महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-065
दिखावट
← आश्वमेधिकपर्व-064 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-065 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-066 → |
|
युधिष्ठिरेण विधिवन्नानाषलिहरणादिना सपरिचरमहेश्वरपतितोषणेन विविधकनकभाण्डाहरणेन पुनर्नगरंप्रत्यागमनम्।। 1 ।।
ब्राह्मणा ऊचुः। | 14-65-1x |
क्रियतामुपहारोऽद्य त्र्यम्बकस्य महात्मनः। दत्त्वोपहारं नृपते ततः स्वार्थं यतामहे।। | 14-65-1a 14-65-1b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-65-2x |
श्रुत्वा तु वचनं तेषां ब्राह्मणानां युधिष्ठिरः। गिरीशस्य यथान्यायमुपहारमुपाहरत्।। | 14-65-2a 14-65-2b |
आज्येन तर्पयित्वाऽग्निं विधिवत्संस्कृतेन च। मन्त्रसिद्धं चरुं कृत्वा पुरोधाः स ययै तदा।। | 14-65-3a 14-65-3b |
स गृहीत्वा सुमनसो मन्त्रपूता जनाधिप। मोदकैः पायसेनाथ मांसैश्चोपाहरद्बलिंम्।। | 14-65-4a 14-65-4b |
सुमनोभिश्च चित्राभिर्लाजैरुच्चावचैरपि। सर्वं स्विष्टकृतं हुत्वा विधिवद्वेदपारगः। किंकराणां ततः पश्चाच्चकार बलिमुत्तमम्।। | 14-65-5a 14-65-5b 14-65-5c |
यक्षेन्द्राय कुबेराय माणिभद्राय चैव ह। तथाऽन्येषां च यक्षाणां भूतानां पतयश्च ये।। | 14-65-6a 14-65-6b |
कृसरेण च मांसेन निवापैस्तिलसंयुतैः। ओदनं कुम्भशः कृत्वा पुरोधाः समुपाहरत्।। | 14-65-7a 14-65-7b |
ब्राह्मणेभ्यः सहस्राणि गवां दत्वा तु भूमिपः। नक्तंचराणां भूतानां व्यादिदेश बलि तदा।। | 14-65-8a 14-65-8b |
धूपगन्धनिरुद्धं तत्सुमनोभिश्च संवृतम्। शुशुभे स्थानमत्यर्थं देवदेवस्य पार्थिवः।। | 14-65-9a 14-65-9b |
कृत्वा पूजां तु रुद्रस्य गणानां चैव सर्वशः। ययौ व्यासं पुरस्कृत्य नृपो रत्ननिधिं प्रति।। | 14-65-10a 14-65-10b |
पूजयित्वा धनाध्वक्षं प्रणिपत्याभिवाद्य च। सुमनोभिर्विचित्राभिरपूपैः कृसरेण च।। | 14-65-11a 14-65-11b |
शङ्खादींश्च निधीन्सर्वान्निधिपालांश्च सर्वशः। अर्चयित्वा द्विजाग्र्या स्वस्ति वाच्य च वीर्यवान् | 14-65-12a 14-65-12b |
तेषां पुण्याहघोषेण तेजसा समवस्थितः। प्रीतिमान्स कुरुश्रेष्ठः खानयामासं तं निधिम्।। | 14-65-13a 14-65-13b |
ततः पात्री सकरका बहुरूपा मनोरमाः। भृङ्गाराणि कटाहानि कलशान्वर्धमानकान्।। | 14-65-14a 14-65-14b |
बहूनि च विचित्राणि भाजनानि सहस्रशः। उद्धारयामास तदा धर्मराजो युधिष्ठिरः।। | 14-65-15a 14-65-15b |
तेषां रक्षणमप्यासीन्महान्करपुटस्तथा। नद्धं च भाजनं राजंस्तुलार्धमभवन्नृप।। | 14-65-16a 14-65-16b |
वाहनं पाण्डुपुत्रस्य तत्रासीत्तु विशांपते। षष्टिरुष्ट्रसहस्राणि शतानि द्विगुणा हयाः।। | 14-65-17a 14-65-17b |
वारणाश्च महाराज सहस्रशतसंमिताः। शकटानि रथाश्चैव तावदेव करेणवः। स्वराणां पुरुषाणां च परिसङ्ख्या न विद्यते।। | 14-65-18a 14-65-18b 14-65-18c |
एतद्वित्तं तदभवद्यदुद्दध्रे युधिष्ठिरः। षोडशाष्टौ चतुर्विंशत्सहस्रं भारलक्षणम्।। | 14-65-19a 14-65-19b |
एतेष्वादाय तद्द्रव्यं पुनरभ्यर्च्य पाण्डवः। महादेवं प्रति ययौ पुरं नागाहयं प्रति।। | 14-65-20a 14-65-20b |
द्वैपायनाभ्यनुज्ञातः पुरस्कृत्य पुरोहितम्। गोरुते गोरुते चैव न्यवसत्पुरुषर्षभः।। | 14-65-21a 14-65-21b |
सा पुराऽभिमुखा राजन्नुवाह महती चमूः। कृच्छ्राद्द्रविणभारार्ता हर्षयन्ती कुरूद्वहान्।। | 14-65-22a 14-65-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि पञ्चषष्टितमोऽध्यायः।। 65 ।। |
14-65-14 पात्रीः महान्ति ओदनोद्धरणपात्राणि। करका अल्पघटाः। भृङ्गाराणि गडुकान्। वर्धमानकान् शरावाणि।। 14-65-16 करपटः करसंपुटाकारं द्विजलभाजनं उष्ट्रादिवाह्यम् संदूख इति प्रसिद्धम्।।
आश्वमेधिकपर्व-064 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-066 |