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महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-106

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महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-106
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति कपिलादानप्रशंसनम्।। 1 ।। ब्रह्मणाऽग्निकुण्डमध्यात्कपिलासर्जनम्। तधा रुद्रादिदेवैः कपिलायै सर्वपूज्यत्वादिरूपवरदानम्।। 2 ।। देवर्ष्यादिभइः स्वनिवासाय कपिलावयवसमाश्रयणम्।। 3 ।। कृष्णेन हव्यकव्यदानकालकथनम्। तथा श्राद्धार्हानर्हब्राह्मणविवेचनम्। तथा स्वर्गनरकप्रापकसुकृतदुष्कृतकथनम्।। 4 ।।

कपिला गौ
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वैशम्पायन उवाच। 14-106-1x
एवं श्रुत्वा परं पुण्यं कपिलादानमुत्तमम्।
धर्मपुत्रः प्रहृष्टात्मा केशवं पुनरब्रवीत्।।
14-106-1a
14-106-1b
देवदेवश कपिला यदा विप्राय दीयते।
कथं सर्वेषु चाङ्गेषु तस्यास्तिष्ठन्ति देवताः।।
14-106-2a
14-106-2b
याश्चैताः कपिलाः प्रोक्ता दश चैव त्वया मम।
तासां कति सुरश्रेष्ठ् कपिलाः पुण्यलक्षणाः।।
14-106-3a
14-106-3b
कथं वाऽनुगृहीतास्ताः सुरैः पितृगणैरपि।
केन युक्ताश्च वर्णेन श्रोतुं कौतूहलं मे।।
14-106-4a
14-106-4b
वैशम्पायन उवाच। 14-106-5x
युधिष्ठिरेणैवमुक्तः केशवः सत्यवाक्तदा।
गुह्यानां परमं गुह्यं वक्तुमेवोपचक्रमे।।
14-106-5a
14-106-5b
शृणु राजन्पवित्रं वै रहस्यं धर्ममुत्तमम्।।
ग्रहणीयं सत्यमिदं न श्राव्यं हेतुवादिभिः।।
14-106-6a
14-106-6b
यदा वत्सस्य पादौ द्वौ प्रसवे शिरसा सह।
दृश्येते दानकालं तत्तमाहुर्मुनिसत्तमाः।।
14-106-7a
14-106-7b
अन्तरिक्षगतो वत्सो यावद्भूमिं न यास्यति।
गौस्तावत्पृथिवी ज्ञेया तस्माद्देया तु तादृशी।।
14-106-8a
14-106-8b
यावन्ति धेन्वा रोमाणि सवत्साया युधिष्ठिर।
यावत्यः सिकताश्चापि गर्भोदकपरिप्लुताः।
तावद्वर्षसहस्राणि दाता स्वर्गे महीयते।।
14-106-9a
14-106-9b
14-106-9c
सुवर्णाभरणां कृत्वा सव्तसां कपिलां तिलैः।
प्रच्छाद्य तां तु दद्याद्वै सर्वरत्नैरलङ्कृताम्।।
14-106-10a
14-106-10b
ससमुद्रा नदी तेन सशैलवनकानना।
चतुरन्ता भवेद्दत्ता नात्र कार्या विचारणा।।
14-106-11a
14-106-11b
पृथिवीदानतुल्येन तेन दानेन मानवः।
संसारसागरात्तीर्णो याति लोकं प्रजापतेः।।
14-106-12a
14-106-12b
ब्रह्महा भ्रूणहा गोघ्नो यदि वा गुरुतल्पगः।
महापातकयुक्तोपि एतद्दानेन शुद्ध्यति।।
14-106-13a
14-106-13b
इदं पठति यः पुण्यं कपिलादानमुत्तमम्।
प्रातरुत्थाय मद्भक्त्या तस्य पुण्यफलं शृणु।।
14-106-14a
14-106-14b
मनसा कर्मणा वाचा मतिपूर्वं युधिष्ठिर।
