महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-098
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति जन्मदानजीवितानां वैयर्थ्यापादकाधर्मकथनम्।। 1 ।। तथा दानानां सात्विकत्वादिकथनपूर्व तत्तत्फलानां त्रैविध्यादिप्रतिपादनम्।। 2 ।। तथा दानपात्रलक्षणनिरूपणम् ब्राह्मणमहिमानुवर्णनं च।। 3 ।।
वैशंपायन उवाच। | 14-98-1x |
एवं श्रुत्वा वचस्तस्य धर्मपुत्रोऽच्युतस्य तु। पप्रच्छ पुनरप्यन्यं धर्मं धर्मात्मजो हरिम्।। | 14-98-1a 14-98-1b |
वृथा च कति जन्मानि वृथा दानानि कानि च। वृथा च जीवितं केषां नराणां पुरुषोत्तम।। | 14-98-2a 14-98-2b |
कीदृशासु ह्यवस्थासु दानं दत्तं जनार्दन। इह लोकेऽनुभवति पुरुषः पुरुषोत्तम।। | 14-98-3a 14-98-3b |
गर्भस्थः किं समश्नाति किं बाल्ये वाऽपि केशव। यौवनस्थेऽपि किं कृष्ण वार्धके वाऽपि किं भवेत्।। | 14-98-4a 14-98-4b |
सात्विकं कीदृशं दानं राजसं कीदृशं भवेत्। तामसं कीदृशं देव तर्पयिष्यति किं प्रभो।। | 14-98-5a 14-98-5b |
उत्तमं कीदृशं दानं तेषां वा किं फलं भवेत्। किं दानं नयति ह्यूर्ध्वं किं गतिं मध्यमां नयेत्। गतिं जघन्यामथवा देवदेव ब्रवीहि मे।। | 14-98-6a 14-98-6b 14-98-6c |
एतदिच्छामि विज्ञातुं परं कौतूहलं हि मे। त्वदीयं वचनं सत्यं पुण्यं च मधुसूदन।। | 14-98-7a 14-98-7b |
वैशंपायन उवाच। | 14-98-8x |
एवं धर्मं प्रयत्नेन पृष्टः पाण्डुसुतेन वै। उवाच वासुदेवोऽथ धर्मान्धर्मात्मजस्य तु।। | 14-98-8a 14-98-8b |
भगवानुवाच। | 14-98-9x |
शृणु राजन्यथान्यायं वचनं तथ्यमुत्तमम्। कथ्यमानं मया पुण्यं सर्वपापव्यपोहनम्।। | 14-98-9a 14-98-9b |
वृथा च दश जन्मानि चत्वारि च नराधिप। वृथा दानानि पञ्चाशत्पञ्चैव च यथाक्रमम्।। | 14-98-10a 14-98-10b |
वृथा च जीवितं येषां ते च षट् परिकीर्तिताः। अनुक्रमेण वक्ष्यामि तानि सर्वाणि पार्थिव।। | 14-98-11a 14-98-11b |
धर्मघ्नानां वृथा जन्म लुब्धानां पापिनां तथा। वृथा पाकं च येऽश्नन्ति परदाररताश्च ये। पाकभेदकरा ये च ये च स्युः सत्यवर्जिताः।। | 14-98-12a 14-98-12b 14-98-12c |
मृष्टमश्नाति यश्चैकः क्लिस्यमानैस्तु बान्धवैः। पितरं मातरं चैव उपाध्यायं गुरुं तथा। मातुलं मातुलानीं च यो निहन्याच्छपेत वा।। | 14-98-13a 14-98-13b 14-98-13c |
ब्राह्मणश्चैव यो भूत्वा सन्ध्योपासनवर्जितः। निस्स्वाहो निस्स्वधश्चैव शूद्राणामन्नभुग्द्विजः।। | 14-98-14a 14-98-14b |
मम वा शंकरस्याथ ब्रह्मणो वा युधिष्ठिर। अथवा ब्राह्मणानां तु ये न भक्ता नराधमाः। वृथाजन्मान्यथैतेषां पापिनां विद्धि डव।। | 14-98-15a 14-98-15b 14-98-15c |
अश्रद्धयाऽपि यद्दत्तमवामानेन वाऽपि यत्। डंभार्थमपि यद्दत्तं यत्पाषण्डिहृतं नृप।। | 14-98-16a 14-98-16b |
शूद्राचाराय यद्दत्तं यद्दत्त्वा चानुकीर्तितम्। रोषयुक्तं तु यद्दत्तं यद्दत्तमनुशोचितम्।। | 14-98-17a 14-98-17b |
