महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-008

विकिस्रोतः तः
← आश्वमेधिकपर्व-007 महाभारतम्
चतुर्दशपर्व
महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-008
वेदव्यासः
आश्वमेधिकपर्व-009 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118

संवर्तेन मरुत्तंप्रति हिमवत्संनिहिते मुञ्जवतिगिरौ महादेवस्य निवासकथनपूर्वकं स्वोक्तनामशतकेन स्तुत्या तत्प्रसादनेन यागाय तन्नत्यबहुसुवर्णहरणचोदना।। 1 ।। संवर्तेनि तदाहरणेन शिल्पिभिर्यागोपयोगिभाण्डनिर्मापणम्।। 2 ।। इन्द्रेण तच्छ्रवणनिर्विण्णस्य बृहस्पतेः समीपं प्रत्यागमनम्।। 3 ।।

संवर्त उवाच। 14-8-1x
गिरेर्हिमवतः पृष्ठे मुञ्जवान्नाम पर्वतः।
तप्यते यत्र भगवांस्तपो नित्यमुपापतिः।।
14-8-1a
14-8-1b
वनस्पतीनां मूलेषु शृङ्गेषु विषमेषु च।
गुहासु शैलराजस्य यथाकामं यथासुखम्।।
14-8-2a
14-8-2b
उमासहायो भगवान्यत्र नित्यं महेश्वरः।
आस्ते शूली महातेजा नानाभूतगणावृतः।।
14-8-3a
14-8-3b
तत्र रुद्राश्च साध्याश्च विश्वेऽथ वसवस्तथा।
यमश्च वरुणश्चैव कुबेरश्च सहानुगः।।
14-8-4a
14-8-4b
भूतानि च पिशाचाश्च नासत्यावपि चाश्विनौ।
गन्धऱ्वाप्सरसश्चैव यक्षा देवर्षयस्तथा।।
14-8-5a
14-8-5b
आदित्या मरुतश्चैव यातुधानाश्च सर्वशः।
उपासन्ते महात्मानं बहुरूपमुपापतिम्।।
14-8-6a
14-8-6b
रमते भगवांस्तत्र कुबेरानुचरैः सह।
विकृतैर्विकृताकारैः क्रीडद्भिः पृथिवीपते।।
14-8-7a
14-8-7b
श्रिया ज्वलन्दृश्यते वै बालादित्यसमद्युतिः।
न रूपं शक्यते तस्य संस्थानं वा कदाचन।
निर्देष्टुं प्राणिभिः कैश्चित्प्राकृतैर्मांसलोचनैः।।
14-8-8a
14-8-8b
14-8-8c
नोष्णं न शिशिरं तत्र न वायुर्न च भास्करः।
न जारा क्षुत्पिपासे वा न मृत्युर्न भयं नृप।।
14-8-9a
14-8-9b
तस्य शैलस्य पार्श्वेषु सर्वेषु जयतांवर।
धातवो जातरूपस्य रश्मयः सवितुर्यथा।।
14-8-10a
14-8-10b
रक्ष्यन्ते ते कुबेरस्य सहायैरुद्यतायुधैः।
चिकीर्षद्भिः प्रियं राजन्कुबेरस्य महात्मनः।।
14-8-11a
14-8-11b
`तत्र गत्वा समन्वास्य महायोगेश्वरं शिवम्।
कुरु प्रणामं राजर्षे भक्त्या परमया यतुः।।'
14-8-12a
14-8-12b
तस्मै भगवते कृत्वा नमः शर्वाय वेधसे।
`एभिस्तं नामभिर्देवं सर्वविद्याधरं स्तुहि।।'
14-8-13a
14-8-13b
रुद्राय शितिकण्ठाय सुरूपाय सुवर्चसे।