पापं रात्रिकृतं हन्यादस्याध्यायस्य पाठकः।।
14-106-15a
14-106-15b
इदमावर्तमानस्तु श्राद्धे यस्तर्पयेद्द्विजान्।
तस्याप्यमृतमश्नन्ति पितरोऽत्यन्तहर्षिताः।।
14-106-16a
14-106-16b
यश्चेदं शृणुयाद्भक्त्या मद्गतेनान्तरात्मना।
तस्य रात्रिकृतं सर्वुं पापमाशु प्रणश्यति।।
14-106-17a
14-106-17b
अतः परं विशेषं तु कपिलानां ब्रवीमि ते।
याश्चैताः कपिलाः प्रोक्ता दश राजन्मया तव।
तासां चतस्रः प्रवराः पुण्याः पापप्रणाशनाः।।
14-106-18a
14-106-18b
14-106-18c
सुवर्णकपिला पुण्या तथा रक्ताक्षिपिङ्गला।
पिङ्गलाक्षी च या गौश्च या स्यात्पिङ्गलपिङ्गला।।
14-106-19a
14-106-19b
एताश्चतस्रः प्रवराः पवित्राः पापनाशनाः।
नमस्कृता वा दृष्टा वा घ्नन्ति पापं नरस्य तु।।
14-106-20a
14-106-20c
यस्यैताः कपिलाः सन्ति गृहे पापप्रणाशनाः।
तत्र श्रीर्विजयः कीर्तिः स्फीता नित्यं युधिष्ठिर।।
14-106-21a
14-106-21b
एतासां प्रीतिमायाति क्षीरेण तु वृषध्वजः।
दध्ना च त्रिदशाः सर्वे घृतेन तु हुताशनः।।
14-106-22a
14-106-22b
पितरः पितामहाश्चैव तथैव प्रपितामहाः।
सकृद्देत्तेन तुष्यन्ति वर्षकोटिं युधिष्ठिर।।
14-106-23a
14-106-23b
कपिलाया घृतं क्षीरं दधि पायसमेव वा।
श्रोत्रियेभ्यः सकृद्दत्वा नरः पापैः प्रमुच्यते।।
14-106-24a
14-106-24b
उपवासं तु यः कृत्वाऽप्यहोरात्रं जितेन्द्रियः।
कपिलापञ्चगव्यं तु पीत्वा चान्द्रायणात्परम्।।
14-106-25a
14-106-25b
सौम्ये मुहूर्ते तत्प्रशय शुद्धात्मा शुद्धमानसः।
क्रोधानृतविनिर्मुक्तो मद्गतेनान्तरात्मना।।
14-106-26a
14-106-26b
कपिलापञ्चगव्येन सुमन्त्रेण पृथक्पथक्।
यो मत्प्रतिकृतिं वाऽपि शङ्कराकृतिमेव वा।
स्नापयेद्विषुवे यस्तु सोऽश्वमेधफलं लभेत्।।
14-106-27a
14-106-27b
14-106-27c
स मुक्तपापः शुद्धात्मा यानेनांबरशोभिना।
मम लोकं व्रजेन्मुक्तो रुद्रलोकमथापि वा।।
14-106-28a
14-106-28b
ब्रह्मणा तु पुरा सृष्टा कपिला काञ्चनप्रभा।
अग्निकुण्डात्परैर्मन्त्रैर्होमधेनुर्महाप्रभा।।
14-106-29a
14-106-29b
सृष्टमात्रां तु तां दृष्ट्वा देवा रुद्रादयो दिवि।
सिद्धा ब्रह्मर्षयश्चैव वेदाः साङ्गाः सहाध्वरैः।।
14-106-30a
14-106-30b
सागराः सरितश्चैव पर्वताः सबलाहकाः।
गन्धर्वाप्सरसो यक्षाः पन्नगाश्चाप्युपस्थिताः।।
14-106-31a
14-106-31b
सर्वे विस्मयमापन्नाः शिखिमध्ये महाप्रभाम्।
मन्त्रैशअच विविधैस्तां तु तुष्टुवुस्तामनेकशः।।
14-106-32a
14-106-32b
कृताञ्जलिपुटाः सर्वे नातिशृङ्गीं त्रिलोचनाम्।
मूर्ध्ना प्रणम्य तां भूमौ सवत्साममृतारणिम्।।
14-106-33a
14-106-33b
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे चतुर्वक्त्रं पितामहम्।
आज्ञापय महादेव किं ते कुर्मः कथं विभो।।
