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महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-118

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महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-118
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति पालाशविधिप्रकारकथनम्।। 1 ।। तथा तीर्थाटनासमर्थानां तत्प्रतिनिधितीर्थानुवर्णनम्।। 2 ।। तथा भगवद्भक्तलक्षणकथनपूर्वकं तत्प्रशंसनम्।। 3 ।। तता स्वस्य सर्वोत्तमत्वकथनपूर्वकं स्वोक्तध्रमश्रवणस्य फलकथनम्।। 4 ।। ततो युधिष्ठिराद्यामन्त्रपूर्वकं दारुकोपनीतरथारोहणेन द्वारकांप्रति गमनम्।। 5 ।।

युधिष्ठिर उवाच। 14-118-1x
देशान्तरगते विप्रे संयुक्ते कालधर्मणा।
शरीरनाशे संप्राप्ते कथं प्रेतत्वकल्पना।।
14-118-1a
14-118-1b
भगवानुवाच। 14-118-2x
श्रूयतामाहिताग्नेस्तु तथाभूतस्य संस्क्रिया।
पालाशबृन्दैः प्रतिमा कर्तव्या कल्पचोदिता।।
14-118-2a
14-118-2b
त्रीणि षष्टिशतान्याहुरस्थीन्यस्य युधिष्ठिर।
तेषां विकल्पना कार्या यथाशास्त्रं विनिश्चितम्।।
14-118-3a
14-118-3b
अशीत्यर्धं शिरसि च ग्रीवायां दश एव च।
बाह्वोश्चापि शतं दद्यादङ्गुलीषु पुनर्दश।।
14-118-4a
14-118-4b
उरसि त्रिंशतं दद्याज्जठरे वाऽपि विंशतिम्।
वृषणे द्वादशार्धं तु शिश्ने चाष्टार्धमेव च।।
14-118-5a
14-118-5b
दद्यात्तु शतमूर्वोस्तु षष्ट्यर्थं जानुजङ्घयोः।
दश दद्याच्चरणयोरेषा प्रेतस्य निष्कृतिः।।
14-118-6a
14-118-6b
युधिष्ठिर उवाच। 14-118-7x
विशेषतीर्थं सर्वेषामशक्तानामनुग्रहात्।
भक्तानां तारणार्तं तु वक्तुमर्हसि धर्मतः।।
14-118-7a
14-118-7b
भगवानुवाच। 14-118-8x
पावनं सर्वतीर्थानां सत्यं गायन्ति सामगाः।
सत्यस्य वचनं तीर्थमहिंसा तीर्थमुच्यते।।
14-118-8a
14-118-8b
तपस्तीर्थं दया तीर्थं शीलं तीर्थं युधिष्ठिर।
अल्पसंतोषकं तीर्थं नारी तीर्थं पतिव्रता।।
14-118-9a
14-118-9b
संतुष्टो ब्राह्मणस्तीर्थं ज्ञानं वा तीर्थमुच्यते।
मद्भक्तः सततं तीर्थं शङ्करस्य विशेषतः।।
14-118-10a
14-118-10b
यतयस्तीर्थमित्येवं विद्वांसस्तीर्थमुच्यते।
शरण्यपुरुषस्तीर्थमभयं तीर्थमुच्यते।।
14-118-11a
14-118-11b
त्रैलोक्येऽस्मिन्निरुद्विग्नो न बिभेमि कुतश्चन।
न दिवा यदि वा रात्रावुद्वेगः शूद्रलङ्घनात्।।
14-118-12a
14-118-12b
न भयं देवदैत्येभ्यो रक्षोभ्यश्चैव मे नृप।
शूद्रवक्त्राच्च्युतं ब्रह्म भयं तु मम सर्वदा।।
14-118-13a
14-118-13b
तस्मात्सप्रणवं शूद्रो मन्नामापि न कीर्तयेत्।
प्रणवं हि परं लोके ब्रह्म ब्रह्मविदो विदुः।।
14-118-14a
14-118-14b
