महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-093
दिखावट
← आश्वमेधिकपर्व-092 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-093 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-094 → |
|
जनमेजयेन नकुलेन यज्ञनिन्दाकारणं पृष्टेन वैशंपायनेन तंप्रति सत्यदानतपोभिरेव स्वर्गादिसिद्धौ पशुहिंसाहेतुयज्ञस्य नातिप्रशस्ततरत्वमिति नकुलाभिप्रायवर्णनम्।। 1 ।।
जनमेजय उवाच। | 14-93-1x |
यज्ञे सक्ता नृपतयस्तपःसका महर्षयः। शान्तिव्यवस्थिता विप्राः शमे दम इति प्रभो।। | 14-93-1a 14-93-1b |
तस्माद्यज्ञफलैस्तुल्यं न किञ्चिदिह दृश्यते। इति मे वर्तते बुद्धिस्तथा चैतदसंशयम्।। | 14-93-2a 14-93-2b |
यज्ञैरिष्ट्वा तु बहवो राजानो द्विजसत्तमाः। इह कीर्ति परां प्राप्य प्रेत्य स्वर्गमितो गताः।। | 14-93-3a 14-93-3b |
देवराजः सहस्राक्षः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः। देवराज्यं महातेजाःक प्राप्तवानखिलं विभुः।। | 14-93-4a 14-93-4b |
अतो युधिष्ठिरो राजा भीमार्जुनपुरःसरः। सदृशो देवराजेन समृद्ध्या विक्रमेण च।। | 14-93-5a 14-93-5b |
अथ कस्मात्स नकुलो गर्हयामास तं क्रतुम्। अश्वमेधं महायज्ञं राज्ञस्तस्य महात्मनः।। | 14-93-6a 14-93-6b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-93-7x |
यज्ञस्य विधिमग्र्यं वै फलं चापि नराधिप। गदतः शृणु मे राजन्यथावदिह भारत।। | 14-93-7a 14-93-7b |
पुरा शक्रस्य यजतः सर्व ऊचुर्महर्षयः। ऋत्विक्षु कर्मव्यग्रेषु वितते यज्ञकर्मणि।। | 14-93-8a 14-93-8b |
हूयमाने तथा वह्नौ होत्रा गुणसमन्विते। देवष्वाहूयमानेषु स्थितेषु परमर्षिषु।। | 14-93-9a 14-93-9b |
सुप्रतीतैस्तथा विप्रैः स्वागमैः सुस्वरैर्नृप। अश्रान्तैश्चापि लघुभिरध्वर्युवृषभैस्तथा।। | 14-93-10a 14-93-10b |
आलम्भसमये तस्मिन्गृहीतेषु पशुष्वथ। महर्षयो महाराज बभूवुः कृपयाऽन्विताः।। | 14-93-11a 14-93-11b |
ततो दीनान्पशून्दृष्ट्वा ऋषयस्ते तपोधनाः। ऊचुः शक्रं समागम्य नायं यज्ञविधिः शुभः।। | 14-93-12a 14-93-12b |
अपरिज्ञानमेतत्ते महान्तं धर्ममिच्छतः। सन्ति यज्ञे बहुगुणा विधिदृष्टाः पुरंदर।। | 14-93-13a 14-93-13b |
धर्मोपघातकस्त्वेष समारंभस्तव प्रभो। नायं धर्मकृतो यज्ञो न हिंसा धर्म उच्यते।। | 14-93-14a 14-93-14b |
आगमेनैव ते यज्ञं कुर्वन्तु यदि चेच्छसि। विधिदृष्टेन यज्ञेन धर्मस्ते सुमहान्भवेत्।। | 14-93-15a 14-93-15b |
यज्ञं बीजैः सहस्राक्ष त्रिवर्षपरमोषितेः। एष धर्मो महाञ्शक्र चिन्तयानोसि गम्यते।। | 14-93-16a 14-93-16b |
शतक्रतुस्तु तद्वाक्यमृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः। उक्तं न प्रतिजग्राह मानमोहवशं गतः।। | 14-93-17a 14-93-17b |
तेषां विवादः सुमहाञ्शक्रयज्ञे तपस्विनाम्। जङ्गमैः स्थावरैर्वाऽपि यष्टव्यमिति भारत।। | 14-93-18a 14-93-18b |