14-106-34a
14-106-34b
एवमुक्तः सुरैः सर्वैर्ब्रह्मा वचनमब्रवीत्।
भवन्तोप्यनुगृह्णन्तु दोग्ध्रीमेनां पयस्विनीम्।।
14-106-35a
14-106-35b
होमधेनुरियं ज्ञेया ह्यग्नीन्संतर्पयिष्यति।
अतोऽग्निस्तर्पितः सर्वान्भवतस्तर्पयिष्यति।।
14-106-36a
14-106-36b
प्रीताः क्षीरामृतेनास्या जातवीर्यपराक्रमाः।
जयिष्यथ यथाकामं दानवान्सर्व एव तु।।
14-106-37a
14-106-37b
जातवीर्यबलैर्युक्ताः सत्ववन्तो जितेन्द्रियाः।
असङ्ख्येयबलाः सर्वे पालयिष्यथ वै प्रजाः।।
14-106-38a
14-106-38b
पालिताश्च प्रजाः सर्वा भवद्भिरिह धर्मतः।
पूजयिष्यन्ति वा नित्यं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।।
14-106-39a
14-106-39b
एवमुक्ताः सुराः सर्वे ब्रह्मणा परमेष्ठिना।
ततः संहृष्टवदनाः कपिलायै वरं ददुः।।
14-106-40a
14-106-40b
देवता ऊचुः। 14-106-41x
यस्माल्लोकहितायाद्य ब्रह्मणा त्वं विनिर्मिता।
तस्मात्पूता पवित्रा च भव पापव्यपोहिनी।।
14-106-41a
14-106-41b
ये त्वां दृष्ट्वा नमस्यन्ति स्पृष्ट्वा चापि करैर्नराः।
तेषां वर्षकृतं पापं त्वद्भक्तानां प्रणश्यति।।
14-106-42a
14-106-42b
अकामकृतमज्ञानमदृष्टं यच्च पातकम्।
त्वां दृष्ट्वा ये नमस्यन्ति नराः सर्वसहेति च।
तेषां तद्विलयं याति तमः सूर्योदये यथा।।
14-106-43a
14-106-43b
14-106-43c
भगवानुवाच। 14-106-44x
इत्युक्त्वाऽस्यै वरं दत्त्वा प्रययुस्ते यथागतम्।
लोकनिस्तरणार्थाय सा च लोकांश्चचार ह।।
14-106-44a
14-106-44b
तस्यामेव समुद्भूता ह्येताश्च कपिला नव।
विचरन्ति महीमेनां लोकानुग्रहकारणात्।
तस्मात्तु कपिला देया परत्र हितमिच्छता।।
14-106-45a
14-106-45b
14-106-45c
यदा च दीयते राजन्कपिला ह्यग्निहोत्रिणे।
तदा च शृङ्गयोस्तस्या विष्णुरिन्द्रश्च तिष्ठति।।
14-106-46a
14-106-46b
चन्द्रवज्रधरौ चापि तिष्ठतः शृङ्गमूलयोः।
शृङ्गमध्ये तथा ब्रह्मा ललाटे गोवृषध्वजः।।
14-106-47a
14-106-47b
कर्णयोरश्विनौ देवौ चक्षुषी शशिभास्करौ।
दन्तेषु मरुतो देवा जिह्वायां वाक्सरलस्वती।।
14-106-48a
14-106-48b
रोमकूपेषु मुनयश्चर्मण्येव प्रजापतिः।
निश्श्वासेषु स्थिता वेदाः सषडङ्गपदक्रमाः।।
14-106-49a
14-106-49b
नासापुटे स्थिता गन्धाः पुष्पाणि सुरभीणि च।
अधरे वसवः सर्वे मुखे चाग्निः प्रतिष्ठितः।।
14-106-50a
14-106-50b
साध्या देवाः स्थिताः कक्षे ग्रीवायां पार्वती स्थिता।
पृष्ठे च नक्षत्रगणाः ककुद्देशे नभस्स्थलम्।।
14-106-51a
14-106-51b
अपाने सर्वतीर्थानि गोमूत्रे जाह्नवी स्वयम्।
इष्टतुष्टमया लक्ष्मीर्गोमये वसती तदा।।
14-106-52a
14-106-52b
नासिकायां सदा देवी ज्येष्ठा वसति भामिनी।
श्रोणीतटस्थाः पितरो रमा लाङ्गूलमाश्रिता।।
14-106-53a
