महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-104
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति पञ्चमहायज्ञनिरूपणं, स्नानविधिनिरूपणं, वैष्णवलक्षणाभिधानं स्वपूजायोग्ययोग्यपुष्पविवेचनं च।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 7-104-1x |
विप्रयोगे शरीरस्य सेन्द्रियस्य विशेषतः। अन्तरा वर्तमानस्य गतिः प्राणस्य कीदृशी।। | 7-104-1a 7-104-1b |
भगवानुवाच। | 7-104-2x |
शुभाशुभकृतं सर्वं प्राप्नोतीह फलं नरः। न तु सर्वस्य भूतस्य पञ्चत्वं विद्यते नृप।। | 7-104-2a 7-104-2b |
पञ्चत्वं पाण्डवश्रेष्ठ भूरिभूतिकरं नृणाम्। तेषां पञ्च महायज्ञान्ये कुर्वन्ति द्विजोत्तम।। | 7-104-3a 7-104-3b |
पञ्चत्वं पञ्चभिर्भूतैर्वियोगं संप्रचक्षते। न जायते न म्रियते पुरुषः शाश्वतः सदा।। | 7-104-4a 7-104-4b |
प्रायेण मरणं नाम पापिनामेव पाण्डव। येषां तु न गतिः पुण्या तेषां मरणमुच्यते।। | 7-104-5a 7-104-5b |
प्रायेणाकृतकृत्यस्तु मृत्योरुद्विजते जनः। कृतकृत्याः प्रतीक्षन्ते मृत्युं प्रियमिवातिथिम्।। | 7-104-6a 7-104-6b |
युधिष्ठिर उवाच। | 7-104-7x |
पञ्च यज्ञाः कथं देव क्रियन्तेऽत्र द्विजातिभिः। तेषां नाम च देवेश वक्तुमर्हस्यशेषतः।। | 7-104-7a 7-104-7b |
श्रीभगवानुवाच। | 7-104-8x |
शृणु पञ्च महायज्ञान्कीर्त्यमानान्युधिष्ठिर। यैरेव ब्रह्मसालोक्यं लभ्यते गृहमेधिना।। | 7-104-8a 7-104-8b |
ऋभुजज्ञं ब्रह्मयज्ञं भूतयज्ञं च पाण्डव। नृयज्ञं पितृयज्ञं च पञ्च यज्ञान्प्रचक्षते।। | 7-104-9a 7-104-9b |
तर्पणं ऋभुयज्ञः स्यात्स्वाध्यायो ब्रह्मयज्ञकः। भूतयज्ञो बलिर्यज्ञो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्। पितॄनुद्दिश्य यत्कर्म पितृयज्ञः प्रकीर्तितः।। | 7-104-10a 7-104-10b 7-104-10c |
हुतं चाप्यहुतं चैव तथा प्रहुतमेव च। प्राशितं बलिदानं च पाकयज्ञान्प्रचक्षते।। | 7-104-11a 7-104-11b |
वैश्वदेवादयो होमा हुतमित्युच्यते बुधैः। अहुतं च भवेद्दत्तं प्रहुतं ब्राह्मणाशितम्।। | 7-104-12a 7-104-12b |
प्राणाग्निहोत्रहोमं च प्राशितं विधिवद्विदुः। बलिकर्म च राजेन्द्र पाकयज्ञाः प्रकीर्तिताः।। | 7-104-13a 7-104-13b |
केचित्पञ्च महायज्ञान्पाकयज्ञान्प्रचक्षते। अपरे ब्रह्मयज्ञादीन्महायज्ञविदो विदुः।। | 7-104-14a 7-104-14b |
सर्व एते महायज्ञाः सर्वथा परिकीर्तिताः। बुभुक्षितान्ब्राह्मणांस्तु यथाशक्ति न हापयेत्।। | 7-104-15a 7-104-15b |
