महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-006
दिखावट
← आश्वमेधिकपर्व-005 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-006 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-007 → |
|
बृहस्पतिना इन्द्रे स्वेन मरुत्तस्यायाजनप्रतिज्ञानश्रवणामर्षिणा मरुत्तेनि स्वयाजनप्रार्थेन तत्प्रत्याख्यानम्।। 1 ।। ततः प्रतिनिवृत्तस्य मरुत्तस्य मध्येमार्गं नारदसमागमः।। 2 ।। नारदचोदनया मरुत्तेन वाराणसीद्वारे स्वेन स्थापितकुणपावलोकनेन प्रलायमानं संवर्तं प्रत्यनुगमनम्।। 3 ।। संवर्तेन तत्प्रतिनिवर्तनाय पांसुकदमप्रक्षेपेप्यनिवर्तमानं तमवलोक्यं विजने न्यग्रोधमूले समुपवेशः।। 4 ।।
| |
व्यास उवाच। | 14-6-1x |
अत्राप्युदाहरन्तीमममितिहासं पुरातनम्। बृहस्पतेश्च संवादं मरुत्तस्य च धीमतः।। | 14-6-1a 14-6-1b |
देवराजस्य समयं कृतमाङ्गिरसेन ह। श्रुत्वा मरुत्तो नृपतिर्मन्युमाहारयत्परम्।। | 14-6-2a 14-6-2b |
सङ्कल्प्य मनसा यज्ञं करंधमसुतात्मजः। बृहस्पतिमुपागम्य वाग्मी वचनमब्रवीत्।। | 14-6-3a 14-6-3b |
भगवन्यन्मया पूर्वमभिगम्य तपोधन। कृतोऽभिसन्धिर्यज्ञस्य भवतो वचनाद्गुरो।। | 14-6-4a 14-6-4b |
तमहं यष्टुमिच्छामि सम्भाराः सम्भृताश्च मे। याज्योस्मि भवतः साधो तत्प्राप्नुहि विधत्स्व च।। | 14-6-5a 14-6-5b |
बृहस्पतिरुवाच। | 14-6-6x |
न कामये याजयितुं त्वामहं पृथिवीपते। वृतोस्मि देवराजेन प्रतिज्ञातं च तस्य मे।। | 14-6-6a 14-6-6b |
मरुत्त उवाच। | 14-6-7x |
पित्र्यमस्मि तव क्षेत्रं बहुमन्ये च ते भृशम्। तवास्मि याज्यातां प्राप्तो भजमानं भजस्व माम्।। | 14-6-7a 14-6-7b |
बृहस्पतिरुवाच। | 14-6-8x |
अमर्त्यं याजयित्वाऽहं याजयिष्ये कथं नरम्। मरुत्त गच्छ वा मा वा निवृत्तोस्म्यद्य याजनात्।। | 14-6-8a 14-6-8b |
न त्वां याजयितास्म्यद्य वृणु यं त्वमिहेच्छसि। उपाध्यायं महाबाहो यस्ते यज्ञं करिष्यति।। | 14-6-9a 14-6-9b |
व्यास उवाच। | 14-6-10x |
एवमुक्तस्तु नृपतिर्मरुत्तो व्रीडितोऽभवत्। प्रत्यागच्छन्सुसंविग्नो ददर्श पथि नारदम्।। | 14-6-10a 14-6-10b |
देवर्षिणा समागम्य नारदेनि स पार्थिवः। विधिवत्प्राञ्जलिस्तस्थावथैनं नारदोऽब्रवीत्।। | 14-6-11a 14-6-11b |
राजर्षे नातिहृष्टोसि कच्चित्क्षेमं तवानघ। क्व गतोसि कुतश्चेदमप्रीतिस्थानमागतम्।। | 14-6-12a 14-6-12b |
श्रोतव्यं चेन्मया राजन्ब्रूहि मे पार्थिवर्षभ। व्यपनेष्यामि ते मन्युं सर्वयत्नैर्नराधिप।। | 14-6-13a 14-6-13b |
एवमुक्तो मरुत्तः स नारदेन महर्षिणा। विप्रलम्भमुपाध्यायात्सर्वज्ञे तं न्यवेदयत्।। | 14-6-14a 14-6-14b |
मरुत्त उवाच। | 14-6-15x |
