महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-102
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कृष्णेन युधिष्टिरंप्रति भूगोतिलकन्यादानफलप्रतिपादनम्।। 1 ।।
भगवानुवाच। | 14-102-1x |
अतः परं प्रवक्ष्यामि भूमिदानमनुत्तमम्।। | 14-102-1a |
यः प्रयच्छति विप्राय भूमिं रम्यां सदक्षिणाम्। श्रोत्रियाय दरिद्राय साग्निहोत्राय पाण्डव।। | 14-102-2a 14-102-2b |
स सर्वकामतृप्तात्मा सर्वरत्नविभूषितः। सर्वपापविनिर्मुक्तो दीप्यमानोऽर्कवत्सदा।। | 14-102-3a 14-102-3b |
बालसूर्यप्रकाशेन विचित्रध्वजशोभिना। याति यानेन दिव्येन मम लोकं महायशाः।। | 14-102-4a 14-102-4b |
तत्र दिव्याङ्गनाभिस्तु सेव्यमानो यथासुखम्। कामगः कामरूपी च क्रीडत्यप्सरसांगणैः।। | 14-102-5a 14-102-5b |
यावद्बिभर्ति लोकान्वै भूमिः कुरुकुलोद्वह। तावद्भूमिप्रदः काले मम लोके महीयते।। | 14-102-6a 14-102-6b |
न हि भूमिप्रदानाद्वै दानमन्यद्विशिष्यते। न चापि भूमिहरणात्पापमान्यद्विशिष्यते।। | 14-102-7a 14-102-7b |
दानान्यन्यानि हीयन्ते कालेन कुरुपुङ्गव। भूमिदानस्य पुण्यस्य क्षयो नैवोपपद्यते।। | 14-102-8a 14-102-8b |
ब्राह्मणाय दरिद्राय भूमिं दत्तां तु यो नरः। न हिंसति नरव्याघ्र तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-102-9a 14-102-9b |
सप्तद्वीपसमुद्रान्ता रत्नसंचयसंकुला। सशैलवनदुर्गाढ्या तेन दत्ता मही भवेत्।। | 14-102-10a 14-102-10b |
भूमिं दृष्ट्वा दीयमानां श्रोत्रियायाग्निहोत्रिणे। सर्वभूतानि मन्यन्ते मां ददातीति हर्षवत्।। | 14-102-11a 14-102-11b |
सुवर्णमणिरत्नानि धनानि च वसूनि च। सर्वदानानि वै राजन्ददाति वसुधां ददत्।। | 14-102-12a 14-102-12b |
सागरान्सरितः शैलान्समानि विषमाणि च। सर्वगन्धरसांश्चैव ददाति वसुधां ददत्।। | 14-102-13a 14-102-13b |
ओषधीः फलसंपन्ना नानापुष्पसमन्विताः। कमलोत्पलषण्डांश्च ददाति वसुधां ददत्।। | 14-102-14a 14-102-14b |
धर्मं कामं तथा चार्थं वेदान्यज्ञांस्तथैव च। स्वर्गमार्गगतिं चैव ददाति वसुधां ददत्।। | 14-102-15a 14-102-15b |
अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञैर्ये यजन्ते सदक्षिणैः। न तत्फलं लभन्ते ते भूमिदानस्य यत्फलम्।। | 14-102-16a 14-102-16b |
श्रोत्रिया महीं दत्त्वा यो न हिंसति पाण्डव। तद्दानं कथयिष्यन्ति यावल्लोकाः प्रतिष्ठिताः। तावत्स्वर्गोपभोगानां भोक्तारः पाण्डुनन्दन।। | 14-102-17a 14-102-17b 14-102-17c |
सस्यपूर्णां महीं यस्तु श्रोत्रियाय प्रयच्छति। पितरस्तस्य तृप्ययन्ति यावदाभूतसंप्लुवम्।। | 14-102-18a 14-102-18b |
