महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-027
दिखावट
← आश्वमेधिकपर्व-026 | महाभारतम्/आश्वमेधिकपर्व चतुर्दशपर्व महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-027 वेदव्यासः |
आश्वमेधिकपर्व-028 → |
|
कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति प्रजापतिना एकेनैव शब्देन परब्रह्मोपदेशे देवर्ष्यादीनां स्वस्वयोग्यतानुसारेण नानार्थावगमप्रतिपादकब्राह्मणदंपतिसंवादानुवादः।। 1 ।।
ब्राह्मण उवाच। | 14-27-1x |
एकः शास्ता न द्वितीयोस्ति शास्ता यो हृच्छयस्तमहमनु ब्रवीमि। तेनैव युक्तः प्रवणादिवोदकं यथा नियुक्तोस्मि तथा वहामि।। | 14-27-1a 14-27-1b 14-27-1c 14-27-1d |
एको गुरुर्नास्ति ततो द्वितीयो यो हृच्छयस्तमहमनु ब्रवीमि। तेनानुशिष्टा गुरुणा सदैव पुरा हता दानवाः सर्व एव।। | 14-27-2a 14-27-2b 14-27-2c 14-27-2d |
एको बन्धुर्नास्ति ततो द्वितीयो यो हृच्छयस्तमहमनु ब्रवीमि। तेनानुशिष्टा बान्धवा बन्धुमन्तः सप्तर्षयः पार्थ दिवि प्रभान्ति।। | 14-27-3a 14-27-3b 14-27-3c 14-27-3d |
एकः श्रोता नास्ति ततो द्वितीयो यो हृच्छयस्तमहमनु ब्रवीमि। तस्मिन्गुरौ गुरुवासं निरुष्यट शक्रो गतः सर्वलोकामरत्वम्।। | 14-27-4a 14-27-4b 14-27-4c 14-27-4d |
एको द्वेष्टा नास्ति ततो द्वितीयो यो हृच्छयस्तमहमनु ब्रवीमि। तेनानुशिष्टा गुरुणा सदैव लोके द्विष्टाः पन्नगाः सर्व एव।। | 14-27-5a 14-27-5b 14-27-5c 14-27-5d |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। प्रजापतौ पन्नगानां देवर्षीणां च संविदम्।। | 14-27-6a 14-27-6b |
देवर्षयश्च नागाश्चाप्यसुराश्च प्रजापतिम्। पर्यपृच्छन्नुपासीनं श्रेयोः नः प्रोच्यतामिति।। | 14-27-7a 14-27-7b |
तेषां प्रोवाच भगवाञ्श्रेयः समनुपृच्छताम्। ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ते श्रुत्वा प्राद्रवन्दिशः।। | 14-27-8a 14-27-8b |
तेषां प्रद्रवमाणानामुपदेशं च शृण्वताम्। सर्पाणां दंशने भावः प्रवृत्तः पूर्वमे तु।। | 14-27-9a 14-27-9b |
असुराणां प्रवृत्तस्तु दंभभावः स्वभावजः। दानं देवा व्यवसिता दममेव महर्षयः।। | 14-27-10a 14-27-10b |
एकं शास्तारमासाद्य शब्देनैकेन संस्कृताः। नानाव्यवसिताः सर्वे सर्पदेवर्षिदानवाः।। | 14-27-11a 14-27-11b |
शृणोत्ययं प्रोच्यमानं गृह्णाति च यथातथम्। पृच्छतस्तदतो भूयो गुरुरन्यो न विद्यते।। | 14-27-12a 14-27-12b |
तस्य चानुमते कर्म ततः पश्चात्प्रवर्तते। गुरुर्बन्धुश्च शास्ता च द्वेष्टा च हृदि संश्रिताः।। | 14-27-13a 14-27-13b |
पापेन विचरँल्लोके पापचारी भवत्ययम्। शुभेन विचरँल्लोके शुभचारी भवत्युत।। | 14-27-14a 14-27-14b |
कामचारी तु कामेन य हन्द्रियसुखे रतः। ब्रह्मचारी सदैवैष य इन्द्रियजये रतः।। | 14-27-15a 14-27-15b |
अपेतव्रतकर्मा तु केवलं ब्रह्मणि स्थितः। ब्रह्मभूतश्चरँल्लोके ब्रह्मचारी भवत्ययम्।। | 14-27-16a 14-27-16b |
ब्रह्मैव समिधस्तस्य ब्रह्माग्निर्ब्रह्मसंस्तरः। आपो ब्रह्म गुरुर्ब्रह्म स ब्रह्मणि समाहितः।। | 14-27-17a 14-27-17b |
एतदेवेदृशं सूक्ष्मं ब्रह्मचर्यं विदुर्बुधाः। विदित्वा चान्वपद्यन्त क्षेत्रज्ञेनानुदर्शिताः।। | 14-27-18a 14-27-18b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि सप्तविंशोऽध्यायः।। 27 ।। |
14-27-1 एकः शास्ता न द्वितीयोस्ति कश्चिद्यथा नियुक्तोऽस्मि तथा चरामि। हृद्येष तिष्ठन्पुरुषः शास्ति शास्ता तेनानुयुक्तः प्रवणादिवोदकमिति क.ट.द.पाठः।। 14-27-7 देवाश्च ऋषयश्चेति द्वन्द्वः।। 14-27-8 प्राद्रवन्प्रतिपेदिरे। दिशो बहून्मार्गान्।। 14-27-13 गुरुर्बोद्धा च श्रोता च द्वेष्टा च हृदि निःसृत इति झ.पाठः।।
आश्वमेधिकपर्व-026 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-028 |