अहन्यहनि ये त्वेतानकृत्वा भुञ्जते स्वयम्। केवलं मलमश्नन्ति ते नार न च संशयः।। | 7-104-16a 7-104-16b |
तस्मात्स्नात्वा द्विजो विद्वान्कुर्यादेतान्दिनेदिने। अतोऽन्यथा तु भुञ्जन्वै प्रायश्चित्ती भवेद्द्विजः।। | 7-104-17a 7-104-17b |
युधिष्टिर उवाच। | 7-104-18x |
देवदेवेशक दैत्यघ्न त्वद्भक्तस्य जनार्दन। वक्तुमर्हसि देवेश स्नानस्य च विधिं मम।। | 7-104-18a 7-104-18b |
भगवानुवाच। | 7-104-19x |
शृणु पाण्डव तत्सर्व पवित्रं पापनाशनम्। स्नात्वा येन विधानेन मुच्यन्ते किल्बिषाद्द्विजाः।। | 7-104-19a 7-104-19b |
मृदं च गोमयं चैव तिलं दर्भांस्तथैव च। पुष्पाण्यपि यथान्यायमादाय तु जलं व्रजेत्।। | 7-104-20a 7-104-20b |
नद्यां स्नात्वा न च स्नायदन्यत्र द्विजसत्तम। सति प्रभूते पयसि नाल्पे स्नायात्कदाचन।। | 7-104-21a 7-104-21b |
गत्वोदकसमीपं तु शुचौ देशे मनोरमे। ततो मृद्गोमयादीनि तत्र विप्रो विनिक्षिपेत्।। | 7-104-22a 7-104-22b |
बहिः प्रक्षाल्य पादौ च द्विराचम्य प्रयत्नतः। प्रदक्षिणं समावृत्य नमस्कुर्यात्तु तज्जलम्।। | 7-104-23a 7-104-23b |
न च प्रक्षालयेद्विद्वांस्तीर्थमद्भिः कदाचन। न च पादेन वा हन्याद्धस्तेनान्येन तज्जलम्।। | 7-104-24a 7-104-24b |
सर्वदेवमया ह्यापो मन्मयाः पाण्डुनन्दन। तस्मात्तास्तु न हन्तव्यास्त्वद्भिः प्रक्षालयेत्स्थलं।। | 7-104-25a 7-104-25b |
केवलं प्रथमं मज्जेन्नाङ्गानि विमृशेद्बुधः। तत्तु तीर्थं समासाद्य कुर्यादाचमनं पुनः।। | 7-104-26a 7-104-26b |
गोकर्णाकृतिवत्कृत्वा करं त्रिः प्रपिबेज्जलम्। द्विस्तत्परिमृजेद्वक्त्रं पादावभ्युक्ष्य चात्मनः। शीर्षण्यांस्तु ततः प्राणान्सकृदेवतु संस्पृशेन।। | 7-104-27a 7-104-27b 7-104-27c |
बाहू द्वौ च ततः स्पृष्ट्वा हृदयं नाभिमेव च। प्रत्यङ्गमुदकं स्पृष्ट्वा मूर्धानं तु पुनः स्पृशेत्।। | 7-104-28a 7-104-28b |
आपः पुनन्त्वित्युक्त्वा च पुनराचमनं चरेत्। सोङ्कारव्याहृतीर्वाऽपि सदसस्पतिमित्यृचम्।। | 7-104-29a 7-104-29b |
आचम्य मृत्तिकाः पश्चात्त्रिधा कृत्वा समालभेत्। ऋचेदं विष्णुरित्यङ्गमुत्तमाधममध्यमम्। आलभ्य वारुणैः सूक्तैर्नमस्कृत्य जलं ततः।। | 7-104-30a 7-104-30b 7-104-30c |
स्रवन्ती चेत्प्रतिस्रोतः प्रत्यर्कं चान्यवारिषु। मज्जेदोमित्युदाहृत्य न च विक्षोभयेज्जलम्।। | 7-104-31a 7-104-31b |
