महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-046
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ब्रह्मणा महर्षीन्प्रति ब्रह्मचारिवनस्थधर्मनिरूपणपूर्वकं तदनुष्ठानस्य श्रेयःसाधनत्वोक्तिः।। 1 ।।
ब्रह्मोवाच। | 14-46-1x |
एवमेतेन मार्गेण पूर्वोक्तेन यथाविधि। अधीतवान्यथाशक्ति तथैव ब्रह्मचर्यवान्।। | 14-46-1a 14-46-1b |
स्वधर्मनिरतो विद्वान्सर्वेन्द्रिययतो मुनिः। गुरोः प्रियहिते युक्तः सत्यधर्मपरः शुचिः।। | 14-46-2a 14-46-2b |
गुरुणा समनुज्ञातो भुञ्जीतान्नमकुत्सयन्। हविष्यभैक्ष्यभुक् चापि स्थानासनविहारवान्।। | 14-46-3a 14-46-3b |
द्विकालमग्निं जुह्वानः शुचिर्भूत्वा समाहितः। धारयीत सदा दण्डं बैल्वं पालाशमेव वा।। | 14-46-4a 14-46-4b |
क्षौमं कार्पासिकं वाऽपि मृगाजिनमथापि वा। सर्वं काषायरक्तं वा वासो वाऽपि द्विजस्य ह।। | 14-46-5a 14-46-5b |
मेखला च भवेन्मौञ्जी जटो नित्योदकस्तथा। यज्ञोपवीती स्वाध्यायी अलुप्तनियतव्रतः।। | 14-46-6a 14-46-6b |
पूताभिश्च तथैवाद्भिः सदा दैवततर्पणम्। भावेन नियतः कुर्वन्ब्रह्मचारी प्रशस्यते।। | 14-46-7a 14-46-7b |
एवं युक्तो जयेत्स्वर्गमूर्ध्वरेताः समाहितः। न संसरति जातीषु परमं स्थानमाश्रितः।। | 14-46-8a 14-46-8b |
संस्कृतः सर्वसंस्कारैस्तथैव ब्रह्मचर्यवान्। ग्रामान्निष्क्रम्य चारण्ये मुनिः प्रव्रजितो वसेत्।। | 14-46-9a 14-46-9b |
चर्मवल्कलसंवासी सायं प्रातरुपस्पृशेत्। अरण्यगोचरो नित्यं न ग्रामं प्रविशेत्पुनः।। | 14-46-10a 14-46-10b |
अर्चयन्नतिथीन्काले दद्याच्चापि प्रतिश्रयम्। फलपत्रावरैर्मूलैः श्यामाकेन च वर्तयन्।। | 14-46-11a 14-46-11b |
स नित्यमुदकं वायुं सर्वं वानेयमाश्रयेत्। प्राश्नीयादानुपूर्व्येण यथादीक्षमतन्द्रितः।। | 14-46-12a 14-46-12b |
समूलफलशाकाद्यैरर्चेदतिथिमागतम्। यद्भक्षः स्यात्ततो दद्याद्भिक्षां नित्यमतन्द्रितः।। | 14-46-13a 14-46-13b |
देवतातिथिपूर्वं च सदा प्राश्नीत वाग्यतः। अस्कन्दितमनाश्चैव लघ्वाशी देवताश्रयः।। | 14-46-14a 14-46-14b |
दान्तो मैत्रः क्षमायुक्तः कशाञ्शमश्रु च धारयन्। जुह्वन्स्वाध्यायशीलश्च सत्यधर्मपरायणः।। | 14-46-15a 14-46-15b |
न्यस्तदेहः सदा दक्षो वननित्यः समाहितः। एवं युक्तो जयेत्स्वर्गं वानप्रस्थो जितेन्द्रियः।। | 14-46-16a 14-46-16b |
गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथवा पुनः। य इच्छेन्मोक्षमास्थातुमुत्तमां वृत्तिमाश्रयेत्।। | 14-46-17a 14-46-17b |
अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत्। सर्वभूतहितो मैत्रः सर्वेन्द्रिययतो मुनिः।। | 14-46-18a 14-46-18b |
अयाचितमसंक्लृप्तमुपपन्नं यदृच्छया। कृत्वा प्राह्णे चरेद्भैक्ष्यं विधूमे भुक्तवज्जने।। | 14-46-19a 14-46-19b |
