महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-009
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बृहस्पतिना इन्द्रंप्रति स्वानुजेन संवर्तेन मरुत्तस्य याजनकथनपूर्वकं तद्विघटनचोदना।। 1 ।। अग्निना मरुत्तमेत्य याजनाय बृहस्पतिस्वीकरणरूपेन्द्रसन्देशकथनम्।। 2 ।। तथा पुनरिन्द्रमेत्य मरुत्तेन स्वसंदेशापरिग्रहणनिवेदनम्।। 3 ।। तथा इन्द्रेण पुनर्मरुत्ते स्वसन्देशनिवेदनचोदने संवर्ततपोभयात्तदनङ्गीकरणम्।। 4 ।।
इन्द्र उवाच। | 14-9-1x |
कच्चित्सुखं स्वपिषि त्वं बृहस्पते कच्चिन्मनोज्ञाः परिचारकास्ते। कच्चिद्देवानां सुखकामोसि विप्र कच्चिद्देवास्त्वां परिपालयन्ति।। | 14-9-1a 14-9-1b 14-9-1c 14-9-1d |
बृहस्पतिरुवाच। | 14-9-2x |
सुखं शये शयने देवराज तथा मनोज्ञाः परिचारका मे। तथा देवानां सुखकामोस्मि नित्यं देवाश्च मां सुभृशं पालयन्ति।। | 14-9-2a 14-9-2b 14-9-2c 14-9-2d |
इन्द्र उवाच। | 14-9-3x |
कुतो दुःखं मानसं देहजं वा पाण्डुर्विवर्णश्च कुतस्त्वमद्य। आचक्ष्व मे ब्राह्मण यावदेता- न्निहन्मि सर्वांस्तव दुःखकर्तॄन्।। | 14-9-3a 14-9-3b 14-9-3c 14-9-3d |
बृहस्पतिरुवाच। | 14-9-4x |
मरुत्तमाहुर्मघवन्यक्ष्यमाणं महायज्ञेनोत्तमदक्षिणेन। संवर्तो याजयतीति मे श्रुतं तदिच्छामि न स तं याजयेत्।। | 14-9-4a 14-9-4b 14-9-4c 14-9-4d |
इन्द्र उवाच। | 14-9-5x |
सर्वान्कामाननुयातोसि विप्र त्वं देवानां मन्त्रयसे पुरोधाः। उभौ च ते जरामृत्यू व्यतीतौ किं संवर्तस्तव कर्ताऽद्य विप्र।। | 14-9-5a 14-9-5b 14-9-5c 14-9-5d |
बृहस्पतिरुवाच। | 14-9-6x |
देवैः सह त्वमसुरान्सम्प्रणुद्य जिघांससे चाप्युत सानुबन्धान्। यंयं समृद्धं पश्यसि तत्रतत्र दुःखं सपत्नेषु समृद्धिभावः।। | 14-9-6a 14-9-6b 14-9-6c 14-9-6d |
अतोस्मि देवेन्द्र विवर्णरूपः सपत्नो मे वर्धते तन्निशम्य। सर्वोपायैर्मघवन्संनियच्छ संवर्तं वा पार्थिवं वा मरुत्तम्।। | 14-9-7a 14-9-7b 14-9-7c 14-9-7d |
इन्द्र उवाच। | 14-9-8x |
एहि गच्छ प्रहितो जातवेदो बृहस्पतिं परिदातुं मरुत्ते। अयं वै त्वां याजयिता बृहस्पति- स्तथाऽमरं चैव करिष्यतीति।। | 14-9-8a 14-9-8b 14-9-8c 14-9-8d |
अग्निरुवाच। | 14-9-9x |
अहं गच्छामि तव शक्राद्य दूतो बृहस्पतिं परिदातुं मरुत्ते। वाचं सत्यां पुरुहूतस्य कर्तुं बृहस्पतेश्चापचितिं चिकीर्षुः।। | 14-9-9a 14-9-9b 14-9-9c 14-9-9d |
व्यास उवाच। | 14-9-10x |
तः प्रायाद्धूमकेतुर्महात्मा वनस्पतीन्वीरुधश्चावमृद्गन्। कामाद्धिमान्ते परिवर्तमानः काष्ठातिगो मातरिश्वेव नर्दन्।। | 14-9-10a 14-9-10b 14-9-10c 14-9-10d |
मरुत उवाच। | 14-9-11x |
आश्वर्यमद्ययामि रूपिणं वह्निमागतम्। आसनं सलिलं पाद्यं गां चोपानय वै मुने।। | 14-9-11a 14-9-11b |
अग्निरुवाच। | 14-9-12x |
आसनं सलिलं पाद््रतिनन्दामि तेऽनघ। इन्द्रेण तु समादिष्टं विद्धि मां दूतमागतम्।। | 14-9-12a 14-9-12b |
मरुत उवाच। | 14-9-13x |
कच्चिच्छ्सुखी च कच्चिच्चास्मान्प्रीयते धूमकेतो। कच्चिद्देवा अस्य वशे यथाव- त्प्रब्रूहि त्वं मम कार्त्स्न्येन देव।। | 14-9-13a 14-9-13b 14-9-13c 14-9-13d |