गोमयं च त्रिधा कृत्वा जले पूर्वं समालभेत्। सव्याहृतीकां सप्रणवां गायत्रीं च जपेत्पुनः।। | 7-104-32a 7-104-32c |
पुनराचमनं कृत्वा मद्गतेनान्तरात्मना। आपोहिष्ठेति तिसृभिर्ऋग्भिः पूतेन वारिणा। तथा तरत्समन्दीभिः सिञ्चेच्चतसृभिः क्रमात्।। | 7-104-33a 7-104-33b 7-104-33c |
गोसूक्तेनाश्वसूक्तेन शुद्धवर्गेणि चात्मनः। वैष्णवैर्वारुणैः सूक्तैः सावित्रैरिन्द्रदेवतैः।। | 7-104-34a 7-104-34b |
वामदैव्येन चात्मानमन्यैर्मन्मयसामभिः। स्थित्वाऽन्तःसलिले सूक्तं जपेद्वाचाऽघमर्षणं।। | 7-104-35a 7-104-35b |
सव्याहृतीकां सप्रणवां गायत्रीं वा ततो जपेत्। आश्वासमोक्षात्प्रणवं जपेद्वा मामनुस्मरन्।। | 7-104-36a 7-104-36b |
उत्प्लुत्य तीर्थमासाद्य धौते शुक्ले च वाससी।। शुद्धे चाच्छादयेत्कक्षे न कुर्यात्परिपाशके।। | 7-104-37a 7-104-37b |
पाशेन बद्ध्वा कक्षे यत्कुरुते कर्म वैदिकम्। राक्षसा दानवा दैत्यास्तद्विलुंपन्ति हर्षिताः। तस्मत्सर्वप्रयत्नेन कक्ष्यापाशं न धारयेत्।। | 7-104-38a 7-104-38b 7-104-38c |
ततः प्रक्षाल्य पादौ च हस्तौ चैव मृदा शनैः। आचम्य पुनराचामेत्पुनः सावित्रिया द्विजः।। | 7-104-39a 7-104-39b |
प्राङ्मुखोदङ्मुखो वाऽपि ध्यायन्वेदान्समाहितः। जले जलगतः शुद्धः स्थल एव स्थलस्थितः। उभयत्र स्थितस्तस्मादाचामेदात्मशुद्धये।। | 7-104-40a 7-104-40b 7-104-40c |
दर्भेषु दर्भपाणिः सन्प्राङ्मुखः सुसमाहितः। प्राणायामांस्ततः कुर्यान्मद्गतेनान्तरात्मना।। | 7-104-41a 7-104-41b |
सहस्रकृत्वः सावित्रीं शतकृत्वस्तु वा जपेत्।। | 7-104-42a |
समाहितो जपेत्तस्मात्सावित्र्या चाभिमन्त्र्य च। मन्देहानां विनाशाय रक्षसां विक्षिपेज्जलम्।। | 7-104-43a 7-104-43b |
उद्वर्गोसीत्यथा चान्तःप्रायश्चित्तजलं क्षिपेत्।। | 7-104-44a |
अथादाय सुपुष्पाणि तोयमञ्जलिना द्विजः प्रक्षिप्य प्रतिसूर्यं च व्योममुद्रां प्रकल्पयेत्।। | 7-104-45a 7-104-45b |
ततो द्वादशकृत्वस्तु सूर्यस्येकाक्षरं जपेत्। ततः षडक्षरादीनि षट्कृत्वः परिवर्तयेत्।। | 7-104-46a 7-104-46b |
प्रदक्षिणं परामृश्य मुद्रया स्वमुखान्तरे। ऊर्ध्वबाहुस्ततो भूत्वा सूर्यमीक्षेत्समाहितः।। | 7-104-47a 7-104-47b |
तन्मण्डलस्थं मां ध्यायंस्तोजोमूर्तिं चतुर्भुजम्। उदुत्यं च जपेन्मन्त्रं चित्रं तच्चक्षुरित्यपि।। | 7-104-48a 7-104-48b |
