महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-011
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति इन्द्रवृत्रासुरयुद्धप्रकारकथनम्।। 1 ।।
वैशम्पायन उवाच। | 14-11-1x |
इत्युक्ते नृपतौ तस्मिन्व्यासेनाद्भुतकर्मणा। वासुदेवो महातेजास्ततो वचनमाददे।। | 14-11-1a 14-11-1b |
तं नृपं दीनमनसं निहतज्ञातिबान्धवम्। उपप्लुतमिवादित्यं सधूममिव पावकम्।। | 14-11-2a 14-11-2b |
निर्विण्णमनसं पार्थं ज्ञात्वा वृष्णिकुलोद्वहः। आश्वासनन्धर्मसुतं प्रवक्तुमुपचक्रमे।। | 14-11-3a 14-11-3b |
वासुदेव उवाच। | 14-11-4x |
सर्वं जिह्मं मृत्युपदमजिह्मं ब्रह्मणः पदम्। एतावान्ज्ञानविषयः किं प्रलापः करिष्यति।। | 14-11-4a 14-11-4b |
नैव तेऽनुष्ठितं कर्म नैव ते शत्रवो जिताः। कथं शत्रुं शरीरस्तमात्मनो नावबुध्यसे।। | 14-11-5a 14-11-5b |
अत्र ते वर्तयिष्यामि यथाधर्मं यथाश्रुतम्। इन्द्रस्य सह वृत्रेण यथा युद्धमवर्तत।। | 14-11-6a 14-11-6b |
वृत्रेण पृथिवी व्याप्ता पुरा किल नराधिप। दृष्ट्वा स पृथिवीं व्याप्तां गन्धस्य विषये हृते। धराहरणदुर्गन्धो विषयः समपद्यत।। | 14-11-7a 14-11-7b 14-11-7c |
शतक्रतुश्चुकोपाथ गन्धस्य विषये हृते। वृत्रस्य सततः क्रुद्धो घोरं वज्रमवासृजत्।। | 14-11-8a 14-11-8b |
स वध्यमानो वज्रेण सुभृशं भूरितेजसा। विवेश सहसा तोयं जग्राह विषयं ततः।। | 14-11-9a 14-11-9b |
अप्सु वृत्रगृहीतासु रसे च विषये हृते। शतक्रतुरतिक्रुद्धस्तत्र वज्रमवासृजत्।। | 14-11-10a 14-11-10b |
स वध्यमानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा। विवेश सहसा ज्योतिर्जग्राह विषयं ततः।। | 14-11-11a 14-11-11b |
व्याप्ते ज्योतिषि वृत्रेण रूपेऽथ विषये हृते। शतक्रतुरतिक्रुद्धस्तत्र वज्रमवासृजत्।। | 14-11-12a 14-11-12b |
स वद्यमानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा। विवेश सहसा वायुं जग्राह विषयं ततः।। | 14-11-13a 14-11-13b |
व्याप्ते वायौ तु वृत्रेण स्पर्शेऽथ विषये हृते। शतक्रतुरतिक्रुद्धस्तत्र वज्रमवासृजत्।। | 14-11-14a 14-11-14b |
स वध्यगानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा। आकाशमभिदुद्राव जग्राह विषयं ततः।। | 14-11-15a 14-11-15b |
आकाशे वृत्रभूतेऽथ शब्दे च विषये हृते। शतक्रतुरभिक्रुद्धस्तत्र वज्रमवासृजत्।। | 14-11-16a 14-11-16b |
स वध्यमानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा। विवेश सहसा शक्रं जग्राह विषयं ततः।। | 14-11-17a 14-11-17b |
तस्य वृत्रगृहीतस्य मोहः समभवन्महान्। रथन्तरेण तं साम्ना वसिष्ठः प्रत्यबोधयत्।। | 14-11-18a 14-11-18b |
ततो वृत्रं शरीरस्थं जघान भरतर्षभ। शतक्रतुरदृश्येन वज्रेणेतीह नः श्रुतम्।। | 14-11-19a 14-11-19b |
इदं धर्म्यं रहस्यं वै शक्रेणोक्तं महर्षिषु। ऋषिभिश्च मम प्रोक्तं तन्निबोध जनाधिप।। | 14-11-20a 14-11-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अश्वमेधपर्वणि एकादशोऽध्यायः।। 11 ।। |
14-11-2 उपप्लुतं राहुग्रस्तम्।। 14-11-4 जिह्मं कामादि। मृत्युपदं संसारप्रापकम्। अजिह्मं शमादि। ब्रह्मणः पदं मोक्षस्य प्रापकम्। ज्ञानविषयो हेयोपादेयतया ज्ञातव्योर्थः। आर्जवं ब्रह्मणः पदमिति झ.ध.पाठः।। 14-11-7 धराहरणनिस्सार इति क.थ.पाठः।।
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