महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-007
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संवर्तमरुत्तसंवादः।। 1 ।। संवर्तेन समयबन्धनपूर्वकं मरुत्तंप्रति याजनप्रतिज्ञानम्।। 2 ।।
संवर्त उवाच। | 14-14-1x |
कथमस्मि त्वया ज्ञातः केन वा कथितोस्मि ते। एतदाचक्ष्व मे तत्त्वमिच्छसे चेन्मम प्रियम्।। | 14-14-1a 14-14-1b |
सत्यं ते ब्रुवतः सर्वे सम्पत्स्यन्ते मनोरथाः। मिथ्या च ब्रुवतो मूर्धा शतधा ते स्फुटिष्यति।। | 14-14-2a 14-14-2b |
मरुत्त उवाच। | 14-14-3x |
नारदेन भवान्मह्यमाख्यातो ह्यटता पथि। गुरुपुत्रो ममेति त्वं ततो मे प्रीतिरुत्तमा।। | 14-14-3a 14-14-3b |
संवर्त उवाच। | 14-14-4x |
सत्यमेतद्भवानाह स मां जानाति सत्रिणम्। कथयस्व तदेतन्मे क्वनु सम्प्रति नारदः।। | 14-14-4a 14-14-4b |
मरुत उवाच। | 14-14-5x |
भवन्तं कथयित्वा तु मम देवर्षिसत्तमः। ततो मामभ्यनुज्ञाय प्रविष्टो हव्यवाहनम्।। | 14-14-5a 14-14-5b |
व्यास उवाच। | 14-14-6x |
श्रुत्वा तु पार्थिवस्यैत्संवर्तः प्रमुदं गतः। एतावदहमप्येवं शक्नुयामिति सोऽब्रवीत्।। | 14-14-6a 14-14-6b |
ततो मरुत्तमुन्मत्तो वाचा निर्भर्त्सयन्निव। रूक्षया ब्राह्मणि राजन्पुनः पुनरथाब्रवीत्।। | 14-14-7a 14-14-7b |
वातप्रधानेन मया स्वचित्तवशवर्तिना। एवं विकृतरूपेण कथं याजितुमिच्छसि।। | 14-14-8a 14-14-8b |
भ्राता मम समर्थश्च वासवेन च सङ्गतः। वर्तते याजने चैव तेन कर्माणि कारय।। | 14-14-9a 14-14-9b |
गार्हस्थ्यं चैव याज्याश्च सर्वा गृह्याश्च देवताः। पूर्वजेन ममाक्षिप्तं शरीरं वर्जितं त्विदम्।। | 14-14-10a 14-14-10b |
नाहं तेनाननुज्ञातस्त्वामाविक्षित कर्हिचित्। याजयेयं कथंचिद्वै स हि पूज्यतमो मम।। | 14-14-11a 14-14-11b |
स त्वं बृहस्पतिं गच्च तमनुज्ञाप्य चाव्रज। ततोऽहं याजयिष्ये त्वां यदि यष्टुमिहेच्छसि।। | 14-14-12a 14-14-12b |
मरुत्त उवाच। | 14-14-13x |
बृहस्पतिं गतः पूर्वमहं संवर्ते तच्छृणु। न मां कामयते याज्यं मुनिर्वासववारितः।। | 14-14-13a 14-14-13b |
अमरं याज्यमासाद्य याजयिष्ये न मानुषम्। शक्रेण प्रतिषिद्धोऽहं मरुत्तं मा स्म याजये।। | 14-14-14a 14-14-14b |
स्पर्धते हि मया विप्र सदा हि स तु पार्थिवः। एवमस्त्विति चाप्युक्तो भ्रात्रा ते बलसूदनः।। | 14-14-15a 14-14-15b |
स मामधिगतं प्रेम्णा याज्यत्वे न बुभूषति। देवराजं समाश्रित्य तद्विद्धि मुनिपुङ्गव।। | 14-14-16a 14-14-16b |
सोहमिच्छामि भवता सर्वस्वेनापि याजितुम्। कामये समतिक्रान्तुं वासवं त्वत्कृतैर्गुणैः।। | 14-14-17a 14-14-17b |
न हि मे वर्तते बुद्धिर्गन्तुं ब्रह्मन्बृहस्पतिम्। प्रत्याख्यातो हि तेनास्मि तथाऽनपकृते सति।। | 14-14-18a 14-14-18b |
संवर्त उवाच। | 14-14-19x |
चिकीर्षसि यथाकामं सर्वमेतत्त्वयि ध्रुवम्। यदि सर्वानभिप्रायान्कर्तासि मम पार्थिव।। | 14-14-19a 14-14-19b |
याज्यमानं मया हि त्वां बृहस्पतिपुंरदरौ। द्विषेतां समभिक्रुद्धावेतदेकं समर्थये।। | 14-14-20a 14-14-20b |
स्थैर्यमत्र कथं मे स्यात्स त्वं निःसंशयं कुरु। कुपितस्त्वां न हीदानीं भस्म कुर्या सवान्धवम्।। | 14-14-21a 14-14-21b |
मरुत्त उवाच। | 14-14-22x |
यावत्तपेत्सहस्रांशुस्तिष्ठेरंश्चापि पर्वताः। तावल्लोकान्न लभेयं त्यजेयं सङ्गतं यदि।। | 14-14-22a 14-14-22b |
मा चापि शुभबुद्धित्वं लभेयमिह कर्हिचित्। विषयैः सङ्गतं चास्तु त्यजेयं सङ्गतं यदि।। | 14-14-23a 14-14-23b |
संवर्त उवाच। | 14-14-24x |
आविक्षित शुभा बुद्धिर्वर्ततां तव कर्मसु। याजनं हि ममाप्येव वर्तते हृदि पार्थिव।। | 14-14-24a 14-14-24b |
अभिधास्ते च ते राजन्नक्षयं द्रव्यमुत्तमम्। येन देवान्सग्धर्वाञ्शक्रं चाभिभविष्यसि।। | 14-14-25a 14-14-25b |
न तु मे वर्तते बुद्धिर्धने याज्येषु वा पुनः। विप्रियं तु करिष्यामि भ्रातुश्चेन्द्रस्य चोभयो।। | 14-14-26a 14-14-26b |
गमयिष्यामि शक्रेण समतामपि ते ध्रुवम्। प्रियं च ते करिष्यामि सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 14-14-27a 14-14-27b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अश्वमेधपर्वणि सप्तमोऽध्यायः।। 7 ।। |
14-14-1 मे सत्यं जीवितं चेत्प्रियंतवेति क.थ.पाठः।। 14-14-4 सत्रिणं कपटवेषच्छन्नम्।। 14-14-6 अहमप्येनं कुर्यामिति तमब्रवीदिति क.थ.पाठः।। 14-14-8 मधुप्रयोगदानेन स्वचित्तपरिवर्तिनेति क.थ.पाठः।। 14-14-23 भोगेषु सम्यग्भोगांश्च त्यजेयमिति क.थ.पाठः।।
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