सावित्रीं च यथाशत्ति जप्त्वा सूक्तं च मामकम्। मन्मयानि च सामानि पुरुषव्रतमेव च।। | 7-104-49a 7-104-49b |
ततश्चालोकयेदर्कं हंसः शुचिषदित्यपि। प्रदक्षिणं समावृत्य नमस्कृत्य दिवाकरम्।। | 7-104-50a 7-104-50b |
ततस्तु तर्पयेदद्भिर्ब्रह्म्णां मां च शङ्करम्। प्रजापतिं च देवांश्च तथा देवमुनीनपि।। | 7-104-51a 7-104-51b |
साङ्गानपि तथा वेदानितिहासान्क्रतूनपि। पुराणानि च सर्वाणि कुलान्यप्सरसां तथा।। | 7-104-52a 7-104-52b |
क्रतून्संवत्सरं चैव कलाकाष्ठात्मकं तथा। भूतग्रामांश्च भूतानि सरितः सागरांस्तथा। शैलाञ्शैलस्थितान्देवानोषधीः सवनस्पतीः।। | 7-104-53a 7-104-53b 7-104-53c |
तर्पयेदुपवीती च प्रत्येकं तृप्यतामिति। अन्वारभ्य च सव्येन पाणिना दक्षिणेन तु।। | 7-104-54a 7-104-54b |
निवीती तर्पयेद्विद्वानृषीन्मन्त्रकृतस्तथा। मरीच्यादीनृषींश्चैव नारदाद्यान्समाहितः।। | 7-104-55a 7-104-55b |
प्राचीनावीत्यथैतास्तु तर्पयेद्देवताः पितॄत्। ततस्तु कव्यवाडग्निं सों वैवस्वतं तथा।। | 7-104-56a 7-104-56b |
ततश्चार्यमणं चापि ह्यग्निष्वात्तांस्तथैव च। सोमपांश्चैव दर्भेषु सतिलैरेव वारिभिः। तृप्यतामिति पश्चात्तु स पितॄंस्तर्पयेत्ततः।। | 7-104-57a 7-104-57b 7-104-57c |
पितॄन्पितामहांश्चैव तथैव प्रपितामहान्। पितामहीस्तता चापि तथैव प्रपितामहीः।। | 7-104-58a 7-104-58b |
मातरं चात्मनश्चैव गुरुमाचार्यमेव च। पितृमातृष्वसारौ च तथा मातामहीमपि।। | 7-104-59a 7-104-59b |
उपाध्यायान्सखीन्बन्धूञ्शिष्यर्त्विग्ज्ञातिबांधवान्। प्रमीतानानृशंस्यार्थं तर्पयेत्तानमत्सरः।। | 7-104-60a 7-104-60b |
तर्पयित्वा तथाऽऽचम्य स्नानवस्त्रं प्रपीडयेत्। वृत्तिं भृत्यजनस्याहुः स्नानं पानं च तद्विदः।। | 7-104-61a 7-104-61b |
अतर्पयित्वा तान्पूर्वं स्नानवस्त्रं न पीडयेत्। पीडयेच्चेत्पुरा मोहाद्देवाः सर्पिगणास्तथा। पितरस्तु निराशास्ते शप्त्वा यान्ति यथागतं।। | 7-104-62a 7-104-62b 7-104-62c |
प्रक्षाल्य तु मृदा पादावाचम्य प्रयतः पुनः। दर्भेषु दर्भपाणिः सन्स्वाध्यायं तु समारभेत्।। | 7-104-63a 7-104-63b |
वेदमादौ समारभ्य ततोपर्युपरि क्रमात्। यदधीतेऽन्वहं शक्त्या तत्स्वाध्यायं प्रचक्षते।। | 7-104-64a 7-104-64b |
ऋचो वाऽपि यजुर्वाऽपि सामगायमथापि च। इतिहासपुराणानि यथाशक्ति न हापयेत्।। | 7-104-65a 7-104-65b |
उत्थाय तु नमस्कृत्य दिशो दिग्देवता अपि। ब्रह्मणं च ततश्चाग्निं पृथिवीमोषधीस्तथा।। | 7-104-66a 7-104-66b |