गतोस्म्यङ्गिरसः पुत्रं देवाचार्यं बृहस्पतिम्। यज्ञार्थमृत्विजं प्रष्टुं स च मां नाभ्यनन्दत।। | 14-6-15a 14-6-15b |
प्रत्याख्यातश्च तेनाहं जीवितुं नाद्य कामये। परित्यक्तश्च गुरुणा दूषितश्चास्मि नारद।। | 14-6-16a 14-6-16b |
व्यास उवाच। | 14-6-17x |
एवमुक्तस्तु राज्ञा स नारदः प्रत्युवाच ह। आविक्षितं महाराज वाचा संजीवयन्निव।। | 14-6-17a 14-6-17b |
राजन्नङ्गिरसः पुत्रः संवर्तो नाम धार्मिकः। चङ्कमीति दिशः सर्वा दिग्वासा मोहयन्प्रजाः।। | 14-6-18a 14-6-18b |
तं गच्च यदि याज्यं त्वां न वाञ्छति बृहस्पतिः। प्रसन्नस्त्वां महातेजाः संवर्तो याजयिष्यति।। | 14-6-19a 14-6-19b |
मरुत्त उवाच। | 14-6-20x |
संजीवितोऽहं भवता वाक्येनानेन नारद। पश्येयं क्व नु संवर्तं शंस मे वदतांवर।। | 14-6-20a 14-6-20b |
कथं च तस्मै वर्तेयं कथं मां न परित्यजेत्। प्रत्याख्यातश्च तेनापि नाहं जीवितुमुत्सहे।। | 14-6-21a 14-6-21b |
नारद उवाच। | 14-6-22x |
उन्मत्तवेषं बिभ्रत्स चङ्क्रमीति यथासुखम्। वाराणसीं तु नगरीमभीक्ष्णमुपसेवते।। | 14-6-22a 14-6-22b |
तस्या द्वारं समासाद्य न्यसेथाः कुणपं क्वचित्। तं दृष्ट्वा यो निवर्तेत संवर्तः स महीपते।। | 14-6-23a 14-6-23b |
तं पृष्ठतोऽनुगच्छेथा यत्र गच्छेत्स वीर्यवान्। तमेकान्ते समासाद्य प्राञ्जलिः शरणं व्रजेः।। | 14-6-24a 14-6-24b |
पृच्छेत्त्वां यदि केनाहं तवाख्यात इति स्म ह। ब्रूयास्त्वं नारदेनेति स कुत्र इति शत्रुहन्।। | 14-6-25a 14-6-25b |
स चेत्त्वामनुयुञ्जीत ममानुगमनेप्सया। शंसेथा वह्निमारूढं मामपि त्वमशङ्कया।। | 14-6-26a 14-6-26b |
व्यास उवाच। | 14-6-27x |
स तथेति प्रतिश्रुत्य पूजयित्वा च नारदम्। अभ्यनुज्ञाय राजर्षिर्ययौ वाराणसीं पुरीम्।। | 14-6-27a 14-6-27b |
तत्र गत्वा यथोक्तं स पुर्या द्वारे महायशाः। कुणपं स्थापयामास नारदस्य वचः स्मरन्।। | 14-6-28a 14-6-28b |
यौगपद्येनि विप्रश्च पुरीद्वारमथाविशत्। ततः स कुणपं दृष्ट्वा सहसा संन्यवर्तत।। | 14-6-29a 14-6-29b |
स तं निवृत्तमालक्ष्य प्राञ्जलिः पृष्ठतोऽन्वगात्। आविक्षितो महीपालः संवर्तमुपशिक्षितुम्।। | 14-6-30a 14-6-30b |
स च तं विजने दृष्ट्वा पांसुभिः कदेमेन च। श्लेष्मणा चैव राजानं ष्ठीवनैश्च समाकिरत्।। | 14-6-31a 14-6-31b |
स तथा बाध्यमानो वै संवर्तेन महीपतिः। अन्वगादेव तमृषिं प्राञ्जलिः सम्प्रसादयन्।। | 14-6-32a 14-6-32b |
ततो निवर्त्य संवर्तः परिश्रान्त उपाविशत्। शीतलच्छायमासाद्य न्यग्रोधं बहुशाखिनम्।। | 14-6-33a 14-6-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अश्वमेधपर्वणि षष्ठोऽध्यायः।। 6 ।। |
14-6-13 मन्युं दैन्यम्।।
आश्वमेधिकपर्व-005 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-007 |