कपर्दिने करालाय हर्यक्ष्णे वरदाय च।।
14-8-14a
14-8-14b
त्र्यक्ष्णे पूष्णो दन्तभिदे वामनाय शिवाय च।
याम्यायाव्यक्तरूपाय सद्वृत्ते शङ्कराय च।।
14-8-15a
14-8-15b
क्षेम्याय हरिकेशाय स्थाणवे पुरुषाय च।
हरिनेत्राय मुण्डाय क्रुद्धायोत्तरणाय च।।
14-8-16a
14-8-16b
भास्वराय सुतीर्थाय देवदेवाय रंहसे।
उष्णीषिणे सुवक्त्राय सहस्राक्षाय मीढुषे।।
14-8-17a
14-8-17b
गिरिशाय प्राशान्ताय यतये चीरवाससे।
बिल्वदण्डाय सिद्धाय सर्वदण्डधराय च।।
14-8-18a
14-8-18b
मृगव्याधाय महते धन्विनेऽथ भवाय च।
वराय सोमवक्त्राय सिद्धमन्त्राय चक्षुषे।।
14-8-19a
14-8-19b
हिरण्यबाहवे राजन्नुग्राय पतये दिशाम्।
लेलिहानाय गोष्ठाय सिद्धमन्त्राय वृष्णये।।
14-8-20a
14-8-20b
पशूनां पतये चैव भूतानां पतये नमः।
वृषाय मातृभक्ताय सेनान्ये मध्यमाय च।।
14-8-21a
14-8-21b
`अभिवक्त्राय पतये सर्वदेवमयाय च।'
स्रुवहस्ताय पतये धन्विने भार्गवाय च।
अजाय कृष्णनेत्राय विरूपाक्षाय चैव ह।।
14-8-22a
14-8-22b
14-8-22c
तीक्ष्णदंष्ट्राय तीक्ष्णाय वैश्वानरमुखाय च।
महात्मने चानङ्गाय सर्वाय पतये विशाम्।।
14-8-23a
14-8-23b
`तथा रुद्राय पतये पृथवे कृत्तिवाससे।'
विलोहिताय दीप्ताय दीप्ताक्षाय महौजसे।
वसुरेतःसुवपुषे पृथवे कृत्तिवाससे।।
14-8-24a
14-8-24b
14-8-24c
कपालमालिने चैव सुवर्णमुकुटाय च।
महादेवाय कृष्णाय त्र्यम्बकायानघाय च।।
14-8-25a
14-8-25b
क्रोधनायानृशंसाय मृदवे बाहुशालिने।
दण्डिने तप्ततपसे तथैवाक्रूरकर्मणे।।
14-8-26a
14-8-26b
सहस्रशिरसे चैव सहस्रचरणाय च।
नमः स्वधास्वरूपाय बहुरूपाय दंष्ट्रिणे।।
14-8-27a
14-8-27b
पिनाकिनं महादेवं महाभोगिनमव्ययम्।
त्रिशूलहस्तं वरदं त्र्यम्बकं भुवनेश्वरम्।।
14-8-28a
14-8-28b
त्रिपुरघ्नं त्रिनयनं त्रिलोकेशं महौजसम्।
प्रभवं सर्वभूतानां दातारं धरणीधरम्।।
14-8-29a
14-8-29b
ईशानं शङ्करं सर्वं शिवं विश्वेश्वरं भवम्।
उमापतिं पशुपतिं विश्वरूपं महेश्वरम्।।
14-8-30a
14-8-30b
विरूपाक्षं दशभुजं विष्यन्दं गोवृषध्वजम्।
उग्रं स्थाणुं शिवं रौद्रं शर्वं गौरीशमीश्वरम्।।
14-8-31a
14-8-31b
शितिकण्ठमजं शुक्रं पृथुं पृथुहरं वरम्।
विश्वरूपं विरूपाक्षं बहुरूपमुपापतिम्।।
14-8-32a
14-8-32b
प्रणम्य शिरसा देवमनङ्गाङ्गहरं हरम्।
शरण्यं शरणं याहि महादेवं चतुर्मुखम्।।