वाचं वाचस्पतिं चैव मां चैव सरितस्तथा। नमस्कृत्य तथाऽद्भिस्तु प्रणवादि च पूर्ववत्।। | 7-104-67a 7-104-67b |
ततो नमोऽद्भ्य इत्युक्त्वा नमस्कुर्यात्तु तज्जलम्। घृणिः सूर्यस्तथाऽऽदित्यस्तं प्रणम्य स्वमूर्धनि।। | 7-104-68a 7-104-68b |
ततस्त्वालोकयन्नर्कं प्रणवेन समाहितः। ततो मामर्चयेत्पुष्पैर्मत्प्रियैरेव नित्यशः।। | 7-104-69a 7-104-69b |
युधिष्ठिर उवाच। | 7-104-70x |
त्वत्प्रियाणि प्रसूनानि त्वदधिष्ठानि माधव। सर्वाण्याचक्ष्व देवेश त्वद्भक्तस्य ममाच्युत।। | 7-104-70a 7-104-70b |
भगवानुवाच। | 7-104-71x |
शृणुष्वावहितो राजन्पुष्पाणि प्रियकृन्ति मे। कुमुदं करवीरं च चणकं चंपकं तथा।। | 7-104-71a 7-104-71b |
मल्लिकाजातिपुष्पं च नन्द्यावर्तं च नन्दिकम्। पलाशपुष्पपत्राणि दूर्वा भृङ्गकमेव च।। | 7-104-72a 7-104-72b |
वनमाला च राजेन्द्र मत्प्रियाणि विशेषतः। सर्वेषामपि पुष्पाणां सहस्रगुणमुत्पलम्।। | 7-104-73a 7-104-73b |
तस्मात्पद्मं तथा राजन्पद्मात्तु सतपत्रकम्। तस्मात्सहस्रपत्रं तु पुण्डरीकं ततः परम्।। | 7-104-74a 7-104-74b |
पुण्डरीकसहस्रात्तु तुलसी गुणतोऽधिका। बकपुष्पं ततस्तस्मात्सौवर्णं तु ततोऽधिकम्। सौवर्णात्तु प्रसूनाच्च मत्प्रियं नास्ति पाण्डव।। | 7-104-75a 7-104-75b 7-104-75c |
पुष्पाभावे तुलस्यास्तु पत्रैर्मामर्चयेत्पुनः। पत्रालाभे तु शाखाभिः शाकालाभे शिफालवैः। शिफाभावे मृदा तत्र भक्तिमानर्चयेत माम्।। | 7-104-76a 7-104-76b 7-104-76c |
वर्जनीयानि पुष्पाणि शृणु राजन्समाहितः। किङ्किणी मुनिपुष्पं च धुर्धूरं पाटलं तथा।। | 7-104-77a 7-104-77b |
तथाऽतिमुक्तकं चैव पुन्नागं नक्तमालिकम्। यौधिकं क्षीरिकापुष्पं निर्गुण्डी लाङ्गुली जपा।। | 7-104-78a 7-104-78b |
कर्णिकारं तथाऽशोकं शल्मलीपुष्पमेव च। ककुभाः कोविदाराश्च वैभीतकमथापि च।। | 7-104-79a 7-104-79b |
कुरण्टकप्रसूनं च कल्पकं कालकं तथा। अङ्केलं गिरिकर्णी च नीलान्येव च सर्वशः। एकपर्णानि चान्यानि सर्वाण्येव विवर्जयेत्।। | 7-104-80a 7-104-80b 7-104-80c |
अर्कपुष्पाणि वर्ज्यानि अर्कपत्रस्तितानि च। व्याघृताः पिचुमन्दानि सर्वाण्येव विवर्जयेत्।। | 7-104-81a 7-104-81b |
अन्यैस्तु शुक्लपत्रैस्तु गन्धवद्भिर्नराधिप। अवर्ज्यैस्तैर्यथालाभं मद्भक्तो मां समर्चयेत्।। | 7-104-82a 7-104-82b |
युधिष्ठिर उवाच। | 7-104-83x |