14-106-53b
पार्श्वयोरुभयोः सर्वे विश्वेदेवाः प्रतिष्ठिताः।
तिष्ठत्युरसि तासां तु प्रीतः शक्तिधरो गुहः।।
14-106-54a
14-106-54b
जानजङ्घोरुदेशेषु पञ्च तिष्ठन्ति वायवः।
खुरमध्येषु गन्धर्वाः खुराग्रेषु च पन्नगाः।।
14-106-55a
14-106-55b
चत्वारः सागराः पूर्णास्तस्या एव पयोधराः।
रतिर्मेधा क्षमा स्वाहा श्रद्धा शान्तिर्धृतिः स्मृतिः।
14-106-56a
14-106-56b
कीर्तिर्दीप्तिः क्रिया कान्तिस्तुष्टिः पुष्टिस्च सन्ततिः।
दिशश्च प्रदिशश्चैव सेवन्ते कपिलां सदा।।
14-106-57a
14-106-57b
देवा पितृगणाश्चापि गन्धर्वाप्सरसां गणाः।
लोका द्वीपार्णवाश्चैव गङ्गाद्याः सरितस्तथा।।
14-106-58a
14-106-58b
देवाः पितृगणाश्चापि वेदाः साङ्गाः सहाध्वरैः।
वेदोक्तैर्विविधैर्मन्त्रैः स्तुवन्ति हृषितास्तथा।।
14-106-59a
14-106-59b
विद्याधराश्च ये सिद्धा भूतास्तारागणास्तथा।
पुष्पवृष्टिं च वर्षन्ति प्रनृत्यन्ति च हर्षिताः।।
14-106-60a
14-106-60b
ब्रह्मणोत्पादिता देवी वह्निकुण्डान्महाप्रभा।
नमस्ते कपिले पुण्ये सर्वदेवैर्नमस्कृते।।
14-106-61a
14-106-61b
कपिलेऽथ महासत्वे सर्वतीर्थमये शुभे।
दातारं स्वजनोपेतं ब्रह्मलोकं नय स्वयम्।।
14-106-62a
14-106-62b
अहो रत्नमिदं पुण्यं सर्वदुःखघ्नमुत्तमम्।
अहो धर्मार्जितं शुद्धमिदमग्र्यं महाधनम्।
इत्याकाशस्थितस्ते तु सर्वदेवा जपन्ति च।।
14-106-63a
14-106-63b
14-106-63c
तस्याः प्रतिग्रहीता च भुङ्क्ते यावद्द्विजोत्तमः।
तावद्देवगणाः सर्वे कपिलामर्चयन्ति च।
स्वर्णशृङ्गीं रूप्यखुरां गन्धैः पुष्पैः सुपूजिताम्।।
14-106-64a
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14-106-64c
वस्त्राभ्यामहताभ्यां तु यावत्तिष्ठत्यलङ्कृता।
तावद्यदिच्छेत्कपिला मन्त्रपूता सुसंस्कृता।
भूलोकवासिनः सर्वान्ब्रह्मलोकं नयेत्स्वयम्।।
14-106-65a
14-106-65b
14-106-65c
भूरश्वः कनकं गावो रूप्यमश्वं तिला यवाः।
दीयमानानि विप्राय प्रहृष्यन्ति दिनेदिने।।
14-106-66a
14-106-66b
अथ त्वश्रोत्रियेभ्यो वै तानि दत्तानि पाण्डव।
तथा निन्दन्त्यथात्मानमशुभं किंनु नः कृतं।।
14-106-67a
14-106-67b
अहो रक्षःपिशाचैश्च लुप्यमानाः समन्ततः।
यास्यामो निरयं शीघ्रमिति शोचन्ति तानि वै।।
14-106-68a
14-106-68b
एतान्यपि द्विजेभ्यो वै श्रोत्रियेभ्यो विशेषतः।
दीयमानानि वर्धन्ते दातारं तारयन्ति च।।
14-106-69a
14-106-69b
युधिष्ठिर उवाच। 14-106-70x
देवदेवेश दैत्यघ्न कालः को हव्यकव्ययोः।
के तत्रि पूजामर्हन्ति वर्जनीयाश्च के द्विजाः।।
14-106-70a
14-106-70b
भगवानुवाच। 14-106-71x
दैवं पूर्वाह्णिकं ज्ञेयं पैतृकं चापराह्णिकम्।
कालहीनं च यद्दानं तद्दानं राजसं विदुः।।
14-106-71a