डंभार्जितं च यद्दत्तं यच्च वाऽप्यनृतार्जितम्। ब्राह्मणस्वं च यद्दत्तं चौर्येणाप्यार्जितं च यत्।। | 14-98-18a 14-98-18b |
अभिशास्ताहृतं यत्तु यद्दत्तं पतिते द्विजे। निर्ब्रह्माभिहृतं यत्तु यद्दत्तं सर्वयाचकैः।। | 14-98-19a 14-98-19b |
व्राप्यैस्तु यद्धृतं दानमारूढपतितैश्च यत्। यद्दत्तं स्वैरिणीभर्तुः श्वशुराननुवर्तिने।। | 14-98-20a 14-98-20b |
यद्ग्रामयाचकहृतं यत्कृतघ्नहृतं तथा। उपपातकिने दत्तं देवविक्रयिणे च यत्।। | 14-98-21a 14-98-21b |
स्त्रीजिताय च यद्दत्तं यद्दत्तं राजसेविने। गणकाय च यद्दत्तं यच्च कारणिकाय च।। | 14-98-22a 14-98-22b |
वृषलीपतये दत्तं यद्दत्तं शस्त्रजीविने। भृतकाय च यद्दत्तं व्यालग्राहिहृतं च यत्।। | 14-98-23a 14-98-23b |
पुरोहिताय यद्दत्तं चिकित्सकहृतं च यत्। यद्वणिंक्कर्मिणे दत्तं क्षुद्रमन्त्रोपजीविने।। | 14-98-24a 14-98-24b |
यच्छूद्रजीविने दत्तं यच्च देवलकाय च। देवद्रव्याशिने यच्च यद्दत्तं चित्रकर्मिणे।। | 14-98-25a 14-98-25b |
रङ्गोपजीविने दत्तं यच्च मांसोपजीविने। सेवकाय च यद्दत्तं यद्दत्तं ब्राह्मणब्रुवे।। | 14-98-26a 14-98-26b |
अदेशिने च यद्दत्तं दत्तं वार्धुषिकाय च। यदनाचारिणे दत्तं यत्तु दत्तमनग्रये।। | 14-98-27a 14-98-27b |
असन्ध्योपासिने दत्तं यच्छूद्रग्रामवासिने। यन्मिथ्यालिङ्गिने दत्तं दत्तं सर्वाशिने च यत्।। | 14-98-28a 14-98-28b |
नास्तिकाया च यद्दत्तं धर्मविक्रयिणे च यत्। वराकाय च यद्दत्तं यद्दत्तं कूटसाक्षिणे।। | 14-98-29a 14-98-29b |
ग्रामकूटाय यद्दत्तं दानं पार्तिवपुङ्गव। वृथा भवति तत्सर्वं नात्र कार्या विचारणा।। | 14-98-30a 14-98-30b |
विप्राणामधरा एते लोलुपा ब्राह्मणाधमाः। नात्मानं तारयन्त्येते न दातारं युधिष्ठिर।। | 14-98-31a 14-98-31b |
एतेभ्यो दत्तमात्राणि दानानि सुबहून्यपि। वृथा भवन्ति राजेन्द्र भस्मन्याज्याहुतिर्यथा।। | 14-98-32a 14-98-32b |
एतेषु यत्फलं किंचिद्भविष्यति कथंचन। राक्षसाश्च पिशाचाश्च तद्विलुंपन्ति हर्षिताः।। | 14-98-33a 14-98-33b |
वृथा ह्येतानि दत्तानि कथितानि समासतः। जीवितं तु वृथा येषां चच्छृणुष्व युधिष्ठिर।। | 14-98-34a 14-98-34b |
ये मां न प्रतिपद्यन्ते शङ्करं वा नराधमाः। ब्रैह्मणान्वा महीदेवान्वृथा जीवन्ति ते नराः।। | 14-98-35a 14-98-35b |
हेतुशास्त्रेषु ये सक्ताः कुदृष्टिपथमाश्रिताः। देवान्निन्दन्त्यनाचारा वृथा जीवन्ति ते नराः।। | 14-98-36a 14-98-36b |
कुशलैः कृतशास्त्राणि पठित्वा ये नराधमाः। विप्रान्निन्दन्ति यज्ञांश्च वृथा जीवन्ति ते नराः।। | 14-98-37a 14-98-37b |
ये दुर्गां वा कुमारं वा वायुमग्निं जलं रविम्। पितरं मातरं चैव गुरुमिन्द्रं निशाकरम्। मूढा निन्दन्त्यनाचारा वृथा जीवन्ति ते नराः।। | 14-98-38a 14-98-38b 14-98-38c |
विद्यमाने धने यस्तु दानधर्मविवर्जितः। मृष्टमश्नाति यश्चैको वृथा जीवति सोपि च।। | 14-98-39a 14-98-39b |
