चमी बभ्रुवर्णाभा षष्ठी च श्वेतपिङ्गला। सप्तमी रङ्गपिङ्गाक्षी त्वष्टमी खुरपिङ्गला।। | 14-105-50a 14-105-50b |
नवमी पाटला ज्ञेया दशमी पुच्छपिङ्गला। दशैताः कपिलाः प्रोक्तास्तारयन्ति नरान्सदा।। | 14-105-51a 14-105-51b |
मङ्गल्याश्च पवित्राश्च सर्वपापप्रणाशनाः। एवमेव ह्यनड्वाहो दश प्रोक्ता नरेश्वर।। | 14-105-52a 14-105-52b |
ब्राह्मणो वाहयेत्तांस्तु नान्यो वर्णः कथंचन। न वाहयेच्च कपिलां क्षेत्रे वाऽध्वनि वा द्विजः।। | 14-105-53a 14-105-53b |
वाहयेद्धुङ्कृतेनैव शाखया वा सपत्रया। न दण्डेन न वा यष्ट्या न पाशेन न वा पुनः।। | 14-105-54a 14-105-54b |
न क्षुत्तृष्णाश्रमश्रान्तान्वाहयेद्विकलेन्द्रियान्। अतृप्तेषु न भुञ्जीयात्पिबेत्पीतेषु चोदकम्।। | 14-105-55a 14-105-55b |
शुश्रूषोर्मातरश्चैताः पितरस्ते प्रकीर्तिताः। अह्नां पूर्वत्र भागे च धुर्याणां वाहनं स्मृतम्।। | 14-105-56a 14-105-56b |
विश्रामेन्मध्यमे भागे भागे चान्ते यथासुखम्। यत्र च त्वरया कृत्यं संशयो यत्र वाऽध्वनि। | 14-105-57a 14-105-57b |
वाहयेत्तत्र धुर्यांस्तु न स पापेन लिप्यते।। भ्रूणहत्यासमं पापं तस्य स्यात्पाण्डुनन्दन। | 14-105-58a 14-105-58b |
अन्यथा वाहयन्राजन्निरयं याति रौरवम्।। रुधिरं पातयेत्तेषां यस्तु मोहान्नराधिप। | 14-105-59a 14-105-59b |
तेन पापेन पापात्मा नरकं यात्यसंशयम्।। नरकेषु च सर्वेषु समाः स्थित्वा शतंशतम्। | 14-105-60a 14-105-60b |
इह मानुष्यके लोके बलीवर्दो भविष्यति।। तस्मात्तु मुक्तिमन्विच्छन्दद्यात्तु कपिलां नरः।। | 14-105-61a 14-105-61b |
कपिलां वाहयेद्यस्तु वृषलो लोभमोहितः। तेन देवास्त्रयस्त्रिंशत्पितरश्चापि वाहिताः।। | 14-105-62a 14-105-62b |
स देवैः पितृभिर्नित्यं वध्यमानस्तु दुर्मतिः। नरकान्नरकं घोरं गच्छेदाप्रलयं नृप।। | 14-105-63a 14-105-63b |
ब्रह्मा रुद्रस्तथाऽग्निश्च कपिलानां गतिं गताः। तस्मात्ते न निहन्तव्याः पूज्याश्चैव न संशयः। निःश्वसन्ति यदा श्रान्तास्तदा हन्युस्च तत्कुलं।। | 14-105-64a 14-105-64b 14-105-64c |
यावन्ति तेषां रोमाणि तावद्वर्षशतं नृप। नरकेषूपपच्यन्ते तत्र तद्वाहका नराः।। | 14-105-65a 14-105-65b |
कपिला सर्वयज्ञेषु दक्षिणार्थं विधीयते। तस्मात्तद्दक्षिणा देया यज्ञेष्वेव द्विजातिभिः।। | 14-105-66a 14-105-66b |
होमार्तं चाग्निहोत्रस्य यां प्रयच्छेत्प्रयत्नतः। श्रोत्रियाय दरिद्राय श्रान्तायामिततेजसे। तेन दानेन पूतात्मा मम लोके महीयते।। | 14-105-67a 14-105-67b 14-105-67c |
यावन्ति चैव रोमाणि कपिलाङ्गे युधिष्ठिर। तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते।। | 14-105-68a 14-105-68b |