द्विजशुश्रूषणं धर्मः शूद्राणां भक्तितो मयि।
तेन गच्छन्ति ते स्वर्गं चिन्तयन्तो हि मां सदा।।
14-118-15a
14-118-15b
द्विजशुश्रूषया शूद्रः परं श्रेयोऽधिगच्छति।
द्विजशुश्रूषणादन्यन्नास्ति शूद्रस्य निष्कृतिः।।
14-118-16a
14-118-16b
रागो द्वेषश्च मोहश्च पारुष्यं चानृशंसता।
शाठ्यं च दीर्घवैरित्वमतिमानमनार्जवम्।।
14-118-17a
14-118-17b
अनृतं चापवादं च पैशुन्यमतिलोभता।
हिंसा स्तेयो मृषावादो वञ्चना रोषलोभता।।
14-118-18a
14-118-18b
अबुद्धिता च नास्तिक्यं भयमालस्यमेव च।
अशौचं चाकृतज्ञत्वं डंभता स्तंभ एव च।
निकृतिश्चाप्यविज्ञानं जातके शूद्रमाविशेत्।।
14-118-19a
14-118-19b
14-118-19c
सृष्ट्वा पितामहः शूद्रमभिभूतं तु तामसैः।
द्विजशुश्रूषणं धर्मं शूद्राणां तु प्रयुक्तवान्।
नश्यन्ति तामसा भावाः शूद्रस्य द्विजभक्तितः।।
14-118-20a
14-118-20b
14-118-20c
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतं मूर्ध्ना गृह्णामि शूद्रतः।।
14-118-21a
14-118-21b
अग्रजो वाऽपि यः कश्चित्सर्वपापसमन्वितः।
यदि मां सततं ध्यायेत्सर्वपापैः प्रमुच्यते।।
14-118-22a
14-118-22b
विद्याविनयसंपन्ना ब्राह्मणा वेदपारगाः।
मयि भक्ति न कुर्वन्ति चण्डालसदृशा हि ते।।
14-118-23a
14-118-23b
वृथा दानं वृथा तप्तं वृथा चेष्टं वृथा हुतम्।
वृथाऽऽतिथ्यं च तत्तस्य यो न भक्तो मम द्विजः।।
14-118-24a
14-118-24b
यत्कृतं च हुतं चापि यदिष्टं दत्तमेव च।
अभक्तिमत्कृतं सर्वं राक्षसा एव भुञ्जते।।
14-118-25a
14-118-25b
स्थावरे जङ्गमे वाऽपि सर्वभूतेषु पाण्डव।
समत्वेन यदा कुर्यान्मद्भक्तो मित्रशत्रुषु।।
14-118-26a
14-118-26b
आनृशंस्यमहिंसा च यथा सत्यं तथाऽऽर्जवम्।
अद्रोहश्चैव भूतानां मद्गतानां व्रतं नृप।।
14-118-27a
14-118-27b
नम इत्येव यो ब्रूयान्मद्भक्तं श्रुद्धयाऽन्वितः।
तस्याक्षयाऽभवँल्लोकाः श्वपाकस्यापि पार्थिव।।
14-118-28a
14-118-28b
किं पुनर्ये यजन्ते मां सदारं विधिपूर्वकम्।
मद्भक्ता मद्गतप्राणाः कथयन्तश्च मां सदा।।
14-118-29a
14-118-29b
बहुवर्षसहस्राणि तपस्तप्यति यो नरः।
नासौ पदमवाप्नोति मद्भक्तैर्यदवाप्यते।।
14-118-30a
14-118-30b
मामेव तस्माद्राजेन्द्र ध्यायन्नित्यमतन्द्रितः।
अवाप्स्यति ततः सिद्धिं द्रक्ष्यत्येव परं पदम्।।
14-118-31a
14-118-31b
अपार्थकं प्रभाषन्तः शूद्रा भागवता इति।
न शूद्रा भगवद्भक्ता विप्रा भागवताः स्मृताः।।
14-118-32a
14-118-32b
द्वादशाक्षरतत्वज्ञश्चतुर्व्यूहविभागवित्।
अच्छिद्रपञ्चकालज्ञः स वै भागवतः स्मृतः।।
14-118-33a
14-118-33b
ऋग्वेदेनैव होता च यजुषाऽध्वर्युरेव च।
