महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-005
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अङ्गीरसः पुत्रेण संवर्तेनाकारणवैरिणः स्वाग्रजन्मनो बृहस्पतेरुपद्रवासहनेन सर्वस्वत्यागपूर्वकमरण्यप्रवेशः।। 1 ।। इन्द्रेण स्वातिशायिनि मरुत्ते राजनि स्पर्धया बृहस्पतिसाचिव्येन ततोप्यतिशयलिप्सया मरुत्तपुरोहितस्य बृहस्पतेर्भेदोपायेन वशीकरणम्।। 2 ।। बृहस्पतिनेन्द्रंप्रति मरुत्तस्य स्वेनायाजनप्रतिज्ञानम्।। 3 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 14-5-1x |
पथंवीर्यः समभवत्स राजा ददतांवरः। कथं च जातरूपेण समयुज्यत वै नृपः।। | 14-5-1a 14-5-1b |
क्व च तत्सांप्रतं द्रव्यं भगवन्नवतिष्ठते। कथं च शक्यमस्माभिस्तदवाप्नुं तचपोधन।। | 14-5-2a 14-5-2b |
व्यास उवाच। | 14-5-3x |
असुराश्चैव देवाश्च दक्षस्यासन्प्रजापतेः। अपत्यं बहुलं तात तेऽस्पर्धन्त परस्परम्।। | 14-5-3a 14-5-3b |
तथैवाङ्गिरसः पुत्रौ पितृतुल्यौ बभूवतुः। बृहस्पतिर्बृहत्तेजाः संवर्तश्च तपोधनः।। | 14-5-4a 14-5-4b |
तावति स्पर्धिनौ राजन्पृथगास्तां परस्परम्। बृहस्पतिः स संवर्तं बाधते स्म पुनःपुनः।। | 14-5-5a 14-5-5b |
स बाध्यमानः सततं भ्रात्रा ज्येष्ठेन भारत। अर्थानुत्सृज्य दिग्वासा वने वासमरोचयत्।। | 14-5-6a 14-5-6b |
वासवोऽप्यसुरान्सर्वान्विजित्य च निपात्य च। इन्द्रत्वं प्राप्य लोकेषु ततो वव्रे पुरोहितम्।। | 14-5-7a 14-5-7b |
पुत्रमङ्गिरसो ज्येष्ठं विप्रज्येष्ठं बृहस्पतिम्। याज्यस्त्वङ्गिरसः पूर्वमासीद्राजा करंधमः।। | 14-5-8a 14-5-8b |
वीर्येणाप्रतिमो लोके वृत्तेन च बलेन च। शतक्रतुरिवौजस्वी धर्मात्मा संशितव्रतः। | 14-5-9a 14-5-9b |
वाहनं यस्य योधाश्च मित्राणि विविधानि च। शयनानि च मुख्यानि महार्हाणि च सर्वशः।। | 14-5-10a 14-5-10b |
ध्यानादेवाभवद्राजन्मुखवातेन सर्वशः। स गुणैः पार्थिवान्सर्वान्वशे चक्रे नराधिपः।। | 14-5-11a 14-5-11b |
संजीव्य कालमिष्टं च सशरीरो दिवं गतः। बभूव तस्य पुत्रस्तु ययातिरिव धर्मवित्।। | 14-5-12a 14-5-12b |
अविक्षिन्नाम शत्रुंजित्स वशे कृतवान्महीम्। विक्रमेण गुणैश्चैव पितेवासीत्स पार्थिवः।। | 14-5-13a 14-5-13b |
तस्य वासवतुल्योऽभून्मरुत्तो नाम वीर्यवान्। पुत्रस्तमनुरक्ताऽभूत्पृथिवी सागराम्बरा।। | 14-5-14a 14-5-14b |
स्पर्धते स स्म सततं देवराजेन नित्यदा। वासवोऽपि मरुत्तेनि स्पर्धते पाण्डुनन्दन।। | 14-5-15a 14-5-15b |
शुचिः स गुणवानासीन्मरुत्तः पृथिवीपतिः। यतमानोपि यं शक्रो न विशेषयति स्म ह।। | 14-5-16a 14-5-16b |
सोऽशक्नुवन्विशेषाय समाहूय बृहस्पतिम्। उवाचेदं वचो देवैः सहितो हरिवाहनः।। | 14-5-17a 14-5-17b |
बृहस्पते मरुत्तस्य मा स्म कार्षीः कथञ्चन। दैवं कर्माथ पित्र्यं वा कर्तासि मम चेत्प्रियम्।। | 14-5-18a 14-5-18b |
अहं हि त्रिषु लोकेषु सुराणां च बृहस्पते। इन्द्रत्वं प्राप्तवानेको मरुत्तस्तु महीपतिः।। | 14-5-19a 14-5-19b |
कथं ह्यमर्त्यं ब्रह्मंस्त्वं याजयित्वा सुराधिपम्। याजयेर्मृत्युसंयुक्तं मरुत्तमविशङ्कया।। | 14-5-20a 14-5-20b |
मां वा वृणीष्व भद्रं ते मरुत्तं वा महीपतिम्। परित्यज्य मरुत्तं वा यथाजोषं भजस्व माम्।। | 14-5-21a 14-5-21b |
एवमुक्तः स करकव्य देवराज्ञा बृहस्पतिः। मुहूर्तमिव सञ्चिन्त्य देवराजानमब्रवीत्।। | 14-5-22a 14-5-22b |
त्वं भूतानामधिपतिस्त्वयि लोकाः प्रतिष्ठिताः। नमुचेर्विश्वरूपस्य निहन्ता त्वं बलस्य च।। | 14-5-23a 14-5-23b |
त्वमाजहर्थ् देवानामेको वीरश्रियं पराम्। त्वं बिभर्षि भुवं द्यां च सदैव बलसूदन।। | 14-5-24a 14-5-24b |
परोहित्यं कथं कृत्वा तव देवगणेश्वर। याजयेयमहं मर्त्यं मरुत्तं पाकशासन।। | 14-5-25a 14-5-25b |
समाश्वसिहि देवेन्द्र नाहं मर्त्यस्य कर्हिचित्। ग्रहीष्यामि स्रुवं यज्ञे शृणु चेदं वचो मम।। | 14-5-26a 14-5-26b |
हिरण्यरेता नोष्णः स्यात्परिवर्तेत मेदिनी। भासं तु न रविः कुर्यान्न तु सत्यं चलेन्मयि।। | 14-5-27a 14-5-27b |
व्यास उवाच। | 14-5-28x |
बृहस्पतिवचःक श्रुत्वा शक्रो विगतमत्सरः। प्रशस्यैनं विवेशाथ स्वमेव भवनं तदा।। | 14-5-28a 14-5-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अश्वमेधपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः।। 5 ।। |
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