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महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-113

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महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-113
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  118. 118

कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति कार्तिकादिद्वादशमासेषु एकभुक्तव्रताचरणप्रकारनिरूपणपूर्वकं तत्फलकथनम्।। 1 ।।

वैशंपायन उवाच। 14-113-1x
केशवेनैवमुक्ते तु चान्द्रायणविधिक्रमे।
अपृच्छत्पुनरन्यांश्च धर्मान्धर्मात्मजो नृप।।
14-113-1a
14-113-1b
युधिष्ठिर उवाच। 14-113-2x
सर्वभूतपते श्रीमन्सर्वभूतनमस्कृत।
सर्वभूतहितं धर्मं सर्वज्ञ कथयस्व नः।।
14-113-2a
14-113-2b
भगवानुवाच। 14-113-3x
यद्दरिद्रजनस्यापि स्वर्ग्यं सुखकरं भवेत्।
सर्वपापप्रशमनं तच्छृणुष्व युधिष्टिर।।
14-113-3a
14-113-3b
कार्तिकाद्यास्तु ये मासा द्वादशैव प्रकीर्तिताः।
तेष्वेकबुक्तनिमः सर्वेषामुच्यते मया।।
14-113-4a
14-113-4b
कार्तिके यस्तु वै मासे नन्दायां संयतेन्द्रियः।
एकभुक्तेन मद्भक्तो मासमेकं तु वर्तते।।
14-113-5a
14-113-5b
जलं वा न पिबेन्मासे नान्तरं भोजनात्परम्।
आदित्यरूपं मां नित्यमर्चयन्सुसमाहितः।।
14-113-6a
14-113-6b
व्रतान्ते भोजयेद्विप्रान्दक्षिणां सम्प्रदाय च।
क्रोधलोभविनिर्मुक्तस्तस्य पुण्यफलं शृणु।।
14-113-7a
14-113-7b
विधिवत्कपिलादाने यत्पुण्यं समुदाहृतम्।
तत्पुण्यं समनुप्राप्य सूर्यकलोके महीयते।
ततश्चापि च्युतः कालात्पुरुषेषूपजायते।।
14-113-8a
14-113-8b
14-113-8c
मार्गशीर्षं तु यो मासमेकभुक्तेन वर्तते।
कामं क्रोधं च लोभं च परित्यज्य यथाविधि।।
14-113-9a
14-113-9c
स्नात्वा चादित्यरूपं मामर्ययेन्नियतेन्द्रियः।
जपेच्चैव च गायत्रीं मामिकां वाग्यतेन्द्रियः।।
14-113-10a
14-113-10b
मासे परिसमाप्ते तु भोजयित्वा द्विजाञ्शुचिः।
तानर्चयति मद्भक्त्या तस्य पुण्यफलं शृणु।।
14-113-11a
14-113-11b
अग्निहोत्रे कृते पुण्यमाहिताग्नेस्तु यद्भवेत्।
तत्पुण्यं फलमासाद्य योनेनांऽबरशोभिना।
सह सप्तर्षिलोकेषु यथाकामं यथासुखम्।।
14-113-12a
14-113-12b
14-113-12c
ततश्चापि च्युतः कालाद्धरिवर्षेषु जायते।
तत्र प्रकामं क्रीडित्वा राजा पश्चाद्भविष्यति।।
14-113-13a
14-113-13b
******** क्षिपेदेवमेकभुक्तेन यो नरः।
अर्चयन्नेव मां नित्यं मद्गतेनान्तरात्मना।।
14-113-14a
14-113-14b
अहिंसासत्यसहितः क्रोधहर्षविवर्जितः।
एवं युक्तस्य राजेन्द्र शृणु यत्फलमुत्तमम्।।
14-113-15a
14-113-15b
विप्रातिथ्यसहस्रेषु यत्पुण्यं समुदाहृतम्।
तत्पुण्यं समनुप्राप्य शक्रलोके महीयते।।