वृथा जीवितमाख्यातं दानकालं ब्रवीमि ते।। | 14-98-40a |
तमोनिविष्टचित्तेन दत्तं दानं तु यद्भवेत्। तदस्य फलमश्नाति नरो गर्भगतो नृप।। | 14-98-41a 14-98-41b |
ईर्ष्यामत्सरसंयुक्तो डंभार्थं चार्थकारणात्। ददाति दानं यो मर्त्यो बालभावे तदश्नुते।। | 14-98-42a 14-98-42b |
भोक्तं भोगमशक्तस्तु व्याधिभिः पीडितो भृशम्। ददाति दानं यो मर्त्यो वृद्धभावे तदश्नुते।। | 14-98-43a 14-98-43b |
श्रद्धायुक्तः शुचिः स्नातः प्रसन्नेन्द्रियमानसः। ददाति दानं यो मर्त्यो यौवने स तदश्नुते।। | 14-98-44a 14-98-44b |
स्वयं नीत्वा तु यद्दानं भक्त्या पात्रे प्रदीयते। तत्सार्वकालिकं विद्धि दानमामरणान्तिकम्।। | 14-98-45a 14-98-45b |
राजसं सात्विकं चापि तामसं च युधिष्ठिर। दानं दानफलं चैव गतिं च त्रिविधां शृणु।। | 14-98-46a 14-98-46b |
दानं दातव्यमित्येव मतिं कृत्वा द्विजाय वै। उपकारवियुक्ताय यद्दत्तं तद्धि सात्विकम्।। | 14-98-47a 14-98-47b |
श्रोत्रियाय दरिद्राय बहुभृत्याय पाण्डव। दीयते यत्प्रहृष्टेन तत्सात्विकमुदाहृतम्।। | 14-98-48a 14-98-48b |
वेदाक्षरविहीनाय यत्तु पूर्वोपकारिणे। समृद्धाय च यद्दत्तं तद्दानं राजसं स्मृतम्।। | 14-98-49a 14-98-49b |
संबन्धिने च यद्दत्तं प्रमत्ताय च पाण्डव। फलार्थिभिरपात्राय तद्दानं राजसं स्मृतम्।। | 14-98-50a 14-98-50b |
वैश्वदेवविहीनाय दानमश्रोत्रियाय च। दीयते तस्करायापि तद्दानं तामसं स्मृतम्।। | 14-98-51a 14-98-51b |
सरोषमवधूतं च क्लेशयुक्तमवज्ञया। सेवकाय च यद्दतं तत्तामसमुदाहृतम्।। | 14-98-52a 14-98-52b |
देवाः पितृगणाश्चैव मुनयश्चाग्नयस्तथा। सात्विकं दानमश्नन्ति तुष्यन्ति च नरेश्वर।। | 14-98-53a 14-98-53b |
दानवा दैत्यसङ्गाश्च ग्रहा यक्षाः सराक्षसाः। राजसं दानमश्नन्ति वर्जितं पितृदैवतैः।। | 14-98-54a 14-98-54b |
पिशाचाः प्रेतसङ्घाश्च कश्मला ये मलीमसाः। तामसं दानमश्नन्ति गतिं च त्रिविधां शृणु।। | 14-98-55a 14-98-55b |
सात्विकानां तु दानानामुत्तमं फलमश्नुते। मध्यमं राजसानां तु तामसानां तु पश्चिमम्।। | 14-98-56a 14-98-56b |
अभिगम्योपनीतानां दानानामुत्तमं फलम्। मध्यमं तु समाहूय जघन्यं याचते फलम्।। | 14-98-57a 14-98-57b |
अयाचितप्रदाता यः स याति गतिमुत्तमाम्। समाहूय तु यो दद्यान्मध्यमां स गतिं व्रजेत्। याचितो यश्च वै दद्याज्जघन्यां स गतिं व्रजेत्।। | 14-98-58a 14-98-58b 14-98-58c |
उत्तमा दैविकी ज्ञेया मध्यमा मानुषी गतिः। गतिर्जघन्या तिर्यक्षु गतिरेषा त्रिधा स्मृता।। | 14-98-59a 14-98-59b |
पात्रभूतेषु विप्रेषु संस्थितेष्वाहिताग्निषु। यत्तु निक्षिप्यते दानमक्षयं संप्रकीर्तितम्।। | 14-98-60a 14-98-60b |
श्रोत्रियाणां दरिद्राणां भरणं कुरु पार्थिव। समृद्धानां द्विजातीनां कुर्यास्तेषां तु रक्षणम्।। | 14-98-61a 14-98-61b |