वृत्ते शरावसम्पाते भैक्ष्यं लिप्सेत मोक्षवित्। लाभेन च न हृष्येत नालाभे विमना भवेत्। न चातिभिक्षां भिक्षेत केवलं प्राणयात्रिकः।। | 14-46-20a 14-46-20b 14-46-20c |
यात्रार्थी कालमाकाङ्क्षंश्चरेद्भैक्ष्यं समाहितः। लाभं साधारणं नेच्छेन्न भुञ्जीताभिपूजितः।। | 14-46-21a 14-46-21c |
अभिपूजितलाभाद्वि विजुगुप्सेत भिक्षुकः। भुक्तान्यन्नानि तिक्तानि कषायकटुकानि च।। | 14-46-22a 14-46-22b |
नास्वादयीत भुञ्जानो रसांश्च मधुरांस्तथा। यात्रामात्रं च भुञ्जीत केवलं प्राणधारणम्।। | 14-46-23a 14-46-23b |
असंरोधेन भूतानां वृत्तिं लिप्सेत मोक्षवित्। न चान्यमन्नं लिप्सेत भिक्षमाणः कथञ्चन।। | 14-46-24a 14-46-24b |
न सन्निकाशयेद्धर्मं विविक्ते चारजाश्चरेत्। शून्यागारमण्यं वा वृक्षमूलं नदीं तथा।। | 14-46-25a 14-46-25b |
प्रतिश्रयार्थं सेवेत पार्वतीं वा पुनर्गुहाम्। ग्रामैकरात्रिको ग्रीष्मे वर्षास्वेकत्र वा वसेत्।। | 14-46-26a 14-46-26b |
अध्वा सूर्येणि निर्दिष्टः कीटवच्च चरेन्महीम्। दयार्तं चैव भूतानां समीक्ष्य पृथिवीं चरेत्।। | 14-46-27a 14-46-27b |
सञ्चयांश्च न कुर्वीत स्नेहवासं च वर्जयेत्। पूताभिरद्भिर्नित्यं वै कार्यं कुर्वीत मोक्षवित्।। | 14-46-28a 14-46-28b |
उपस्पृशेदुद्दृताभिरद्भिश्च पुरुषः सदा। अहिंसा ब्रह्मचर्यं च सत्यमार्जवमेव च।। | 14-46-29a 14-46-29b |
अक्रोधश्चानसूया च दमो नित्यमपैशुनम्। अष्टस्वेतेषु युक्तः स्याद्व्रतेषु नियतेन्द्रियः।। | 14-46-30a 14-46-30b |
अपापमशठं वृत्तमजिह्मं नित्यमाचरेत्। जोषयेत सदा भोज्यं ग्रासमागतमस्पृहः।। | 14-46-31a 14-46-31b |
यात्रामात्रं च भुञ्जीत केवलं प्राणयात्रिकम्। धर्मलब्धमथाश्नीयान्न काममनुवर्तयेत्।। | 14-46-32a 14-46-32b |
ग्रासादाच्छादनादन्यन्न गृह्णीयात्कथञ्चन। यावदाहारयेत्तावत्प्रतिगृह्णीत नाधिकम्।। | 14-46-33a 14-46-33b |
परेभ्यो न प्रतिग्राह्यं न च देयं कदाचन। दैन्यभावाच्च भूतानां संविभज्य सदा बुधः।। | 14-46-34a 14-46-34b |
नाददीत परस्वानि न गृह्णीयान्न याचयेत्। न किञ्चिद्विषयं भुक्त्वा स्पृहयेत्तस्य वै पुनः।। | 14-46-35a 14-46-35b |
मृदमापस्तथाऽन्नानि पत्रपुष्पफलानि च। असंवृतानि गृह्णीयात्प्रवृत्तानि च कार्यवान्।। | 14-46-36a 14-46-36b |
न शिल्पजीविकां जीवेद्द्विरन्नं नोत कामयेत्। न द्वेष्टा नोपदेष्टा च भवेच्च निरुपस्कृतः।। | 14-46-37a 14-46-37b |
श्रद्धापूतानि भुञ्जीत निमित्तानि च वर्जयेत्। मुधावृत्तिरसक्तश्च सर्वभूतैरसंधितः।। | 14-46-38a 14-46-38b |
आशीर्युक्तानि सर्वाणि हिंसायुक्तानि यानि च। लोकसङ्ग्रहधर्मं च नैव कुर्यान्न कारयेत्।। | 14-46-39a 14-46-39b |