14-8-33a
14-8-33b
`विरोचमानं वपुषा दिव्याभरणभूषितम्।
अनाद्यन्तमजं शंभुं सर्वव्यापिनमीश्वरम्।।
14-8-34a
14-8-34b
निस्त्रैगुण्यं निरुद्वेगं निर्मलं निधिमोजसाम्।
प्रणम्य प्राञ्जलिः शर्वं प्रयामि शरणं हरम्।।
14-8-35a
14-8-35b
सम्मान्यं निश्चलं नित्यमकारुण्यमलेपनम्।
अध्यात्मवेदमासाद्य प्रयामि शरणं मुहुः।।
14-8-36a
14-8-36b
यस्य नित्यं विदुः स्थानं मोक्षमध्यात्मचिन्तकाः।
योगीशं तत्वमार्गस्थाः कैवल्यं पदमक्षरम्।।
14-8-37a
14-8-37b
यं विदुः सङ्गिनं मुक्ताः सामान्यं समदर्शिनः।
तं प्रपद्ये जगद्योनिमयोनिं निर्गुणात्मकम्।।
14-8-38a
14-8-38b
असृजद्यस्तु भूतादीन्सप्त लोकान्सनातनान्।
स्थितः सत्योपरि स्थाणुस्तं प्रपद्ये सनातनम्।।
14-8-39a
14-8-39b
भक्तानां सुलभं तं हि दुर्लभं दूरपातिनाम्।
अदूरस्थममुं देवं प्रकृतेः परतः स्थितम्।।
14-8-40a
14-8-40b
नमामि सर्वलोकस्थं व्रजामि शरणं शिवम्।'
एवं कृत्वा नमस्तस्मै महादेवाय रंहसे।
महात्मने क्षितिपते तत्सुवर्णमवाप्स्यसि।।
14-8-41a
14-8-41b
14-8-41c
`लभन्ते गाणपत्यं च तदेकाग्रा हि मानवाः।
किं पुनः स्वर्णिभाण्डानि तस्मात्त्वं गच्छ मा चिरं।।
14-8-42a
14-8-42b
महत्तरं हि ते लाभं हस्त्यश्वोष्ट्रादिभिः सह।'
सुवर्णमाहरिष्यन्तस्तत्र गच्छन्तु ते नराः।।
14-8-43a
14-8-43b
व्यास उवाच। 14-8-44x
इत्युक्तः स वचस्तस्य चक्रे कारन्धमात्मजः।
`गङ्गाधरं नमस्कृत्य लब्धवान्धनमुत्तमम्।।
14-8-44a
14-8-44b
कुबेर इव तत्प्राप्य महादेवप्रसादतः।'
ततोऽतिमानुषं सर्वं चक्रे यज्ञस्य संविधिम्।।
14-8-45a
14-8-45b
सौवर्णानि च भाण्डानि संचक्रुस्तत्र शिल्पिनः।
`शालाश्च सर्वसम्भारांस्तत्र संवर्तशासनात्।।'
14-8-46a
14-8-46b
बृहस्पतिस्तु तां श्रुत्वा मरुत्तस्य महीपतेः।
समृद्धिमति देवेभ्यः सन्तापमकरोद्भृशम्।।
14-8-47a
14-8-47b
सन्तप्यमानो वैवर्ण्यं कृशत्वं चागमत्परम्।
भविष्यति हि मे शत्रुः संवर्तो वसुमानिति।।
14-8-48a
14-8-48b
तं श्रुत्वा भृशसंतप्तं देवराजो बृहस्पतिम्।
अभिगम्यामरवृतः प्रोवाचेदं वचस्तदा।।
14-8-49a
14-8-49b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
अश्वमेधपर्वणि अष्टमोऽध्यायः।। 8 ।।
आश्वमेधिकपर्व-007 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-009