मम रुद्रस्य सवितुस्त्रिदशानां तथैव च। प्रीतये विद्धि राजेन्द्र भूमिर्दत्ता द्विजाय वै।। | 14-102-19a 14-102-19b |
तेन पुण्येन पूतात्मा दाता भूमेर्युधिष्ठिर। मम सालोक्यमाप्नोति नात्र कार्या विचाराणा।। | 14-102-20a 14-102-20b |
यत्किंचित्कुरुते पापं पुरुषे वृत्तिकर्शितः। स च गोकर्णमात्रेण भूमिदानेन शुध्यति।। | 14-102-21a 14-102-21b |
मासोपवासे यत्पुण्यं कृच्छ्रे चान्द्रायणेऽपि च। भूमिगोकर्णमात्रेण तत्पुण्यं तु विधीयते।। | 14-102-22a 14-102-22b |
सर्वतीर्थाभिषेके च यत्पुण्यं समुदाहृतम्। भूमिगोकर्णमात्रेण तत्पुण्यं तु विधीयते।। | 14-102-23a 14-102-23b |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-102-24x |
देवदेव नमस्तेऽस्तदु वासुदेव सुरेश्वर। गोकर्णस्य प्रमाणं वै वक्तुमर्हसि तत्वतः।। | 14-102-24a 14-102-24b |
भगवानुवाच। | 14-102-25x |
शृणु गोकर्णमात्रस्य प्रमाणं पाण्डुनन्दन। त्रिंशद्दण्डप्रमाणेन प्रमितं सर्वतो दिशम्।। | 14-102-25a 14-102-25b |
प्रत्यक्प्रागपि राजेन्द्र तत्तथा दक्षिणोत्तरम्। गोकर्णं तद्विदः प्राहुः प्रमाणं धरणेर्नृप।। | 14-102-26a 14-102-26b |
सवृषं गोशतं यत्र सुखं तिष्ठत्ययन्त्रितम्। सवत्सं कुरुशार्दूल तच्च गोकर्णमुच्यते।। | 14-102-27a 14-102-27b |
किंकरा मृत्युदण्डाश्च कुंभीपाकाश्च दारुणाः। घोराश्च वारुणाः पाशा नोपसर्पन्ति भूमिदम्।। | 14-102-28a 14-102-28b |
निरया रौरवाद्याश्च तथा वैतरणी नदी। तीव्राश्च यातनाः कृष्टा नोपसर्पन्ति भूमिदम्।। | 14-102-29a 14-102-29b |
चित्रगुप्ताः कलिः कालः कृतान्तो मृत्युरेव च। यमश्च भगवान्साक्षात्पूजयन्ति महीप्रदम्।। | 14-102-30a 14-102-30b |
रुद्रः प्रजापतिः शक्रः सुरा ऋषिगणास्तथा। अहं च प्रीतिमान्राजन्पूजयामो महीप्रदम्।। | 14-102-31a 14-102-31b |
कृशभृत्यस्य कृशगोः कृशाश्वस्य कृतातिथेः। भूमिर्देया नरश्रेष्ठ स निधइः पारलौकिकः।। | 14-102-32a 14-102-32b |
सीदमानकुटुंबाय श्रोत्रियायाग्निहोत्रिणे। व्रस्थाय दरिद्राय भूमिर्देया नराधिप।। | 14-102-33a 14-102-33b |
यथा हि धात्री क्षीरेण पुत्रं वर्धयति स्वयम्। दातारमनुगृह्णाति दत्ता ह्येवं वसुंधरा।। | 14-102-34a 14-102-34b |
यथा बिभर्ति गौर्वत्सं सृजन्ती क्षीरमात्मनः। तथा सर्वगुणोपेता भूमिर्वहति भूमिदम्।। | 14-102-35a 14-102-35b |
यथा बीजनि रोहन्ति जलसिक्तानि भूपते। तथा कामाः प्ररोहन्ति भूमिदस्य दिनेदिने।। | 14-102-36a 14-102-36b |
यथा तेजस्तु सूर्यस्य तमः सर्वं व्यपोहति। तथा पापं नरस्येह भूमिदानं व्यपोहति।। | 14-102-37a 14-102-37b |
दाता दशानुगृह्णाति यो हरेद्दश हन्ति च। अतीतान्यागतानीह कुलानि कुरुपुङ्गव।। | 14-102-38a 14-102-38b |