सामवेदेन चोद्गाता पुण्येनाभिष्टुवन्ति माम्।।
14-118-34a
14-118-34b
अथर्वशिरसा चैव नित्यमाथर्वाणा द्विजाः।
स्तुवन्ति सततं ये मां ते वै भागवताः स्मृताः।।
14-118-35a
14-118-35b
वेदाधीनाः सदा यज्ञा यज्ञाधीनास्तु देवताः।
देवता ब्राह्मणाधीनास्तस्माद्विप्रास्तु देवताः।।
14-118-36a
14-118-36b
अनाश्रित्योच्छ्रयं नास्ति मुख्यमानश्रयमाश्रयेत्।
रुद्रं समाश्रिता देवा रुद्रो ब्रह्माणमाश्रितः।।
14-118-37a
14-118-37b
ब्रह्मा मामाश्रितो राजन्नाहं कंचिदुपाश्रितः।
ममाश्रयो न कश्चित्तु सर्वेषामाश्रयो ह्यहम्।।
14-118-38a
14-118-38b
एवमेतन्मया प्रोक्तं रहस्यमिदमुत्तमम्।
धर्मप्रियस्य ते नित्यं राजन्नेवं समाचर।।
14-118-39a
14-118-39b
इदं पवित्रमाख्यानं पुण्यं वेदेन संमितम्।
यः पठेन्मामकं धर्ममहन्यहनि पाण्डव।।
14-118-40a
14-118-40b
धर्मोति वर्धते तस्य बुद्धिश्चापि प्रसीदति।
पापक्षयमुपेत्यैवं कल्याणं च विवर्धते।।
14-118-41a
14-118-41b
एतत्पुण्यं पवित्रं च पामनाशनमुत्तमम्।
श्रोतव्यं श्रद्धया युक्तैः श्रोत्रियैश्च विशेषतः।।
14-118-42a
14-118-42b
श्रावयेद्यस्त्विदं भक्त्या प्रयतोथ शृणोति वा।
स गच्छेन्मम सायुज्यं नात्र कार्या विचारणा।।
14-118-43a
14-118-43b
यश्चेमं श्रावयेच्छ्राद्धे मद्भक्तो मत्परायणः।
पितरस्तस्य तृप्यन्ति यावदाभूतसंप्लवम्।।
14-118-44a
14-118-44b
वैशम्पायन उवाच। 14-118-45x
श्रुत्वा भागवतान्धर्मान्साक्षाद्विष्णोर्जगद्गुरोः।
प्रहृष्टमनसो भूत्वा चिन्तयन्तोद्भुताः कथाः।।
14-118-45a
14-118-45b
ऋषय पाण्डवाश्चैव प्रणेमुस्तं जनार्दनम्।
पूजयामास गोविन्दं धर्मपुत्रः पुनः पुनः।।
14-118-46a
14-118-46b
देवा ब्रह्मर्षयः सिद्धा गन्धर्वाप्सरसस्तथा।
ऋषयस्च महात्मानो गुह्यका भुजगास्तता।।
14-118-47a
14-118-47b
वालखिल्या महात्मानो योगिनस्तत्वदर्शिनः।
तथा भागवताश्चापि पञ्चकालमुपासकाः।।
14-118-48a
14-118-48b
कौतूहलसमायुक्ता भगवद्भक्तिमागताः।
श्रुत्वा तु परमं पुण्यं वैष्णवं धर्मशासनम्।।
14-118-49a
14-118-49b
विमुक्तपापाः पूतास्ते संवृत्तास्तत्क्षणेन् तु।
प्रणम्य शिरसा विष्णु प्रतिनन्द्य च ताः कथाः।।
14-118-50a
14-118-50b
द्रष्टारो द्वारकायां वै वयं सर्वे जगद्गुरुम्।
इति प्रहृष्टमनसो ययुर्देवगणैः सह।
सर्वे ऋषिगणा राजन्ययुः स्वंस्वं निवेशनम्।।
14-118-51a
14-118-51b
14-118-51c
गतेषु तेषु सर्वेषु केशवः केशिहा हरिः।
सस्मार दारुकं राजन्स च सात्यकिना सह।
समीपस्थोऽभवत्सूतो याहि देवेति चाब्रवीत्।।
14-118-52a
14-118-52b
14-118-52c
ततो विषण्णवदनाः पाण्डवाः पुरुषोत्तमम्।