दरिद्रान्वित्तहीनांश्च प्रदानैः सुष्ठु पूजय। आतुरस्यैषधैः कार्यं नीरुजस्य किमौषधैः।। | 14-98-62a 14-98-62b |
पापं प्रतिग्रहीतारं प्रदातुरपगच्छति। प्रतिग्रहीतुर्यत्पुण्यं प्रदातारमुपैति तत्। तस्माद्दानं सदा कार्यं परत्र हितमिच्छता।। | 14-98-63a 14-98-63b 14-98-63c |
वेदविद्यावदातेषु सदा शूद्रान्नवर्जिषु। प्रयत्नेन विधातव्यो महादानमयो निधिः।। | 14-98-64a 14-98-64b |
येषां दाराः प्रतीक्षन्ते सहस्रस्येव लम्भनम्। भुक्तशेषस्य भक्तस्य तान्निमन्त्रय पाण्डव।। | 14-98-65a 14-98-65b |
आमन्त्र्य तु निराशानि न कर्तव्यानि भारत। कुलानि सुदरिद्राणि तेषामाशा हता भवेत्।। | 14-98-66a 14-98-66b |
मद्भक्ता ये नरश्रेष्ठ मद्गता मत्परायणाः। मद्याजिनो मन्नियमास्तान्प्रयत्नेन पूजयेत्।। | 14-98-67a 14-98-67b |
तेषां तु पावनायाहं नित्यमेव युधिष्ठिर। उभे सन्ध्येऽधितिष्ठामि ह्यस्कन्नं तद्व्रतं मम।। | 14-98-68a 14-98-68b |
तस्मादष्टाक्षरं मन्त्रं मद्भक्तैर्वीतकल्मषैः। सन्ध्याकाले तु जप्तव्यं सततं चात्मशुद्धये।। | 14-98-69a 14-98-69b |
अन्येषामपि विप्राणां किल्बिषं हि विनश्यति। उभे सन्ध्येप्युपासीत तस्माद्विप्रो विशुद्धये। | 14-98-70a 14-98-70b |
दैवे श्राद्धेपि विप्रः स नियोक्तव्योऽजुगुप्सया। जुगुप्सितस्तु यः श्राद्धं दहत्यग्निरिवेन्धनम्।। | 14-98-71a 14-98-71b |
भारतं मानवो धर्मो वेदाः साङ्गाश्चिकित्सितम्। आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः।। | 14-98-72a 14-98-72b |
न ब्राह्मणान्परीक्षेत दैवे कर्मणि धर्मवित्। महान्भवेत्परीवादो ब्राह्मणानां परीक्षणे।। | 14-98-73a 14-98-73b |
ब्राह्मणानां परीवादं यः कुर्यात्स नराधमः। रासभानां शुनां योनिं गच्छेत्पुरुषदूषकः।। | 14-98-74a 14-98-74b |
श्वत्वं प्राप्नोति निन्दित्वा परीवादात्खरो भवेत्। कृमिर्भवत्यभिभवात्कीटो भवति मत्सरात्।। | 14-98-75a 14-98-75b |
दुर्वृत्ता वा सुवृत्ता वा प्राकृता वा सुसंस्कृताः। ब्राह्मणा नावमन्तव्या भस्मच्छन्ना इवाग्नयः।। | 14-98-76a 14-98-76b |
क्षत्रियं चैव सर्पं च ब्राह्मणं च बहुश्रुतम्। नावमन्येत मेधावी कृशानपि कदाचन।। | 14-98-77a 14-98-77b |
एतत्त्रयं हि पुरुषं निर्दहेदवमानितम्। तस्मादेतत्प्रयत्नेन नावमन्येत बुद्धिमान्।। | 14-98-78a 14-98-78b |
यथा सर्वास्ववस्थासु पावको दैवतं महत्। तथा सर्वास्ववस्थासु ब्राह्मणो दैवतं महत्।। | 14-98-79a 14-98-79b |
व्यङ्गाः काणाश्च कुब्जाश्च वामनाङ्गास्तथैव च। सर्वे दैवे नियोक्तव्या व्यामिश्रा वेदपारगैः।। | 14-98-80a 14-98-80b |
मन्युं नोत्पादयेत्तेषां न चारिष्टं समाचरेत्। मन्युप्रहरणा विप्रा न विप्राः शश्त्रपाणयः।। | 14-98-81a 14-98-81b |
मन्युना घ्नन्ति ते शत्रून्वज्रेणेन्द्र इवासुरान्। ब्राह्मणो हि महद्दैवं जातिमात्रेण जायते।। | 14-98-82a 14-98-82b |