14-106-71b
अवघुष्टं च यद्भुक्तमनृतेन च भारत।
परामृष्टं शुना वाऽपि तद्भागं राक्षसं विदुः।।
14-106-72a
14-106-72b
यावन्तः पतिता विप्रा जडोन्मत्तादयोपि च।
दैवे च पित्र्ये ते विप्रा राजन्नार्हन्ति सत्क्रियां।।
14-106-73a
14-106-73b
क्लीबः प्लङ्गी च कृष्ठी च राजयक्ष्मान्वितश्च यः।
अपस्मारी च यश्चापि पित्र्ये नार्हति सत्कृतिम्।।
14-106-74a
14-106-74b
चिकित्सका देवलका मिथ्यानियमधारिणः।
सोमविक्रयिणश्चापि श्राद्धे नार्हन्ति सत्कृतिम्।।
14-106-75a
14-106-75b
एकोद्दिष्टे च ये चान्नं भुञ्जते विधिवद्द्बिजाः।
चान्द्रायणमकृत्वा ते पुनर्नार्हन्ति सत्कृतिम्।।
14-106-76a
14-106-76b
गायका नर्तकाश्चैव प्लवका वादकास्तथा।
कथका यौधिकाश्चैव श्राद्धे नार्हन्ति सत्कृतिम्।।
14-106-77a
14-106-77b
अनग्नयश्च ये विप्राः शवनिर्यातकाश्च ये।
स्तेनाश्चापि विकर्मस्था राजन्नार्हन्ति सत्कृतिम्।।
14-106-78a
14-106-78b
अपरिज्ञातपूर्वाश्च गणपुत्राश्च ये द्विजाः।
पुत्रिकापुत्रकाश्चापि श्राद्धे नार्हन्ति सत्कृतिम्।।
14-106-79a
14-106-79b
रणकर्ता च यो विप्रो यश्च वाणिज्यको द्विजः।
प्राणिविक्रयवृत्तिश्च श्राद्धे नार्हन्ति सत्कृतिम्।।
14-106-80a
14-106-80b
चीर्णव्रतगुणैर्युक्ता नित्यं स्वाध्यायतत्पराः।
सावित्रीज्ञाः क्रियावन्तस्ते श्राद्धे सत्कृतिक्षमाः।।
14-106-81a
14-106-81b
श्राद्धस्य ब्राह्मणः कालः प्राप्तं दघि घृतं तथा।
दर्भाः सुमनसः क्षेत्रं तत्काले श्राद्धदो भवेत्।।
14-106-82a
14-106-82b
चारित्रनिरता राजन्कृशा ये कृशवृत्तयः।
अर्थिनश्चोपगच्छन्ति तेभ्यो दत्तं महत्फलम्।।
14-106-83a
14-106-83b
तपस्विनश्च ये विप्रास्तथा भैक्षचराश्च ये।
अर्थिनः केचिदिच्छन्ति तेषां दत्तं महत्फलम्।।
14-106-84a
14-106-84b
एवं धर्मभूतां श्रेष्ठ ज्ञात्वा सर्वात्मना तदा।
र्श्रोत्रियाय दरिद्राय प्रयच्छानुपकारिणे।।
14-106-85a
14-106-85b
दानं यत्ते प्रियं किंचिच्छ्रोत्रियाणां च यत्प्रियम्।
तत्प्रयच्छस्व धर्मज्ञ यदीच्छसि तदक्षयम्।।
14-106-86a
14-106-86b
निरयं ये च गच्छन्ति तच्छृणुष्व युधिष्ठिर।। 14-106-87a
गुर्वर्थं वा भयार्थं वा नोचेदन्यत्र पाण्डव।
वदन्ति येऽनृतं विप्रास्ते वै निरयगामिनः।।
14-106-88a
14-106-88b
परदारापहर्तारः परदारामिमर्शकाः।
परारप्रयोक्तारस्तें वै निरयगामिनः।।
14-106-89a
14-106-89b
सूचकाः संधिभेत्तारः परद्रव्योपजीविनः।
अकृतज्ञाश्च मित्राणां ते वै निरयगामिनः।।
14-106-90a
14-106-90b
वर्णाश्रमाणां ये बाह्याः पाषण्डाश्चैव पापिनः।
उपासते च तानेव ते सर्वे नरकालयाः।।
14-106-91a
14-106-91b
वेदविक्रयिणश्चैव वेदानां चैव दूषकाः।
वेदानां लेखकाश्चैव ते वै निरयगामिनः।।