14-113-16a
14-113-16b
अवतीर्णस्ततः कालादिलावर्षेषु जायते।
तत्र स्थित्वा चिरं कालमस्मिन्विप्रो भविष्यति।।
14-113-17a
14-113-17b
माघमासं सदा यस्तु वर्तते चैकभुक्ततः।
मदर्चनपरो भूत्वा डंभक्तोधविवर्जितः।
मामिकामपि सावित्रीं सन्ध्यायां तु जपेद्बुधः।।
14-113-18a
14-113-18b
14-113-18c
दत्त्वा दु दक्षिणामन्ते भोजयित्वा द्विजानपि।
नमिस्करोति तान्भक्त्या मद्गतेनान्तरात्मना।
त्रिकालस्नानयुक्तस्य तस्य पुण्यफलं शृणु।।
14-113-19a
14-113-19b
14-113-19c
नीलकण्ठप्रयुक्तेन योनेनांऽबरशोभिना।
पितृलोकं व्रजेच्छ्रीमान्सेव्यमानोप्सरोणैः।।
14-113-20a
14-113-20b
तत्र प्रकामं क्रीडित्वा भद्राश्वेषूपजायते।
ततश्च्युतश्चतुर्वेदी विप्रो भवति भूतले।।
14-113-21a
14-113-21b
यश्चरेत्फाल्गुनं मासमेकभुक्तो जितेन्द्रियः।
नमो ब्रह्मण्यदेवायेत्येतन्मन्त्रं जपेत्सदा।।
14-113-22a
14-113-22b
पायसं भोजयेद्विप्रान्व्रतान्ते संयतेन्द्रियः।
मदर्चनपरोऽक्रोधस्तस्य पुण्यफलं शृणु।।
14-113-23a
14-113-23b
विमानं सारसैर्युक्तमारूढः कामगामि च।
नक्षत्रलोके रमते नक्षत्रसदृशाकृतिः।।
14-113-24a
14-113-24b
ततश्चापि च्युतः कालात्केतुमालेषु जायते।
तत्र प्रकामं क्रीडित्वा मानुषेषु मुनिर्भवेत्।।
14-113-25a
14-113-25b
चैत्रमासं तु यो राजन्नेकभुक्तेन वर्तते।
ब्रह्मचारी च मद्भक्त्या तस्य पुण्यफलं शृणु।।
14-113-26a
14-113-26b
यदग्निहोत्रिणः पुण्यं यथोक्तं व्रतचारिणः।
तत्पुण्यफकलमासाद्य चन्द्रलोके महीयते।।
14-113-27a
14-113-27b
ततोऽवतीर्णो जायेत वर्षे रमणके पुनः।
भुक्त्वा कामांस्ततस्तस्मिन्निह राजा भविष्यति।।
14-113-28a
14-113-28b
वैशाखे यस्तु मासे वै ह्येकभुक्तेन वर्तते।
द्विजमग्रासने कृत्वा भुञ्जन्भूमौ च वाग्यतः।।
14-113-29a
14-113-29b
नमो ब्रह्मण्यदेवायेत्यर्चयित्वा दिवाकरम्।
व्रतान्ते भोजयेद्विप्रांस्तस्य पुण्यफलं शृणु।।
14-113-30a
14-113-30b
फलं यद्विधिवत्प्रोक्तमग्निष्टोमातिरात्रयोः।
तत्पुण्यफलमासाद्य देवलोके महीयते।।
14-113-31a
14-113-31b
ततो हैमवते वर्षे जायते कालपर्ययात्।
तत्र प्रकामं क्रीडित्वा विप्रः पश्चाद्भविष्यति।।
14-113-32a
14-113-32b
ज्येष्ठमासं तु यो विप्रो ह्येकभुक्तेन वर्तते।
विप्रमग्रासने कृत्वा भूमौ भुञ्जन्यथाविधि।।
14-113-33a
14-113-33b
नमो ब्रह्मण्यदेवायेत्युच्चरन्मां समाहितः।
डंभानृतविनिर्मुक्तस्तस्य पुण्यफलं शृणु।।
14-113-34a
14-113-34b
चीर्णे चान्द्रायणे सम्यग्यत्पुण्यं समुदाहृतम्।
तत्पुण्यफलमासाद्य देवलोके महीयते।।
14-113-35a
14-113-35b
अथोत्तरकुरौ वर्षे जायते निर्गतस्ततः।
ततश्चापि च्युतः कालादिह लोके द्विजो भवेत्।।
