महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-087
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कृष्णेन बलरामादिभिः सह युधिष्ठिराश्वमेधाय हास्तिनपुरंप्रत्यागमनम्।। 1 ।। तथा युधिष्ठिरंप्रति नानादेशेभ्य आगमिष्यतां राज्ञामप्रमादेन यथोचितपूजाया मणलूरादागमिष्यतो बभ्रुवाहनस्य संमाननस्य च कर्तव्यताप्रतिपादकार्जुनसंदेशनिवेदनम्।। 2 ।।
समागतान्वेदविदो राज्ञश्च पृथिवीश्वरान्। दृष्ट्वा युधिष्ठिरो राजा भीमसेनमभाषत।। | 14-87-1x 14-87-1a 14-87-1b |
उपयाता नरव्याघ्रा य एते पृथिवीश्वराः। एतेषां क्रियतां पूजा पूजार्हा हि नराधिपाः।। | 14-87-2a 14-87-2b |
इत्युक्तः स तथा चक्रे नरेन्द्रेण यशस्विना। भीमसेनो महातेजा यमाभ्यां सह पाण्डवः।। | 14-87-3a 14-87-3b |
अथाभ्यगच्छद्गोविन्दो वृष्णिभिः सह धर्मजम्। बलदेवं पुरस्कृत्य सर्वप्राणभूतां वरः।। | 14-87-4a 14-87-4b |
युयुधानेन सहितः प्रद्युम्नेन गदेन च। निशठेनाथ सांबेन तथैव कृतवर्मणा।। | 14-87-5a 14-87-5b |
तेषामपि परां पूजां चक्रे भीमो महारथः। विविशुस्ते च वेश्मानि रत्नवन्ति च सर्वशः।। | 14-87-6a 14-87-6b |
युधिष्ठिरसमीपे तु कथान्ते मधुसूदनः। अर्जुनं कथयामास बहुसङ्ग्रामकर्शितम्।। | 14-87-7a 14-87-7b |
स तं प्रपच्छ कौन्तेयः पुनःपुनररिंदमम्। धर्मजः शक्रजं जिष्णुं समाचष्ट जगत्पतिः।। | 14-87-8a 14-87-8b |
आगमद्द्वारकावासी समाप्तः पुरुषो नृप। योऽद्राक्षीत्पाण्डवश्रेष्ठ बहुसङ्ग्रामकर्शितम्।। | 14-87-9a 14-87-9b |
समीपे च महाबाहुमाचष्ट च मम प्रभो। कुरु कार्याणि कौन्तेय हयमेधार्थसिद्धये।। | 14-87-10a 14-87-10b |
इत्युक्तः प्रत्युवाचैनं धर्मराजो युधिष्ठिरः। दिष्ट्या स कुशली जिष्णुरुपायाति च माधव।। | 14-87-11a 14-87-11b |
यदिदं संदिदेशास्मिन्पाण्डवानां बलाग्रणीः। तदाख्यातमिहेच्छामि भवता यदुनन्दन।। | 14-87-12a 14-87-12b |
इत्युक्तो धर्मराजेन वृष्ण्यन्धकपतिस्तदा। प्रोवाचेदं वचो वाग्मी धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।। | 14-87-13a 14-87-13b |
इदमाह महाराज पार्थवाक्यं नरेश्वरः। वाच्यो युधिष्ठिरः कृष्ण काले वाक्यमिदं मम।। | 14-87-14a 14-87-14b |
आगमिष्यन्ति राजानः सर्वे वै कौरवर्षभ। प्राप्तानां महतां पूजा कार्या ह्येतत्क्षमं हि नः।। | 14-87-15a 14-87-15b |
इत्येतद्वचनाद्राजा विज्ञाप्यो मम मानद। तथा चात्ययिकं न स्याद्यदर्घाहरणेऽभवत्।। | 14-87-16a 14-87-16b |
कर्तुमर्हति तद्राजा भवांश्चाप्यनुमन्यताम्। राजद्वेषान्न नश्येयुरिमा राजन्पुनः प्रजाः।। | 14-87-17a 14-87-17b |
इदमन्यच्च कौन्तेय वचः स पुरुषोऽब्रवीत्। धनंजयस्य नृपते तन्मे निगदतः शृणु।। | 14-87-18a 14-87-18b |
उपयास्यति यज्ञं नो मणलूरपतिर्नृपः। पुत्रो मम महातेजा दयितो बभ्रुवाहनः।। | 14-87-19a 14-87-19b |
तं भवान्मदपेक्षार्थं विधिवत्प्रतिपूजयेत्। स तु भक्तोऽनुरक्तश्च मम नित्यमिति प्रभो।। | 14-87-20a 14-87-20b |
इत्येतद्वचनं श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः। अभिनन्द्यास्य तद्वाक्यमिदं वचनमब्रवीत्।। | 14-87-21a 14-87-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि सप्ताशीतितमोऽध्यायः।। 87 ।। |
14-87-7 भोजराजन्यानां वर्धनः।। 14-87-8 जानुनोरधस्थः पश्चाद्भागीयो मांसलः प्रदेशः पिण्डिका। ते उभे अस्याधिके स्वदेशादधोभागपर्यन्तं बहुलमालम्बमाने।।
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