ते तु खिन्ना विवादेन ऋषयस्तत्त्वदर्शिनः। अभिसंधाय शक्रेण पप्रच्छुर्नृपतिं वसुम्।। | 14-93-19a 14-93-19b |
धर्मसंशयमापन्नान्सत्यं ब्रूहि महामते। महाभाग कथं यज्ञेष्वागमो नृपसत्तम। यष्टव्यं पशुभिर्मेध्यैरथो बीजैरजैरिति।। | 14-93-20a 14-93-20b 14-93-20c |
तच्छ्रुत्वा तु वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम्। यथोपनीतैर्यष्टव्यमिति प्रोवाच पार्थिवः।। | 14-93-21a 14-93-21b |
एवमुक्त्वा स नृपतिः प्रविवेश रसातलम्। उक्त्वेह वितथं राजंश्चेदीनामीश्वरः प्रभुः।। | 14-93-22a 14-93-22b |
तस्मान्नि वाच्यं ह्येकेन बहुज्ञेनापि संशये। प्रजापतिमपाहाय स्वयंभुवमृते प्रभुम्।। | 14-93-23a 14-93-23b |
तेन दत्तानि दानानि पापेनाशुद्धबुद्धिना। तानि सर्वाण्यनादृत्य नश्यन्ति विपुलान्यपि।। | 14-93-24a 14-93-24b |
तस्याधर्मप्रवृत्तस्य हिंसकस्य दुरात्मनः। दानेन कीर्तिर्भवति न प्रेत्येह च दुर्मतेः।। | 14-93-25a 14-93-25b |
अन्यायोपगतं द्रव्यमभीक्ष्णं यो ह्यपण्डितः। धर्माभिकाङ्क्षी त्यजति न स धर्मफलं लभेत्।। | 14-93-26a 14-93-26b |
धर्मवैतंसिको यस्तु पापात्मा पुरुषाधमः। ददाति दानं विप्रेभ्यो लोकविश्वासकारणम्।। | 14-93-27a 14-93-27b |
पापेन कर्मणा विप्रो धनं प्राप्य निरङ्कुशः। रागमोहान्वितः सोन्ते कलुषां गतिमश्नुते।। | 14-93-28a 14-93-28b |
अपि संचयबुद्धिर्हि लोभमोहवशं गतः। यज्ञं करोति भूतानि पापेनाशुद्धबुद्धिना।। | 14-93-29a 14-93-29b |
एवं लब्ध्वा धनं मोहाद्यो हि दद्याद्यजेत वा। न तस्य स फलं प्रेत्य भुंक्ते पापधनागमात्।। | 14-93-30a 14-93-30b |
उञ्छं मूलं फलं शाकमुदपात्रं तपोधनाः। दानं विभवतो दत्त्वा नराः स्वर्यान्ति धार्मिकाः।। | 14-93-31a 14-93-31b |
एष धर्मो महायोगो दानं भूतदया तथा। ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमनुक्रोशो धृतिः क्षमा।। | 14-93-32a 14-93-32b |
सनातनस्य धर्मस्य फलमेतत्सनातनम्। श्रूयन्ते हि पुरावृत्ता विश्वामित्रादयो नृपाः।। | 14-93-33a 14-93-33b |
विश्वामित्रोसितश्चैवं जनसश्च महीपतिः। कक्षसेनार्ष्टिसेनौ च सिन्धुद्वीपश्च पार्थिवः।। | 14-93-34a 14-93-34b |
एते चान्ये च बहवः सिद्धिं परमिकां गताः। नृपाः सत्यैश्च दानैश्च न्यायलब्धैस्तपोधनाः।। | 14-93-35a 14-93-35b |
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा ये चाश्रितास्तपः। दानधर्माग्निना शुद्धास्ते स्वर्गं यान्ति भारत।। | 14-93-36a 14-93-36b |
।। इती श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि त्रिनवतितमोऽध्यायः।। 93 ।। |
14-93-13 नहि यज्ञे पशुगणाः इति झ.पाठः।। 14-93-16 त्रिवर्षपरमोषितैः पुराणैः।। 14-93-20 बीजै रसैरिति झ. पाठः।।
आश्वमेधिकपर्व-092 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-094 |