महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-107
दिखावट
← आश्वमेधिकपर्व-106 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-107 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-108 → |
|
कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति साक्षाद्ब्रह्महत्याया अकरणेपि तत्तुल्यफलकदुष्कृतकथनम्। 1 ।। तथा अभोज्यान्नानां पापिनां लक्षणकथनम्।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 14-107-1x |
इदं मे तत्वतो देव वक्तुमर्हस्यशेषतः। हिंसामकृत्वा यो मर्त्यो ब्रह्महत्यामवाप्नुयात्।। | 14-107-1a 14-107-1b |
भगवानुवाच। | 14-107-2x |
ब्राह्मणं स्वयमाहूय भिक्षार्थं वृत्तिकर्शितम्। ब्रूयान्नास्तीति यः पश्चात्तमाहुर्ब्रह्मघातकम्।। | 14-107-2a 14-107-2b |
मध्यस्थस्येह विप्रस्य योऽनूचानस्य भारत। वृत्तिं हरति दुर्बुद्धइस्तमाहुर्ब्रह्मघातकम्।। | 14-107-3a 14-107-3b |
आश्रमे वाऽऽलये वाऽपि ग्रामे वा नगरेऽपि वा। अग्निं यः प्रक्षिपेत्क्रुद्धस्तमाहुर्ब्रह्मघातकम्।। | 14-107-4a 14-107-4b |
गोकुलस्य तृषार्तस्य जलान्ते वसुधाधिप। उत्पादयति यो विघ्नं तमाहुर्ब्रह्मघातकम्।। | 14-107-5a 14-107-5b |
यः प्रवृत्तां श्रुतिं सम्यक्छास्त्रं वा मुनिभिः कृतम्। दूषयत्यनभिज्ञाय तमाहुर्ब्रह्मघातकम्।। | 14-107-6a 14-107-6b |
चक्षुषा वाऽपि हीनस्य पङ्गोर्वाऽपि जडस्य वा। हरेद्वै यस्तु सर्वस्वं तमाहुर्ब्रह्मघातकम्।। | 14-107-7a 14-107-7b |
गुरुं त्वंकृत्यं हुंकृत्य अतिक्रम्य च शासनम्। वर्तते यस्तु मूढात्मा तमाहुर्ब्रह्मघातकम्।। | 14-107-8a 14-107-8b |
क्रोधाद्वा यदि वा द्वेषादाक्रुष्टस्तर्जितोपि वा। ऋतौ स्त्रियं वा नोपेयात्तमाहुर्ब्रह्मघातकम्।। | 14-107-9a 14-107-9b |
यावत्सारो भवेद्दीनस्तन्नाशे यस्य दुःस्थितिः। तत्सर्वस्वं हरेद्यो वै तमाहुर्ब्रह्मघातकम्।। | 14-107-10a 14-107-10b |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-107-11x |
सप्वेषामपि दानानां यत्तु दानं विशिष्यते। अभोज्यान्नाश्च ये विप्रास्तान्ब्रवीहि सुरोत्तम।। | 14-107-11a 14-107-11b |
भगवानुवाच। | 14-107-12x |
अन्नमेव प्रशंसन्ति देवा ब्रह्मपुरस्सराः। अन्नेन सदृशं दानं न भूतं न भविष्यति।। | 14-107-12a 14-107-12b |
अन्नमूर्जस्करं लोके ह्यन्नात्प्राणाः प्रतिष्ठिताः। अबोज्यान्नान्मया राजन्वक्ष्यमाणान्निबोध मे।। | 14-107-13a 14-107-13b |
दीक्षितस्य कदर्यस्य क्रुद्धस्य निकृतस्य च। अभिशप्तस्य षण्डस्य पाकभेदकरस्य च।। | 14-107-14a 14-107-14b |
चिकित्सकस्य दूतस्य तथा चोच्छिष्टभोजिनः। उग्रान्नं सूतकान्नं च शूद्रोच्छेषणमेव च।। | 14-107-15a 14-107-15b |
द्विषदन्नं न भोक्तव्यं पतितान्नं च यच्छ्रुतम्। तथा च पिशुनस्यान्नं यज्ञविक्रयिणस्तथा।। | 14-107-16a 14-107-16b |
शैलूषं तन्तुवायान्नं कृतघ्नस्यान्नमेव च। अंबष्ठकनिषादानां रङ्गावतरकस्य च।। | 14-107-17a 14-107-17b |
सुवर्णकर्तुर्वैणस्यि शस्त्रविक्रयिणस्तथा। सूताना शौण्डिकानां च वैद्यस्य रजकस्य च।। | 14-107-18a 14-107-18b |