अग्निरुवाच। | 14-9-14x |
शक्रो भृशं सुसुखी पार्थरातिं चेच्छत्यजरां वै त्वया सः। देवाश्च सर्वे वशगास्तस्य राज- न्संदेशं त्वं शृणु मे देवराज्ञः।। | 14-9-14a 14-9-14b 14-9-14c 14-9-14d |
यदर्थं मां प्राहिणोत्त्वत्सकाशं बृहस्पतिं परिदातुं मरुत्ते। अयं गुरुर्याजयतां नृप त्वां मर्त्यं सन्तममरं त्वां करोतु।। | 14-9-15a 14-9-15b 14-9-15c 14-9-15d |
मरुत उवाच। | 14-9-16x |
संवर्तोऽयं याजयिता द्विजो मां बृहस्पतेरञ्जलिरेष तस्य। न चैवासौ याजयित्वा महेन्द्रं मर्त्यं सन्तं याजयन्नद्य शोभेत्।। | 14-9-16a 14-9-16b 14-9-16c 14-9-16d |
अग्निरुवाच। | 14-9-17x |
ये वै लोका देवलोके महान्तः सम्प्राप्स्यसे तान्देवराजप्रसादात्। त्वां चेदसौ याजयेद्वै बृहस्पति- र्नूनं स्वर्गं त्वं जयेः कीर्तियुक्तः।। | 14-9-17a 14-9-17b 14-9-17c 14-9-17d |
तथा लोका मानुषा ये च दिव्याः प्रजापतेश्चापि ये वै महान्तः। तेते जिता देवराज्यं च कृत्स्नं बृहस्पतिर्याजयेच्चेन्नरेन्द्र।। | 14-9-18a 14-9-18b 14-9-18c 14-9-18d |
संवर्त उवाच। | 14-9-19x |
मा स्मैव त्वं पुनरागाः कथंचि- द्बृहस्पतिं परिदातुं मरुत्ते। मा त्वां धक्ष्ये चक्षुषा दारुणेन संक्रुद्धोऽहं पावक त्वं निबोधः।। | 14-9-19a 14-9-19b 14-9-19c 14-9-19d |
व्यास उवाच। | 14-9-20x |
ततो देवानगमद्धूमकेतु- दीहाद्भीतो व्यथितोऽश्वत्थपर्णवत्। तं वै दृष्ट्वा प्राह शक्रो महात्मा बृहस्पतेः सन्निधौ हव्यवाहम्।। | 14-9-20a 14-9-20b 14-9-20c 14-9-20d |
यस्त्वं गतः प्रहितो जातवेदो बृहस्पतिं परिदातुं मरुत्ते। तत्किं प्राह स नृपो यक्ष्यमाणः कच्चिद्वचः प्रतिगृह्णाति तच्च। | 14-9-21a 14-9-21b 14-9-21c 14-9-21d |
अग्निरुवाच। | 14-9-22x |
न ते वाचं रोचयते मरुत्तो बृहस्पतेरञ्जलिं प्राहिणोत्सः। संवर्तो मां याजयितेत्युवाच पुनः पुनः स मया याच्यमानः।। | 14-9-22a 14-9-22b 14-9-22c 14-9-22d |
उवाचेदं मानुषा ये च दिव्या। प्रजापतेर्ये च लोका महान्तः। तांश्चेल्लभेयं संविदं तेन कृत्वा तथापि नेच्छेयमिति प्रतीतः।। | 14-9-23a 14-9-23b 14-9-23c 14-9-23d |
इन्द्र उवाच। | 14-9-24x |
पुनर्गत्वा पार्थिवं त्वं समेत्य वाक्यं मदीयं प्रापय स्वार्थयुक्तम्। पुनर्यद्युक्तो न करिष्यते वच- स्त्वत्तो वज्रं सम्प्रहर्तास्मि तस्मै।। | 14-9-24a 14-9-24b 14-9-24c 14-9-24d |
अग्निरुवाच। | 14-9-25x |
गन्धर्वराड्यात्वयं तत्र दूतो बिभेम्यहं वासव तत्र गन्तुम्। संरब्धो मामब्रवीत्तीक्ष्णरोषः संवर्तो वाक्यं चरितब्रह्मचर्यः।। | 14-9-25a 14-9-25b 14-9-25c 14-9-25d |
यद्यागच्छेः पुनरेवं कथंचि- द्बृहस्पतिं परिदातुं मरुत्ते। दहेयं त्वां चक्षुषा दारुणेन संक्रुद्ध इत्येतदवैहि शक्र।। | 14-9-26a 14-9-26b 14-9-26c 14-9-26d |
शक्र उवाच। | 14-9-27x |
त्वमेवान्यान्दहसे जातवेदो न हि त्वदन्यो विद्यते भस्मकर्ता। त्वत्संस्पर्शात्सर्वलोको बिभेति अश्रद्धेयं वदसे हव्यवाह।। | 14-9-27a 14-9-27b 14-9-27c 14-9-27d |