आश्रुत्य भूमिदानं तु दत्त्वा यो वा हरेन्पुनः। स बद्धो वारुणैः पाशैः क्षिप्यते पूयशोणिते।। | 14-102-39a 14-102-39b |
स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत् वसुंधराम्। न तस्य नरकाद्धोराद्विद्यते निष्कृतिः क्वचित्।। | 14-102-40a 14-102-40b |
ब्राह्म्णस्य हृते क्षेत्रे हन्याद्द्वादश पूर्वजान्। स गच्छेत्कृमियोनिं च न च मुच्येत जातु सः।। | 14-102-41a 14-102-41b |
दत्त्वा भूमिं द्विजेन्द्राय यस्तामेवोपजीवति। गवां शतसहस्रस्य हन्तुः स लभते फलम्।। | 14-102-42a 14-102-42b |
सोधश्शिरास्तु पापात्मा कुंभीपाकेषु पच्यते। दिव्यैर्वर्षसहस्रैस्तु कुंभीपाकाद्विजनिस्सृतः। इह लोके भवेत्स श्वा रातजन्मनि पाण्डव।। | 14-102-43a 14-102-43b 14-102-43c |
दत्त्वा भूमि द्विजेन्द्राणां यस्तामेवोपजीवति। स मूढो याति दुष्टात्मा नरकानेकविंशतिम्। नरकेभ्यो विनिर्मुक्तः शुनां योनिं स गच्छति।। | 14-102-44a 14-102-44b 14-102-44c |
हलकृष्टा मही देया सबीजा सस्यमालिनी। अथवा सोदका देया दरिद्राय द्विजातये।। | 14-102-45a 14-102-45b |
एवं दत्ता मही राजन्प्रहृष्टेनान्तरात्मना। सर्वान्कामानवाप्नोति मनसा चिन्तितानि च।। | 14-102-46a 14-102-46b |
बहुभिर्वसुधा दत्ता दीयते च नराधिपैः। यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम्।। | 14-102-47a 14-102-47b |
यः प्रयच्छति कन्यां वै सुरूपां श्रोत्रियाय वै। स ब्रह्मदेयो राजेन्द्र तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-102-48a 14-102-48b |
बलीवर्दसहस्राणां दत्तानां धुर्यवाहिनाम्। यत्पुण्यं लभते राजन्कन्यादानेन तत्फलम्।। | 14-102-49a 14-102-49b |
गवां शतसहस्रस्य सम्यग्धत्तस्थ यत्फलम्। तत्फलं समवाप्नोतिः यः प्रयच्छति कन्यकाम्।। | 14-102-50a 14-102-50b |
यावन्ति चैव रोमाणि कन्यायाः कुरुपुङ्गव। तावद्वर्षसहस्राणि मम लोके महीयते।। | 14-102-51a 14-102-51b |
ततश्चापि च्युतः कालादिह लोके स जायते। षडङ्गविच्चतुर्वेदी सर्वलोकार्चितो द्विजः।। | 14-102-52a 14-102-52b |
यः सुवर्णं दरिद्राय ब्राह्मणाय प्रयच्छति। श्रोत्रियाय सुवृत्ताय बहुपुत्राय पाण्डव।। | 14-102-53a 14-102-53b |
स मुक्तः सर्वपापेभ्यो बालसूर्यसमप्रभः। विमानं दिव्यामारूढः कामगः कामभोगवान्।। वर्षकोटिं महातेजा मम लोके महीयते।। | 14-102-54a 14-102-54b 14-102-54c |
ततः कालावतीर्णश्च सोस्मिँल्लोके हि जायते। वेदवेदाङ्गविद्विप्रः कोटीधनपतिर्भवेत्।। | 14-102-55a 14-102-55b |
यश्च रूप्यं प्रयच्छेद्वै दरिद्राय द्विजातये। कृशवृत्तेः कृशगवे स मुक्तः सर्वकिल्बिषैः।। | 14-102-56a 14-102-56b |