कथं त्वमर्चनीयोसि मूर्तयः कीदृशास्तु ते। वैखानसाः कथं ब्रुयूः कथं वा पाञ्चरात्रिकाः।। | 7-104-83a 7-104-83b |
भगवानुवाच। | 7-104-84x |
शृणु पाण्डव तत्सर्वमर्चनाक्रममात्मनः। स्थण्डिले पद्मकं कृत्वा चाष्टपत्रं सकर्णिकम्।। | 7-104-84a 7-104-84b |
अष्टाक्षरविधानेन ह्यथवा द्वादशाक्षरैः। वैदिकैरथ मन्त्रैश्च मम सूक्तेन वा पुनः।। | 7-104-85a 7-104-85b |
स्थापितं मां ततस्तस्मिन्नर्ययित्वा विचक्षणः। पुरुषं च ततः सत्यमत्युतं च युधिष्टिर।। | 7-104-86a 7-104-86b |
अनिरुद्धं च मां प्राहुर्वैखानसविदो जनाः। अन्ये त्वेवं विजानन्ति मां राजन्पाञ्चरात्रिकाः। | 7-104-87a 7-104-87b |
वासुदेवं च राजेन्द्र संकर्षणमथापि वा। प्रद्युम्नं चानिरुद्धं च चतुर्मूर्तिं प्रचक्षते।। | 7-104-88a 7-104-88b |
एताश्चान्याश्च राजेन्द्र संज्ञाभेदेन मूर्तयः। विद्ध्यार्थान्तरा एवं मामेवं चार्चयेद्भुधः।। | 7-104-89a 7-104-89b |
युधिष्ठिर उवाच। | 7-104-90x |
त्वद्भक्ताः कीदृसा देव कानि तेषं व्रतानि च। एतत्कथय देवेश त्वद्भक्तस्य ममाच्युत।। | 7-104-90a 7-104-90b |
भगवानुवाच। | 7-104-91x |
अनन्यदेवताभक्ता चे मद्भक्तजनप्रियाः। मामेव शरणं प्राप्ता मद्भक्तास्ते प्रकीर्तिताः।। | 7-104-91a 7-104-91b |
स्वर्ग्याण्यपि यशस्यानि मत्प्रियाणि विशेषतः। मद्भक्तः पाण्डवश्रेष्ठ व्रतानीमानि धारयेत्।। | 7-104-92a 7-104-92b |
नान्यदाच्छादयेद्वस्त्रं मद्भक्तो जलतारणे। स्वस्थस्तु न दिवा स्वप्येन्मधुमांसानि वर्जयेत्।। | 7-104-93a 7-104-93b |
प्रदक्षिणं व्रजेद्विप्रान्गामश्वत्थं हुताशनम्। न धावेत्पतिते वर्षे नाग्नभिक्षां च लोपयेत्।। | 7-104-94a 7-104-94b |
प्रत्यक्षलवणं नाद्यत्सौभाञ्जनकरञ्जनौ। ग्रासमुष्टिं गवपे दद्याद्धान्याम्लं चैव वर्जयेत्।। | 7-104-95a 7-104-95b |
तथा पर्युषितं चापि पक्वं परगृहागतम्। अनिवेदितं च यद्द्रव्यं तत्प्रयत्नेन वर्जयेत्।। | 7-104-96a 7-104-96b |
विभितककरञ्जानां छायां दूरे विवर्जयेत्। पिप्रदेवपरीवादान्न वदेत्पीडितोपि सन्।। | 7-104-97a 7-104-97b |
सात्विका राजसाश्चापि तामसाश्चापि पाण्डव। मामर्चयन्ति मद्भक्तास्तेषामीदृग्विदा गतिः।। | 7-104-98a 7-104-98b |
तामसास्तिमिरं यान्ति राजसा रज एव तत्। सात्विकाः सत्वसंपन्नाः सत्वमेव प्रयान्ति ते।। | 7-104-99a 7-104-99b |
