महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-008
दिखावट
← आश्वमेधिकपर्व-007 | महाभारतम् चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-008 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-009 → |
|
संवर्तेन मरुत्तंप्रति हिमवत्संनिहिते मुञ्जवतिगिरौ महादेवस्य निवासकथनपूर्वकं स्वोक्तनामशतकेन स्तुत्या तत्प्रसादनेन यागाय तन्नत्यबहुसुवर्णहरणचोदना।। 1 ।। संवर्तेनि तदाहरणेन शिल्पिभिर्यागोपयोगिभाण्डनिर्मापणम्।। 2 ।। इन्द्रेण तच्छ्रवणनिर्विण्णस्य बृहस्पतेः समीपं प्रत्यागमनम्।। 3 ।।
संवर्त उवाच। | 14-8-1x |
गिरेर्हिमवतः पृष्ठे मुञ्जवान्नाम पर्वतः। तप्यते यत्र भगवांस्तपो नित्यमुपापतिः।। | 14-8-1a 14-8-1b |
वनस्पतीनां मूलेषु शृङ्गेषु विषमेषु च। गुहासु शैलराजस्य यथाकामं यथासुखम्।। | 14-8-2a 14-8-2b |
उमासहायो भगवान्यत्र नित्यं महेश्वरः। आस्ते शूली महातेजा नानाभूतगणावृतः।। | 14-8-3a 14-8-3b |
तत्र रुद्राश्च साध्याश्च विश्वेऽथ वसवस्तथा। यमश्च वरुणश्चैव कुबेरश्च सहानुगः।। | 14-8-4a 14-8-4b |
भूतानि च पिशाचाश्च नासत्यावपि चाश्विनौ। गन्धऱ्वाप्सरसश्चैव यक्षा देवर्षयस्तथा।। | 14-8-5a 14-8-5b |
आदित्या मरुतश्चैव यातुधानाश्च सर्वशः। उपासन्ते महात्मानं बहुरूपमुपापतिम्।। | 14-8-6a 14-8-6b |
रमते भगवांस्तत्र कुबेरानुचरैः सह। विकृतैर्विकृताकारैः क्रीडद्भिः पृथिवीपते।। | 14-8-7a 14-8-7b |
श्रिया ज्वलन्दृश्यते वै बालादित्यसमद्युतिः। न रूपं शक्यते तस्य संस्थानं वा कदाचन। निर्देष्टुं प्राणिभिः कैश्चित्प्राकृतैर्मांसलोचनैः।। | 14-8-8a 14-8-8b 14-8-8c |
नोष्णं न शिशिरं तत्र न वायुर्न च भास्करः। न जारा क्षुत्पिपासे वा न मृत्युर्न भयं नृप।। | 14-8-9a 14-8-9b |
तस्य शैलस्य पार्श्वेषु सर्वेषु जयतांवर। धातवो जातरूपस्य रश्मयः सवितुर्यथा।। | 14-8-10a 14-8-10b |
रक्ष्यन्ते ते कुबेरस्य सहायैरुद्यतायुधैः। चिकीर्षद्भिः प्रियं राजन्कुबेरस्य महात्मनः।। | 14-8-11a 14-8-11b |
`तत्र गत्वा समन्वास्य महायोगेश्वरं शिवम्। कुरु प्रणामं राजर्षे भक्त्या परमया यतुः।।' | 14-8-12a 14-8-12b |
तस्मै भगवते कृत्वा नमः शर्वाय वेधसे। `एभिस्तं नामभिर्देवं सर्वविद्याधरं स्तुहि।।' | 14-8-13a 14-8-13b |
रुद्राय शितिकण्ठाय सुरूपाय सुवर्चसे। कपर्दिने करालाय हर्यक्ष्णे वरदाय च।। | 14-8-14a 14-8-14b |