14-106-92a
14-106-92b
रसविक्रयिणो राजन्विषविक्रयिणश्च ये।
क्षीरविक्रयिणश्चापि ते वै निरयगामिनः।।
14-106-93a
14-106-93b
चण्डालेभ्यश्च ये क्षीरं प्रयच्छन्ति नराधमाः।
अर्थार्थमथवा स्नेहात्ते वै निरयगामिनः।।
14-106-94a
14-106-94b
पशूनां दमक**यैव तथा नासानुवेधकाः
पुंस्त्वहिंसाकरस्चैव ते वै निरयगामिनः।।
14-106-95a
14-106-95b
अदातारः समर्था ये द्रव्याणां लोभकारणात्।
दीनानन्धान्न पश्यन्ति ते वै निरयगामिनः।।
14-106-96a
14-106-96b
क्षान्तान्दान्तान्कृशान्प्राज्ञान्दीर्घकालं सहोषितान्।
त्यजन्ति कृतकृत्या ये ते वा निरयगामिनः।।
14-106-97a
14-106-97b
बालानामपि वृद्धानां श्रान्तानां चापि ये नराः।
अदत्त्वाऽश्नान्ति मृष्टान्नं ते वै निरयगामिनः।।
14-106-98a
14-106-98b
एते पूर्वर्षिभिः प्रोक्ता नरा निरयगामिनः।
ये स्वर्गं समनुप्राप्तास्ताञ्शृणुष्व युधिष्ठिर।।
14-106-99a
14-106-99b
दानेन तपसा चैव सत्येन च दमेन च।
ये धर्ममनुवर्तन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः।।
14-106-100a
14-106-100b
शुश्रूषयाऽप्युपाध्यायाच्छ्रुतमादाय पाण्डव।
ये प्रतिग्रहनिस्स्नेहास्ते नराः स्वर्गगामिनः।।
14-106-101a
14-106-101b
मधुमांसासवेभ्यस्तु निवृत्ता व्रतवत्तु ये।
परदारनिवृत्ता ये ते नराः स्वर्गगामिनः।।
14-106-102a
14-106-102b
मातरं पितरं चैव शुश्रूषन्ति च ये नराः।
भ्रहातॄणामपि सस्नेहास्ते नराः स्वर्गगामिनः।।
14-106-103a
14-106-103b
ये तु भोजनकाले तु निर्याताश्चातिथिप्रियाः।
द्वाररोधं न कुर्वन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः।।
14-106-104a
14-106-104b
वैवाहिकं तु कन्यानां दरिद्राणां च ये नराः।
कारयन्ति च कुर्वन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः।।
14-106-105a
14-106-105b
रसानामथ बीजानामोषधीनां तथैव च।
दातारः श्रद्धयोपेतास्ते नराः स्वर्गगामिनः।।
14-106-106a
14-106-106b
क्षेमाक्षेमं च मार्गेषु समानि विषमाणि च।
अर्थिनां ये च वक्ष्यन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः।।
14-106-107a
14-106-107b
पर्वद्वये चतुर्दश्यामष्टम्यां संध्ययोर्द्वयोः।
आर्द्रायां जन्मनक्षत्रे विषुवे श्रवणेऽथवा।
ये ग्राम्यधर्मविरतास्ते नराः स्वर्गगाप्तिनः।।
14-106-108a
14-106-108b
14-106-108c
हव्यकव्यविधानं च नरकस्वर्गगामिनौ।
धर्माधर्मौ च कथितौ किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।।
14-106-109a
14-106-109b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
वैष्णवधर्मपर्वणि षडधिकशततमोऽध्यायः।। 106


आश्वमेधिकपर्व-105 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-107