14-113-36a
14-113-36b
आषाढमासं यो राजन्नेकभुक्तेन वर्तते।
ब्रह्मचारी जितक्रोधो मदर्चनपरायणः।।
14-113-37a
14-113-37b
विप्रमग्रासने कृत्वा भूमौ भुञ्जञ्जितेन्द्रियः।
कृत्वा त्रिषवणं स्नानमष्टाक्षरविधानतः।।
14-113-38a
14-113-38b
व्रतान्ते भोजयेद्विद्वान्पायसेन युधिष्ठिर।
गुडोदनेन राजेन्द्र तस्य पुण्यफलं शृणु।।
14-113-39a
14-113-39b
कपिलाशतदानस्य यत्पुण्यं पाण्डुनन्दन।
तत्पुण्यफलमासाद्य देवलोके महीयते।।
14-113-40a
14-113-40b
ततोऽवतीर्णः काले तु शाकद्वीपे तु जायते।
ततश्चापि च्युतः कालादिह विप्रो भविष्यति।।
14-113-41a
14-113-41b
श्रावणं यः क्षिपेन्मासमेकभुक्तेन वर्तते।
नमो ब्रह्मण्यदेवायेत्युक्त्वा मामर्चयेत्सदा।
विप्रमाग्रासने कृत्वा भूमौ भुञ्जन्यथाविधि।।
14-113-42a
14-113-42b
14-113-42c
पायसेनार्चयन्विप्राञ्जितक्रोधो जितेन्द्रियः।
लोभमोहविनिर्मुक्तस्तस्य पुण्यफलं शृणु।।
14-113-43a
14-113-43b
कपिलादानस्य यत्पुण्यं विधिदत्तस्य पाण्डव।
तत्पुण्यं सम***प्राप्य शक्रलोके महीयते।।
14-113-44a
14-113-44b
ततश्चापि च्युत कालात्कुशद्वीपे प्रजायते।
तत्रि प्रकामं क्रीडित्वा विप्रो भवति मानुषे।।
14-113-45a
14-113-45b
यस्तु भाद्रपदं मासमेकभुक्तेन वर्तते।
ब्रह्मचारी जितक्रोधः सत्यसन्धो जितेन्द्रियः।।
14-113-46a
14-113-46b
विप्रमग्रासने कृत्वा पाकभेदविवर्जितः।
नमो ब्रह्मण्यदेवायेत्युक्त्वाऽस्य चरणौ स्पृशेत्।।
14-113-47a
14-113-47b
तिलानपि घृतं वाऽपि व्रतान्ते दक्षिमां ददत्।
मद्भक्तस्य नरश्रेष्ठ तस्य पुण्यफलं शृणु।।
14-113-48a
14-113-48b
यत्फलं विधिवत्प्रोक्तं राजसूयाश्वमेधयोः।
तत्पुण्यफलमासाद्य शक्रलोके महीयते।।
14-113-49a
14-113-49b
ततश्चापि च्युतः कालाज्जायते धनदालये।
तत्र प्रकामं क्रीकडित्वा राजा भवति मानुषे।।
14-113-50a
14-113-50b
यश्चाप्याश्वयुजं मासमेकभुक्तेन वर्तते।
मद्गायत्रीं जपेद्भक्त्या मद्गतेनान्तरात्मना।
द्विसन्ध्यं वा त्रिसन्ध्यं वा शतमष्टोत्तरं तु वा।।
14-113-51a
14-113-51b
14-113-51c
विप्रमग्रासने कृत्वा संयतेन्द्रियमानसः।
व्रतान्ते भोजयेद्विप्रांस्तस्य पुण्यफलं शृणु।।
14-113-52a
14-113-52b
अश्वमेधस्य यत्पुण्यं विधिवत्पाण्डुनन्दन।
तत्पुण्यफलमासाद्य मम लोके महीयते।।
14-113-53a
14-113-53b
ततश्चापि च्युतः कालाच्छ्वेतद्वीपे प्रजायते।
तत्र भुक्त्वा च भोगांश्च ततो विप्रवरो भवेत्।।
14-113-54a
14-113-54b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
वैष्णवधऱ्मपर्वणि त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः।।
आश्वमेधिकपर्व-112 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-114