त्र्यक्ष्णे पूष्णो दन्तभिदे वामनाय शिवाय च। याम्यायाव्यक्तरूपाय सद्वृत्ते शङ्कराय च।। | 14-8-15a 14-8-15b |
क्षेम्याय हरिकेशाय स्थाणवे पुरुषाय च। हरिनेत्राय मुण्डाय क्रुद्धायोत्तरणाय च।। | 14-8-16a 14-8-16b |
भास्वराय सुतीर्थाय देवदेवाय रंहसे। उष्णीषिणे सुवक्त्राय सहस्राक्षाय मीढुषे।। | 14-8-17a 14-8-17b |
गिरिशाय प्राशान्ताय यतये चीरवाससे। बिल्वदण्डाय सिद्धाय सर्वदण्डधराय च।। | 14-8-18a 14-8-18b |
मृगव्याधाय महते धन्विनेऽथ भवाय च। वराय सोमवक्त्राय सिद्धमन्त्राय चक्षुषे।। | 14-8-19a 14-8-19b |
हिरण्यबाहवे राजन्नुग्राय पतये दिशाम्। लेलिहानाय गोष्ठाय सिद्धमन्त्राय वृष्णये।। | 14-8-20a 14-8-20b |
पशूनां पतये चैव भूतानां पतये नमः। वृषाय मातृभक्ताय सेनान्ये मध्यमाय च।। | 14-8-21a 14-8-21b |
`अभिवक्त्राय पतये सर्वदेवमयाय च।' स्रुवहस्ताय पतये धन्विने भार्गवाय च। अजाय कृष्णनेत्राय विरूपाक्षाय चैव ह।। | 14-8-22a 14-8-22b 14-8-22c |
तीक्ष्णदंष्ट्राय तीक्ष्णाय वैश्वानरमुखाय च। महात्मने चानङ्गाय सर्वाय पतये विशाम्।। | 14-8-23a 14-8-23b |
`तथा रुद्राय पतये पृथवे कृत्तिवाससे।' विलोहिताय दीप्ताय दीप्ताक्षाय महौजसे। वसुरेतःसुवपुषे पृथवे कृत्तिवाससे।। | 14-8-24a 14-8-24b 14-8-24c |
कपालमालिने चैव सुवर्णमुकुटाय च। महादेवाय कृष्णाय त्र्यम्बकायानघाय च।। | 14-8-25a 14-8-25b |
क्रोधनायानृशंसाय मृदवे बाहुशालिने। दण्डिने तप्ततपसे तथैवाक्रूरकर्मणे।। | 14-8-26a 14-8-26b |
सहस्रशिरसे चैव सहस्रचरणाय च। नमः स्वधास्वरूपाय बहुरूपाय दंष्ट्रिणे।। | 14-8-27a 14-8-27b |
पिनाकिनं महादेवं महाभोगिनमव्ययम्। त्रिशूलहस्तं वरदं त्र्यम्बकं भुवनेश्वरम्।। | 14-8-28a 14-8-28b |
त्रिपुरघ्नं त्रिनयनं त्रिलोकेशं महौजसम्। प्रभवं सर्वभूतानां दातारं धरणीधरम्।। | 14-8-29a 14-8-29b |
ईशानं शङ्करं सर्वं शिवं विश्वेश्वरं भवम्। उमापतिं पशुपतिं विश्वरूपं महेश्वरम्।। | 14-8-30a 14-8-30b |
विरूपाक्षं दशभुजं विष्यन्दं गोवृषध्वजम्। उग्रं स्थाणुं शिवं रौद्रं शर्वं गौरीशमीश्वरम्।। | 14-8-31a 14-8-31b |
शितिकण्ठमजं शुक्रं पृथुं पृथुहरं वरम्। विश्वरूपं विरूपाक्षं बहुरूपमुपापतिम्।। | 14-8-32a 14-8-32b |
प्रणम्य शिरसा देवमनङ्गाङ्गहरं हरम्। शरण्यं शरणं याहि महादेवं चतुर्मुखम्।। | 14-8-33a 14-8-33b |