ब्राह्मणः सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये। किं पुनर्ये च कौन्तेय सन्ध्यां नित्यमुपासते।। | 14-98-83a 14-98-83b |
यस्यास्येन समश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकसः। कव्यानि चैव पितरः किं भूतमधिकं ततः।। | 14-98-84a 14-98-84b |
उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूर्तिधर्मस्य शाश्वती। स हि धर्मार्थमुत्पन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते।। | 14-98-85a 14-98-85b |
स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च। आनृशंस्याद्ब्राह्मणस्य भुञ्जते हीतरे जनाः। तस्मात्ते नावमन्तव्या मद्भक्ता हि द्विजाः सदा।। | 14-98-86a 14-98-86b 14-98-86c |
आरण्यकोपनिषदि ये तु पश्यन्ति मां द्विजाः। निगूढं निष्कलावस्थं तान्प्रयत्नेन पूजय।। | 14-98-87a 14-98-87b |
स्वगृहे वा प्रवासे वा दिवारात्रमथापि वा। श्रद्धया ब्राह्मणाः पूज्या मद्भक्ता ये च पाण्डव।। | 14-98-88a 14-98-88b |
नास्ति विप्रसमं दैवं नास्ति विप्रसमो गुरुः। नास्ति विप्रात्परो बन्धुर्नास्ति विप्रात्परो निधिः। नास्ति विप्रात्परं तीर्थं न पुण्यं ब्राह्मणात्परम्। | 14-98-89a 14-98-89b 14-98-89c |
न पवित्रं परं विप्रान्न द्विजात्पावनं परम्। नास्ति विप्राप्तरो धर्मो नास्ति विप्रात्परा गतिः।। | 14-98-90a 14-98-90b |
पापकर्मसमाक्षिप्तं पतन्तं नरके नरम्। त्रायते पात्रमप्येकं पात्रभूते तु तद्द्विजे।। | 14-98-91a 14-98-91b |
बालाहिताग्नयो ये च शान्ताः शूद्रान्नवर्जिताः। मामर्चयन्ति तद्भक्तास्तेभ्यो दत्तमिहाक्षयम्।। | 14-98-92a 14-98-92b |
प्रदानैः पूजितो विप्रो वन्दितो वापि संस्कृतः। सम्भाषितो वा दृष्टो वा मद्भक्तो दिवमुन्नयेत्।। | 14-98-93a 14-98-93b |
ये पठन्ति नमस्यन्ति ध्यायन्ति पुरुषास्तु माम्। स तान्स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च नरः पापैः प्रमुच्यते।। | 14-98-94a 14-98-94b |
मद्भक्ता मद्गतप्राणा मद्गीता मत्परायणाः। बीजयोनिविशुद्धा यै श्रोत्रियाः संयतेन्द्रियाः। शूद्रान्नविरता नित्यं ते पुनन्तीह दर्शनात्।। | 14-98-95a 14-98-95b 14-98-95c |
स्वंय नीत्वा विशेषेण दानं तेषां गृहेष्वथ। निवापयेत्तु यद्भक्त्या तद्दानं कोटिसंमितम्।। | 14-98-96a 14-98-96b |
जाग्रतः स्वपतो वापि प्रवासेषु गृहेष्वथ। हृदये न प्रणश्यामि यस्य विप्रस्य भावतः।। | 14-98-97a 14-98-97b |
स पूजितो वा दृष्टो वा स्पृष्टो वापि द्विजोत्तमः। सम्भाषितो वा राजेन्द्र पुनात्येव नरं सदा।। | 14-98-98a 14-98-98b |
एवं सर्वास्ववस्थासु सर्वदानानि पाण्डव। मद्भक्तेभ्यः प्रदत्तानि स्वर्गमार्गप्रदानि वै।। | 14-98-99a 14-98-99b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि अष्टनवतितमोऽध्यायः।। 98 ।। |
आश्वमेधिकपर्व-097 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-099 |