अञ्जलिं मूर्ध्नि संधाय नेत्रैरश्रुपरिप्लुतैः।
पिबन्तः सततं कृष्णं नोचुरार्ततरास्तदा।।
14-118-53a
14-118-53b
14-118-53c
कृष्णोपि भगवान्देवः पृथामामन्त्र्य चार्तवत्।
धृतराष्ट्रं च गान्धारीं विगदुरं द्रौपदीं तथा।।
14-118-54a
14-118-54b
कृष्णद्वैपायनं व्यासमृषीनन्यांस्च मन्त्रिणः।
सुभद्रामात्मजयुतामुत्तरां स्पृश्य पाणिना।
निर्गत्य वेश्मनस्तस्मादारुरोह तदा रथम्।।
14-118-55a
14-118-55b
14-118-55c
वाजिभिः शैव्यसुग्रीवमेघपुष्पबलाहकैः।
युक्तं तु ध्वजभूतेन पतगेन्द्रेण धीमता।।
14-118-56a
14-118-56b
अन्वारुरोह चाप्येन प्रेम्या राजा युधिष्ठिरः।
अपास्य चाशु यन्तारं दारुकं सूतसत्तमम्।
अभीशून्प्रतिजग्राह स्वयं कुरुपतिस्तदा।।
14-118-57a
14-118-57b
14-118-57c
उपारुह्यार्जुनश्चापि चामरव्यजनं शुभम्।
रुक्मदण्डं बृहन्मूर्ध्नि दुधावाभिप्रदक्षिणम्।।
14-118-58a
14-118-58b
तथैव भीमसेनोपि रथमारुह्य वीर्यवान्।
छत्रं शतशलाकं च दिव्यमाल्योपशोभितम्।।
14-118-59a
14-118-59b
वैडूर्यमणिदण्‍डं च चामीकरविभूषितम्।
दधार तरसा भीमश्छत्रं तच्छार्ङ्गधन्वनः।।
14-118-60a
14-118-60b
उपारुह्य रथं शीघ्रं चामरव्यजने सिते।
नकुलः सहदेवश्च धूयमानौ जनार्दनम्।।
14-118-61a
14-118-61b
भीमसेनोऽर्जुनश्चैव यमावप्यरिसूदनौ।
पृष्ठतोऽनुययुः कृष्णं माशब्द इति हर्षिताः।।
14-118-62a
14-118-62b
त्रियोजने व्यतीते तु परिष्वज्य च पाण्डवान्।
विसृज्य कृष्णस्तान्सर्वान्प्रणतान्द्वारका ययौ।।
14-118-63a
14-118-63b
तथा प्रणम्य गोविन्दं तदाप्रभृति पाण्डवाः।
कपिलाद्यानि दानानि ददुर्धर्मपरायणाः।।
14-118-64a
14-118-64b
मधुसूदनवाक्यानि स्मृत्वास्मृत्वा पुनःपुनः।
मनसा पूजयामासुर्हदयस्थानि पाण्डवाः।।
14-118-65a
14-118-65b
युधिष्ठिरस्तु धर्मात्मा हृदि कृत्वा जनार्दनम्।
तद्भक्तस्तन्मना युक्तस्तद्याजी तत्परोऽभवत्।।
14-118-66a
14-118-66b
एवमुक्तं पुरावृत्तं वैष्णवं धर्मशासनम्।
मया ते कथितं राजन्पिवित्रं पापनाशनम्।।
14-118-67a
14-118-67b
तच्छृणुष्व महाराज विष्णुप्रोक्तं कुरूद्वह।
तेन गच्छसि नान्येन तद्विष्णोः परमं पदम्।।
14-118-68a
14-118-68b
।। इति श्रीमन्महाभारते शतसाहस्र्यां संहितायां वैयासिक्यां आश्वमेधिकपर्वणि
वैष्णवधर्मपर्वणि अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः।। 118 ।।

इत्याश्वमेधिकपर्व कुंभघोणस्येन टी.आर्.कृष्णाचार्येण टी.आर्.व्यासाचार्येण च मुंबय्यां निर्णयसागरमुद्रायन्त्रे मुद्रापितम्। शकाब्दाः 1832 सन 1910.

आश्वमेधिकपर्व-117 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्रमवासिकपर्व