`विरोचमानं वपुषा दिव्याभरणभूषितम्। अनाद्यन्तमजं शंभुं सर्वव्यापिनमीश्वरम्।। | 14-8-34a 14-8-34b |
निस्त्रैगुण्यं निरुद्वेगं निर्मलं निधिमोजसाम्। प्रणम्य प्राञ्जलिः शर्वं प्रयामि शरणं हरम्।। | 14-8-35a 14-8-35b |
सम्मान्यं निश्चलं नित्यमकारुण्यमलेपनम्। अध्यात्मवेदमासाद्य प्रयामि शरणं मुहुः।। | 14-8-36a 14-8-36b |
यस्य नित्यं विदुः स्थानं मोक्षमध्यात्मचिन्तकाः। योगीशं तत्वमार्गस्थाः कैवल्यं पदमक्षरम्।। | 14-8-37a 14-8-37b |
यं विदुः सङ्गिनं मुक्ताः सामान्यं समदर्शिनः। तं प्रपद्ये जगद्योनिमयोनिं निर्गुणात्मकम्।। | 14-8-38a 14-8-38b |
असृजद्यस्तु भूतादीन्सप्त लोकान्सनातनान्। स्थितः सत्योपरि स्थाणुस्तं प्रपद्ये सनातनम्।। | 14-8-39a 14-8-39b |
भक्तानां सुलभं तं हि दुर्लभं दूरपातिनाम्। अदूरस्थममुं देवं प्रकृतेः परतः स्थितम्।। | 14-8-40a 14-8-40b |
नमामि सर्वलोकस्थं व्रजामि शरणं शिवम्।' एवं कृत्वा नमस्तस्मै महादेवाय रंहसे। महात्मने क्षितिपते तत्सुवर्णमवाप्स्यसि।। | 14-8-41a 14-8-41b 14-8-41c |
`लभन्ते गाणपत्यं च तदेकाग्रा हि मानवाः। किं पुनः स्वर्णिभाण्डानि तस्मात्त्वं गच्छ मा चिरं।। | 14-8-42a 14-8-42b |
महत्तरं हि ते लाभं हस्त्यश्वोष्ट्रादिभिः सह।' सुवर्णमाहरिष्यन्तस्तत्र गच्छन्तु ते नराः।। | 14-8-43a 14-8-43b |
व्यास उवाच। | 14-8-44x |
इत्युक्तः स वचस्तस्य चक्रे कारन्धमात्मजः। `गङ्गाधरं नमस्कृत्य लब्धवान्धनमुत्तमम्।। | 14-8-44a 14-8-44b |
कुबेर इव तत्प्राप्य महादेवप्रसादतः।' ततोऽतिमानुषं सर्वं चक्रे यज्ञस्य संविधिम्।। | 14-8-45a 14-8-45b |
सौवर्णानि च भाण्डानि संचक्रुस्तत्र शिल्पिनः। `शालाश्च सर्वसम्भारांस्तत्र संवर्तशासनात्।।' | 14-8-46a 14-8-46b |
बृहस्पतिस्तु तां श्रुत्वा मरुत्तस्य महीपतेः। समृद्धिमति देवेभ्यः सन्तापमकरोद्भृशम्।। | 14-8-47a 14-8-47b |
सन्तप्यमानो वैवर्ण्यं कृशत्वं चागमत्परम्। भविष्यति हि मे शत्रुः संवर्तो वसुमानिति।। | 14-8-48a 14-8-48b |
तं श्रुत्वा भृशसंतप्तं देवराजो बृहस्पतिम्। अभिगम्यामरवृतः प्रोवाचेदं वचस्तदा।। | 14-8-49a 14-8-49b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अश्वमेधपर्वणि अष्टमोऽध्यायः।। 8 ।। |
आश्वमेधिकपर्व-007 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-009 |