अग्निरुवाच। | 14-9-28x |
दिवं देवेन्द्र पृथिवीं च सर्वां संवेष्टयेस्त्वं स्वबलेनैव शक्र। एवंविधस्येह सतस्तवासौ कथं वृत्रस्त्रिदिवं प्राग्जहार।। | 14-9-28a 14-9-28b 14-9-28c 14-9-28d |
इन्द्र उवाच। | 14-9-29x |
नगण्डिकाकारयोगं करेऽणुं न चारिसोमं प्रपिबामि वह्ने। न क्षीणशक्तौ प्रहारामि वज्रं को मे सुखाय प्रहरेत मर्त्यः।। | 14-9-29a 14-9-29b 14-9-29c 14-9-29d |
प्रव्रजयेयं कालकेयान्पृथिव्या- मपाकर्षन्दानवानन्तरिक्षात्। दिवः प्रह्लादमवसानमानयं को मेऽसुखाय प्रहरेत मानवः।। | 14-9-30a 14-9-30b 14-9-30c 14-9-30d |
अग्निरुवाच। | 14-9-31x |
यत्र शर्यातिं च्यवनो याजयिष्य- न्सहाश्विभ्यां सोममगृह्णदेकः। तं त्वं क्रुद्धः प्रत्यषेधीः पुरस्ता- च्छर्यातियज्ञं स्म तं महेन्द्र।। | 14-9-31a 14-9-31b 14-9-31c 14-9-31d |
वज्रं गृहीत्वा च पुरन्दर त्वं सम्प्राहार्षीश्च्यवनस्यातिघोरम्। स ते विप्रः सह वज्रेणि बाहु- मपागृह्णात्तपसा जातमन्युः।। | 14-9-32a 14-9-32b 14-9-32c 14-9-32d |
ततो रोषात्सर्वतो घोररूपं सपत्नं ते जनयामास भूयः। मदं नाम्ना चासुरं विश्वरूपं यं त्वं दृष्ट्वा चक्षुषी संन्यमीलः।। | 14-9-33a 14-9-33b 14-9-33c 14-9-33d |
हनुरेका जगतीस्था तथैका दिवं गता महतो दानवस्य। सहस्रं दन्तानां शतयोजनानां सुतीक्ष्णानां घोररूपं बभूव।। | 14-9-34a 14-9-34b 14-9-34c 14-9-34d |
वृत्ताः स्थूला रजतस्तम्भवर्णा दंष्ट्राश्चतस्रो द्वे शते योजनानाम्। स त्वां दन्तान्विदशन्नभ्यधाव- ज्जिघांसया शूलमुद्यम्य घोरम्।। | 14-9-35a 14-9-35b 14-9-35c 14-9-35d |
तं नापश्यस्त्वं तदा घोररूपं सर्वे वै त्वां ददृशुर्दर्शनीयम्। यस्माद्भीतः प्राञ्जलिस्त्वं महर्षि- मागच्छेथाः शरणं दानवघ्न।। | 14-9-36a 14-9-36b 14-9-36c 14-9-36d |
क्षात्राद्बलाद्ब्रह्मबलं गरीयो न ब्रह्मतः किञ्चिदन्यद्गरीयः। सोहं जानन्ब्रह्मतेजो यथाव- न्न संवर्त गन्तुमिच्छामि शक्र।। | 14-9-37a 14-9-37b 14-9-37c 14-9-37d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अश्वमेधपर्वणि नवमोऽध्यायः।। 9 ।। |
14-9-29 नाहं दौर्बल्याद्वृत्रेण जित इति वक्तं स्वसामर्थ्यमिन्द्रो वह्निप्रति वदति नगण्डिकाकारयोगं करेणुम्। नगं पर्वतं डीयते विहायसा गच्छतीति डीः पक्षी अल्पो डीर्डिका मक्षिकामशकादिस्तस्या आकारेण योगोस्यास्तीत्येवंरूपं अणुं सूक्ष्मं करेकुर्वे। कृञश्छान्दसं भौवादिकत्वम्। करेणेतिपाठे करोमीत्यध्याहारः। पार्थोधिं करे कर्तुमगस्त्य इवाहं पर्वतमपि मशकीकर्तुं समर्थोस्मीत्यर्थः। कुतस्तर्हि वृत्रस्त्वां नाराधितवानित्यत आह न चारिसोमं प्रपिबामि वह्ने। अरिसोमं शत्रुदत्तं सोमम्। त्वयैव स कुती न निर्जित इत्यत आह न क्षीणशक्तौ प्रहरामि वज्रमित्यादिना न दण्डकान्नारकान्नो कलिङ्गान्न करूशान्सोमं प्रपिबामि वह्ने। न दुर्बलायावसृजामि वज्रं को मे सुखी यः प्रहरेन्मनुष्यः इति क.थ.पाठः।।
आश्वमेधिकपर्व-008 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-010 |