ये सिद्धाः सन्ति साङ्ख्येन योगसत्वबलेन च। नभस्यादित्यचन्द्राभ्यां पश्यन्ति पदविस्तरम्।। | 7-104-100a 7-104-100b |
एकस्तंभे नवद्वारे त्रिस्थूणे पञ्चसाक्षिके। एतस्मिन्देहनगरे राजसस्तु सदा भवेत्।। | 7-104-101a 7-104-101b |
उदिते सवितर्याप्य क्रियायुक्तस्य धीमतः। चतुर्वेदविदश्चापि देहे षड्वृषलाः स्मृताः।। | 7-104-102a 7-104-102b |
क्षत्रियाः सप्त विज्ञेया वैश्यास्त्वष्टौ प्रकीर्तिताः। नियताः पाण्डवश्रेष्ठ शूद्राणामेकविंशतिः।। | 7-104-103a 7-104-103b |
कामः क्रोधश्च लोभश्च मोहश्च मद एव च। महामोहश्च इत्येते देहे षड्वृषलाः स्मृताः।। | 7-104-104a 7-104-104b |
गर्वः स्तंभो ह्यहङ्कार ईर्ष्या च द्रोह एव च। पारुष्यं क्रूरता चैव सप्तैत क्षत्रियाः स्मृताः।। | 7-104-105a 7-104-105b |
तीक्ष्णता निकृतिर्माया शाठ्यं डंभो ह्यनार्जवम्। पैशुन्यमनृतं चैव वेश्यास्त्वष्टौ प्रकीर्तिताः।। | 7-104-106a 7-104-106b |
तृष्णा बुभुक्षा निद्रा च ह्यालस्यं चाघृणादयः। आधिश्चापि विषादश्च प्रमादो हीनसत्वता।। | 7-104-107a 7-104-107b |
भयं विक्लबता जाड्यं पापकं मन्युरेव च। आशा चाश्रद्दधानत्वमनवस्थाप्यमन्त्रणम्।। | 7-104-108a 7-104-108b |
आशौचं मलिनत्वं च शूद्रा ह्येते प्रकीर्तिताः। यस्मिन्नेते न दृश्यन्ते स वै ब्राह्मण उच्यते।। | 7-104-109a 7-104-109b |
येषुयेषु हि भावेषु यत्कालं वर्तते द्विजः। तत्कालं वै स विज्ञेयो ब्राह्मणो ज्ञानदुर्बलः।। | 7-104-110a 7-104-110b |
प्राणानायम्य यत्कालं येन मां चापि चिन्तयेत्। तत्कालो वै द्विजो ज्ञेयः शेषकालो ह्यथेतरः।। | 7-104-111a 7-104-111b |
तस्मात्तु सात्विको भूत्वा शुचिः क्रोधविवर्जितः। मामर्चयेत्तु सततं मत्प्रियत्वं यदीच्छति।। | 7-104-112a 7-104-112b |
अलोलजिह्वः समुपस्थितो धृतिं निधाय चक्षुर्युगमात्रमेव तत। मनश्च वाचं च निगृह्य चञ्चलं भयान्निवृत्तो मम भक्त उच्यते।। | 7-104-113a 7-104-113b 7-104-113c 7-104-113d |
ईदृशाध्यात्मिनो ये तु ब्राह्मणा नियतेन्द्रियाः। तेषां श्राद्धेषु तृप्यन्ति तेन तृप्ताः पितामहाः।। | 7-104-114a 7-104-114c |
धर्मो जयति नाधर्मः सत्यं जयति नानृतम्। क्षमा जयति न क्रोधः क्षमावान्ब्राह्मणो भवेत्।। | 7-104-115a 7-104-115b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि चतुरधिकशततमोऽध्यायः।। 104 |
आश्वमेधिकपर्व-103 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-105 |