स्त्रीजितस्य नृशंसस्य तथा माहिषिकस्य च। अनिर्दशानां प्रेतानां गणिकानां तथैव च।। | 14-107-19a 14-107-19b |
बन्दिनो द्यूतकर्तुश्च तथा द्यूतविदामपि। परिवित्तस्य यच्चान्नं परिवेत्तुस्तथैव च।। | 14-107-20a 14-107-20b |
यश्चाग्रदिधिषुर्विप्रो दिधिषूपपिस्तथा। तयोरप्युभयोरन्नं राज्ञां चापि विवर्जयेत्।। | 14-107-21a 14-107-21b |
राजान्नं तेज आदत्ते शूद्रान्नं ब्रह्मवर्चसम्। आयुः सुवर्णकारान्नं यशश्चार्मावकृन्तिनः।। | 14-107-22a 14-107-22b |
गणान्नं गणिकान्नं च लोकेभ्यः परिकीर्तितम्। पूयं चिकित्सकस्यान्नं शुक्लं तु वृषलीपतेः।। | 14-107-23a 14-107-23b |
विष्ठा वार्धुषिकस्यान्नं तस्मात्तत्परिवर्जयेत्। तेषां त्वगस्थिरोमाणि भुङ्क्ते योऽन्नं तु भक्षयेत्।। | 14-107-24a 14-107-24b |
अमात्यान्नमथैतेषां भुक्त्वा तु त्रियहं क्षिपेत्। मत्या भुक्त्वा सकृद्वाऽपि प्राजापत्यं चरेद्द्विजः।। | 14-107-25a 14-107-25b |
दानानां च फलं यद्वै शृणु पाण्डव तत्वतः। जलदस्तृप्तिमाप्नोति सुखमक्षयमन्नदः।। | 14-107-26a 14-107-26b |
तिलदश्च प्रजामिष्टां दीपदश्चक्षुरुत्तमम्। भूमदो भूमिमाप्नोति दीर्घमायुर्हिरण्यदः।। | 14-107-27a 14-107-27b |
गृहदोऽग्र्याणि वेश्मानि रूप्यदो रूपमुत्तमम्। वासोदश्चन्द्रसालोक्यमश्विसालोक्यमश्वदः।। | 14-107-28a 14-107-28b |
अनडुद्दः श्रियं जुष्टां गोदो गोलोकमश्नुते। यानशय्याप्रदो भार्यामैश्वर्यमभयप्रदः।। | 14-107-29a 14-107-29b |
धान्यदः शाश्वतं सौख्यं ब्रह्मदो ब्रह्मसाम्यताम्। सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते।। | 14-107-30a 14-107-30b |
हिरण्यभूगवाश्वाजवस्त्रशय्यासनादिषु। योर्चितः प्रतिगृह्णाति दद्यादुचितमेव च। तावुभौ गच्छतः स्वर्गं नरकं च विपर्यये।। | 14-107-31a 14-107-31b 14-107-31c |
अनृतं न वदेद्विद्वांस्तपस्तप्त्वा न विस्मयेत्। नार्तोप्यभिभवेद्विप्रान्न दत्त्वा परिकीर्तयेत्।। | 14-107-32a 14-107-32b |
यज्ञोऽनृतेन क्षरति तपः क्षरति विस्मयात्। आयुर्विप्रावमानेन दानं तु परिकीर्तनात्।। | 14-107-33a 14-107-33b |
एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रमीयते। अकोऽनुभुङ्क्ते सुकृतमेकश्चाप्नोति दुष्कृतम्।। | 14-107-34a 14-107-34b |
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं क्षितौ। विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुवर्तते।। | 14-107-35a 14-107-35b |
अनागतानि कार्याणि कर्तुं गणयते मनः। शरीरकं समुद्दिश्य स्मयते नूनमन्तकः।। | 14-107-36a 14-107-36b |
तस्माद्धर्मसहासस्तु धर्मं संचिनुयात्सदा। धर्मेण हि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम्।। | 14-107-37a 14-107-37b |
येषां तटाकानि बहूदकानि सभाश्च कूपाश्च शुभाः प्रपाश्च। अन्नप्रदानं मधुरा च वाणी यमस्य ते निर्विषया भवन्ति।। | 14-107-38a 14-107-38b 14-107-38c 14-107-38d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि सप्ताधिकशततमोऽध्यायः।। 107 |
आश्वमेधिकपर्व-106 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-108 |