महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-023

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ब्राह्मण उवाच। 14-23-1x
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
सुभगे सप्तहोतॄणां विधानमिह यादृशम्।।
14-23-1a
14-23-1b
घ्राणश्चक्षुश्च जिह्वा च त्वक् श्रोत्रं चैव पञ्चमम्।
मनो बुद्धिश्च सप्तैते होतारः पृथगाश्रिताः।।
14-23-2a
14-23-2b
सूक्ष्माकाशे समं प्राप्ते न पश्यन्तीतरेतरम्।
एतद्वै सप्तहोतृत्वं स्वभावाद्विद्धि शोभने।।
14-23-3a
14-23-3b
ब्राह्मण्युवाच। 14-23-4x
सूक्ष्मे तु काशे सम्प्राप्ते कथं नान्योन्यदर्शिनः।
कथं स्वभावाद्भगवन्नेतदाचक्ष्व मे प्रभो।।
14-23-4a
14-23-4b
ब्राह्मण उवाच। 14-23-5x
गुणज्ञानेषु विज्ञानं गुणज्ञानामभिज्ञता।
परस्परं गुणानेते नाभिजानन्ति कर्हिचित्।।
14-23-5a
14-23-5b
जिह्वा चक्षुस्तथा श्रोत्रं त्वङ्मनो बुद्धिरेव च।
न गन्धानधिगच्छन्ति घ्राणस्तानधिगच्छति।।
14-23-6a
14-23-6b
घ्राणं चक्षुस्तथा क्षोत्रं त्वङ्मनो बुद्धिरेव च।
न रसानधिगच्छन्ति जिह्वा तानधिगच्छति।।
14-23-7a
14-23-7b
घ्राणं जिह्वा तथा श्रोत्रं त्वङ्मनो बुद्धिरेव च।
न रूपाण्यधिगच्छन्ति चक्षुस्तान्यधिगच्छति।।
14-23-8a
14-23-8b
घ्राणं जिह्वा ततश्चक्षुः श्रोत्रं बुद्धिर्मनस्तथा।
न स्पर्शानधिगच्छन्ति त्वक्च तानधिगच्छति।।
14-23-9a
14-23-9b
घ्राणं जिह्वा च चक्षुश्च त्वङ्मनो बुद्धिरेव च।
न शब्दानधिगच्छन्ति श्रोत्रं तानधिगच्छति।।
14-23-10a
14-23-10b
घ्राणं जिह्वा च चक्षुश्च त्वक् श्रोत्रं बुद्धिरेव च।
सङ्कल्पान्नाधिगच्छन्ति मनस्तानधिगच्छति।।
14-23-11a
14-23-11b
घ्राणं जिह्वा च चक्षुश्च त्वक् श्रोत्रं मन एव च।
न निष्ठामधिगच्छन्ति बुद्धिस्तामधिगच्छति।।
14-23-12a
14-23-12b
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
इन्द्रियाणां च संवादं मनसश्चैव भामिनि।।
14-23-13a
14-23-13b
मन उवाच। 14-23-14x
नाघ्राति मामृते घ्राणं रसं जिह्वा न वेत्ति च।
रूपं चक्षुर्न गृह्णाति त्वक् स्पर्सं नावबुध्यते।।
14-23-14a
14-23-14b
न श्रोत्रं बुध्यते शब्दं मया हीनं कथञ्चन।
प्रवरं सर्वबूतानामहमस्मि सनातनम्।।
14-23-15a
14-23-15b
अगाराणीव शून्यानि शान्तार्चिष इवाग्नयः।
इन्द्रियाणि न भासन्ते मया हीनानि नित्यशः।।
14-23-16a
14-23-16b
काष्ठानीवार्द्रशुष्काणि यतमानैरपीन्द्रियैः।
गुणार्थान्नाधिगच्छन्ति मामृते सर्वजन्तवः।।
14-23-17a
14-23-17b
इन्द्रियाण्यूचुः। 14-23-18x
एवमेतद्भवेत्सत्यं यथैतन्मन्यते भवान्।
ऋतेऽस्मानस्मदर्थांस्त्वं भोगान्भुङ्क्ते भवान्यदि।।
14-23-18a
14-23-18b
यद्यस्मासु प्रलीनेषु तप्रणं प्राणधारणम्।
भोगान्भुङ्क्ते भवान्सत्यं यथैतन्मन्यते तथा।।
14-23-19a
14-23-19b
अथवाऽस्मासु लीनेषु तिष्ठत्सु विषयेषु च।
यदि सङ्कल्पमात्रेण भुङ्क्ते भोगान्यथार्थवत्।।
14-23-20a
14-23-20b
अथ चेन्मन्यसे सिद्धिमस्मदर्थेषु नित्यदा।
घ्राणेन रूपमादत्स्व रसमादत्स्व चक्षुषा।।
14-23-21a
14-23-21b
श्रोत्रेण गन्धानादत्स्व स्पर्शानादत्स्व जिह्वया।
त्वचा च शब्दमादत्स्व बुद्ध्या स्पर्शमथापि च।।
14-23-22a
14-23-22b
बलवन्तो ह्यनियमा नियमा दुर्बलीयसाम्।
भोगानपूर्वानादत्स्व नोच्छिष्टं भोक्तुमर्हति।।
14-23-23a
14-23-23b
यथा हि शिष्यः शास्तारं श्रुत्यर्थमभिधावति।
ततः श्रुतमुपादाय श्रुतार्थमुपतिष्ठति।।
14-23-24a
14-23-24b
विषयानेवमस्माभिर्दर्शितानभिमन्यसे।
अनुभूतानतीतांश्च स्वप्ने जागरणे तथा।।
14-23-25a
14-23-25b
वैमनस्यं गतानां च जन्तूनामल्पचेतसाम्।
अस्मदर्थे कृते दृश्यते प्राणधारणम्।।
14-23-26a
14-23-26b
बहूनपि हि सङ्कल्पान्मत्वा स्वप्नानुपास्य च।
बुभुक्षया पीड्यमानो विषयानेन धावति।।
14-23-27a
14-23-27b
अगारमद्वारमिव प्रविश्य
सङ्कल्पभोगान्विषयानविन्दन्।
प्राणक्षये शान्तिमुपैति नित्यं
दारुक्षयेऽग्निर्ज्वलितो यथैव।।
14-23-28a
14-23-28b
14-23-28c
14-23-28d
कामं तु नष्टेषु गुणेषु सङ्गः
कामं च नान्योन्यगुणोपलब्धिः।
अस्मान्विना नास्ति तपोपलब्धि-
स्तामप्यृते त्वां न भजेत्प्रहर्षः।।
14-23-29a
14-23-29b
14-23-29c
14-23-29d
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अनुगीतापर्वणि त्रयोविंशोऽध्यायः।। 23 ।।

[सम्पाद्यताम्]

कृष्णेनार्जुनंप्रति पृथग्घ्राणादीन्द्रियगुणप्रतिपादनपूर्वकं तेषां मनसा सह विवादप्रतिपादकब्राह्मणदंपतिसंवादानुवादः।। 1 ।।

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