महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-041
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ब्रह्मणा महर्षीन्प्रति महदहङ्कारतत्वनिरूपणम्।। 1 ।।
ब्रह्मोवाच। | 14-41-1x |
अव्यक्तात्पूर्वमुत्पन्नो महानात्मा महामतिः। आदिर्गुणानां सर्वेषां प्रथमः सर्ग उच्यते।। | 14-41-1a 14-41-1b |
महानात्मा मतिर्विष्णुर्जिष्णुः शंभुश्च वीर्यवान्। बुद्धिः प्रज्ञोपलब्धिश्च तता ख्यातिर्धृतिःस्मृतिः। | 14-41-2a 14-41-2b |
पर्यायवाचकैः शब्दैर्महानात्मा विभाव्यते। तं जानन्ब्राह्मणो विद्वान्प्रमोहं नाधिगच्छति।। | 14-41-3a 14-41-3b |
सर्वतःपाणिपादं च सर्वतोक्षिशिरोमुखम्। सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वं व्याप्यवतिष्ठति।। | 14-41-4a 14-41-4b |
महाप्रभावः पुरुषः सर्वस्य हृदि निष्ठितः। अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्ययः।। | 14-41-5a 14-41-5b |
तत्र बुद्धिमतां लोके सद्भावनिरताश्च ये। ध्यानिनो नित्ययोगाश्च सत्यसन्धा जितेन्द्रियाः।। | 14-41-6a 14-41-6b |
ज्ञानवन्तश्च ये केचिदलुब्धा जितमन्यवः। प्रसन्नमनसो धीरा निर्ममा निरहंक्रियाः।। | 14-41-7a 14-41-7b |
विमुक्ताः सर्व एवैते महत्त्वमुपयान्त्युत। आत्मनो महतो वेद यः पुण्यां गतिमुत्तमाम्।। | 14-41-8a 14-41-8b |
अहङ्कारात्प्रसूतानि महाभूतानि पञ्च वै। पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्।। | 14-41-9a 14-41-9b |
तेषु भूतानि युज्यन्ते महाभूतेषु पञ्चसु। ते शब्दस्पर्शरूपेषु रसगन्धक्रियासु च।। | 14-41-10a 14-41-10b |
महाभूतविनाशान्ते प्रलये प्रत्युपस्थिते। सर्वप्राणभृतां धीरा महदुत्पद्यते भयम्।। | 14-41-11a 14-41-11b |
स धीरः सर्वलोकेषु न मोहमधिगच्छति। विष्णुरेवादिसर्गेषु स्वयंभूर्भवति प्रभुः।। | 14-41-12a 14-41-12b |
एवं हि यो वेद गुहाशयं प्रभुं परं पुराणं पुरुषं विश्वरूपम्। हिरण्मयं बुद्धिमतां परां गतिं स बुद्धिमान्बुद्धिमतीत्य तिष्ठति।। | 14-41-13a 14-41-13b 14-41-13c 14-41-13d |
य उत्पन्नो महान्पूर्वमहङ्कारः स उच्यते। अहमित्येव सम्भूतो द्वितीयः सर्ग उच्यते।। | 14-41-14a 14-41-14b |
अहङ्कारश्च भूतादिर्वैकारिक इति स्मृतः। तेजसश्चेतना धातुः प्रजासर्गः प्रजापतिः।। | 14-41-15a 14-41-15b |
देवानां प्रभवो देवो मनसश्च त्रिलोककृत्। अहमित्येव तत्सर्वमभिमानः स उच्यते।। | 14-41-16a 14-41-16b |
अध्यात्मज्ञानतृप्तानां मुनीनां भावितात्मनाम्। स्वाध्यायक्रतुसिद्धानामेष लोकः सनातनः।। | 14-41-17a 14-41-17b |
अहङ्कारेणाहरतो गुणानिमा- न्भूतादिरेवं सृजते स भूतकृत्। वैकारिकः सर्वमिदं विचेष्टते स्वतेजसा रञ्जयते जगत्तथा।। | 14-41-18a 14-41-18b 14-41-18c 14-41-18d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि एकचत्वारिंशोऽध्यायः।। 41 ।। |
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