सर्वभावानतिक्रम्य लघुमात्रः परिव्रजेत्। समः सर्वेषु भूतेषु स्थावरेषु चरेषु च।। | 14-46-40a 14-46-40b |
परं नोद्वेजयेत्कञ्चिन्न च कस्यचिदुद्विजेत्। विश्वास्यः सर्वभूतानामग्र्यो मोक्षविदुच्यते।। | 14-46-41a 14-46-41b |
अनागतं च न ध्यायेन्नातीतमनुचिन्तयेत्। वर्तमानमुपेक्षेत कालाकाङ्क्षी समाहितः।। | 14-46-42a 14-46-42b |
न चक्षुषा न मनसा न वाचा दूषयेत्क्वचित्। न प्रत्यक्षं परोक्षं वा किञ्चिद्दुष्टं समाचरेत्।। | 14-46-43a 14-46-43b |
इन्द्रियाण्युपसंहृत्य कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः। क्षीणेन्द्रियमनोबुद्धिर्निरीहः सर्वतत्त्ववित्।। | 14-46-44a 14-46-44b |
निर्द्वन्द्वो निर्नमस्कारो निःस्वाहाकार एव च। निर्ममो निरहङ्कारो निर्योगक्षेम आत्मवान्।। | 14-46-45a 14-46-45b |
निराशीर्निर्गुणः शान्तो निरासक्तो निराश्रयः। आत्मसङ्गी च तत्त्वज्ञो मुच्यते नात्र संशयः।। | 14-46-46a 14-46-46b |
अपादपाणिपृष्ठं तदशिरस्कमनूदरम्। अभिन्नगुणकर्माणं केवलं विमलं स्थिरम्।। | 14-46-47a 14-46-47b |
अगन्धमरसस्पर्शमरूपाशब्दमेव च। अनुगम्यमनासक्तममांसमपि चैव यत्।। | 14-46-48a 14-46-48b |
निशअचिन्तमव्ययं दिव्यं गृहस्थमपि सर्वदा। सर्वभूतस्थमात्मानं ये पश्यन्ति न ते मृताः।। | 14-46-49a 14-46-49b |
न तत्र क्रमते बुद्धिर्नेन्द्रियाणि न देवताः। वेदा यज्ञाश्च लोकाश्च न तपो न व्रतानि च।। | 14-46-50a 14-46-50b |
यत्र ज्ञानवतां प्राप्तिलिङ्गग्रहणा स्मृता। तस्मादलिङ्गधर्मज्ञो धर्मतत्त्वमुपाचरेत्।। | 14-46-51a 14-46-51b |
गूढधर्माश्रितो विद्वान्विज्ञानचरितं चरेत्। अमूढो मूढरूपेण चरेद्धर्ममदूषयन्।। | 14-46-52a 14-46-52b |
यथैनमवमन्येरन्परे सततमेव हि। तथावृत्तश्चरेच्छान्तः सतां धर्मानकुत्सयन्।। | 14-46-53a 14-46-53b |
य एवं वृत्तसम्पन्नः स मुनिः श्रेष्ठ उच्यते। इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च महाभूतानि पञ्च च।। | 14-46-54a 14-46-54b |
मनो बुद्धिरहङ्कारमव्यक्तं पुरुषं तथा। एतत्सर्वं प्रसङ्ख्याय यथावत्तत्त्वनिश्चयात्।। | 14-46-55a 14-46-55b |
ततः स्वर्गमवाप्नोति विमुक्तः सर्वबन्धनैः। एतावदन्तवेलायां परिसङ्ख्याय तत्त्ववित्।। | 14-46-56a 14-46-56b |
ध्यायेदेकान्तमास्थाय मुच्यतेऽथ निराश्रयः। निर्मुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो वायुराकाशगो यथा।। | 14-46-57a 14-46-57b |
क्षीणकोशो निरातङ्कस्तथेदं प्राप्नुयात्परम्।। | 14-46-58a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि षट्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 46 ।। |
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