सुवर्णखुरशृङ्गीं च कपिलां यः प्रयच्छति। विषुवे चायने चापि सोऽश्वमेधफलं लभेत्। तेनाश्वमेधतुल्येन मम लोकं स गच्छति।। | 14-105-69a 14-105-69b 14-105-69c |
स्वर्णशृङ्गीं रूप्यखुरां सवत्सां कांस्यदोहिनीम्। वस्त्रैरलङ्कृतां पुष्टां गन्धैर्माल्यैश्च शोभिताम्।। | 14-105-70a 14-105-70b |
पवित्रं हि पवित्राणां सुरव्णमिति मे मतिः। तस्मात्सुवर्णाभरणा दातव्या साऽग्निहोत्रिणे।। | 14-105-71a 14-105-71b |
एवं दत्त्वा तु राजेन्द्र सप्तपूर्वान्परानपि। तारयिष्यति राजेन्द्र नात्र कार्या विचारणा।। | 14-105-72a 14-105-72b |
अग्निष्टोमसहस्रस्य वाजपेयं च तत्समम्। वाजपेयसहस्रस्य अश्वमेधं च तत्समम्। अश्वमेधसहस्रस्य राजसूयं च तत्समम्।। | 14-105-73a 14-105-73b 14-105-73c |
कपिलानां सहस्रेण विदिदत्तेन पाण्डव। राजसूयफलं प्राप्य मम लोके महीयते। न तस्य पुनरावृत्तिर्विद्यते कुरुपुङ्गव।। | 14-105-74a 14-105-74b 14-105-74c |
प्रयच्छते यः कपिलां सवत्सां कांस्यदोहिनीम्। सुवर्णकुरशृङ्गाङ्गीं सर्वालङ्कारशोभिताम्।। | 14-105-75a 14-105-75b |
दत्ता हि गौस्तारयते मनुष्यम्।। | 14-105-76f |
पुत्रांश्च पौत्रांश्च कुलं च सर्व- मासप्तमं तारयते यथावत्। यावन्मनुष्यान्पृथिवी बिभर्ति तावत्प्रदातारमृतं परत्र।। | 14-105-77a 14-105-77b 14-105-77c 14-105-77d |
यथौषधं मन्त्रकृतं नरस्य प्रयुक्तमात्रं विनिहन्ति रोगान्। तथैव दत्ता कपिला सुपात्रे पापं नरस्याशु निहन्ति सर्वम्।। | 14-105-78a 14-105-78b 14-105-78c 14-105-78d |
यथैव दृष्ट्वा भुजगाः सुपर्णं नश्यन्ति दूराद्विवशा भयार्ताः। तथैव दृष्ट्वा कपिलाप्रदाना- न्नस्यन्ति पापानि नरस्य शीघ्रम्।। | 14-105-79a 14-105-79b 14-105-78c 14-105-78d |
यथा त्वचं वै भुजगो विहाय पुनर्नवं रूपमुपैति पुण्यम्। तथैव मुक्तः पुरुषः स्वपापै- र्विरज्यते वै कपिलाप्रदानात्।। | 14-105-80a 14-105-80b 14-105-80c 14-105-80d |
यथाऽन्धकारं भवने विलग्नं दीप्तो हि निर्यातयति प्रदीपः। तथा नरः पापमपि प्रलीनं निष्क्रामयेद्वै कपिलाप्रदानात्।। | 14-105-81a 14-105-81b 14-105-81c 14-105-81d |
यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्या वत्सान्वितायाश्च शरीरजानि। तावत्प्रदाता युगवर्षकोटिं स ब्रह्मलोके रमते मनुष्यः।। | 14-105-82a 14-105-82b 14-105-82c 14-105-82d |
यस्याहिताग्नेरतिथिप्रियस्य शूद्रान्नदूरस्य जितेन्द्रियस्य। सत्यव्रतस्याध्ययनान्वितस्य दत्ता हि गौस्तारयते परत्र।। | 14-105-83a 14-105-83b 14-105-83c 14-105-83d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः।। |
आश्वमेधिकपर्व-104 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-106 |