पूर्णचन्द्रप्रकाशेन विमानेन विराजता। कामरूपि यथाकामं स्वर्गलोके महीयते।। | 14-102-57a 14-102-57b |
ततोऽवतीर्णः कालेन लोके चास्मिन्महायशाः। सर्वलोकार्चितः श्रीमान्राजा भवति वीर्यवान्।। | 14-102-58a 14-102-58b |
तिलपर्वतकं यस्तु श्रोत्रियाय प्रयच्छति। विशेषेण दरिद्राय तस्यापि शृणु यत्फलम्।। | 14-102-59a 14-102-59b |
पुण्यं वृषायुतोत्सर्गे यत्प्रोक्तं पाण्डुनन्दन। तत्पुण्यं समनुप्राप्य तत्क्षणाद्विरजा भवेत्।। | 14-102-60a 14-102-60b |
यथा त्वचं भुजङ्गो वै त्यक्त्वा शुद्धतनुर्भवेत्। तता तिलप्रदानाद्वै पापं त्यक्त्वा विसुद्ध्यति।। | 14-102-61a 14-102-61b |
तिलषण्डं प्रयुञ्जानो जांबूनदविभूषितम्। विमानं दिव्यमारूढः पितृलोके महीयते।। | 14-102-62a 14-102-62b |
षष्टिं वर्षसहस्राणि कामरूपी महायशाः। तिलप्रदाता रमते पितृलोके यथासुखम्।। | 14-102-63a 14-102-63b |
यः प्रयच्छति विप्राय तिलधेनुं नराधिप। श्रोत्रियाय दरिद्राय शृणु तस्यापि यत्फलम्।। | 14-102-64a 14-102-64b |
गोसहस्रप्रदानेन यत्पुण्यं समुदाहृतम्। तत्पुण्यफलामाप्नोति तिलधेनुप्रदो नरः।। | 14-102-65a 14-102-65b |
तिलानां कुडवैर्यस्तु तिलधेनुं प्रयच्छति। तावत्कोटिसमा राजन्स्वर्गलोके महीयते।। | 14-102-66a 14-102-66b |
अष्टाढकतिलैः कृत्वा तिलधेनु नराधिप। द्वात्रिंशन्निष्कसंयुक्तं विषुवे यः प्रयच्छति। मद्भक्त्या मद्गतात्मा वै तस्य पुण्यफलं शृणु।। | 14-102-67a 14-102-67b 14-102-67c |
कन्यादानसहस्रस्य विधिदत्तस्य यत्फलम्। तत्पुण्यं समनुप्राप्तो मम लोके महीयते।। | 14-102-68a 14-102-68b |
मम लोकावतीर्णश्च सोस्मिँल्लोकेऽभिजायते। ऋग्यजुस्सामवेदानां पारगो ब्राह्मणर्षभः।। | 14-102-69a 14-102-69b |
गां तु यस्तु दरिद्राय श्रोत्रियाय प्रयच्छति। प्रसन्नां क्षीरिणीं पुण्यां सवत्सां कांस्यदोहिनीं।। | 14-102-70a 14-102-70b |
यत्किंचिद्दुष्कृतं कर्म तस्य पूर्वकृतं नृपः। तत्सर्वं तत्क्षणादेव विनश्यति न संशयः।। | 14-102-71a 14-102-71b |
यानं च वृषसंयुक्तं दीप्यमानं स्वलङ्कृतम्। आरूढः कामगं दिव्यं गोलोकमधिगच्छति।। | 14-102-72a 14-102-72b |
यावन्ति चैव रोमाणि तस्या गोस्तु नराधिप। तावद्वर्षसहस्राणि गवां लोके महीयते।। | 14-102-73a 14-102-73b |
गोलोकादवतीर्णस्तु लोकेऽस्मिन्ब्राह्मणो भवेत्। सत्रयाजी वदन्यश्च सर्वराजभिरर्चितः।। | 14-102-74a 14-102-74b |
तिलं गावः सुवर्णं चाप्यन्नं कन्या वसुंधरा। तारयन्तीह दत्तानि ब्राह्मणेभ्यो महाभुज।। | 14-102-75a 14-102-75b |
ब्राह्मणं वृत्तसंपन्नमाहिताग्निमलोलुपम्। तर्पयेद्विधिवद्राजन्स निधिः पारलौकिकः।। | 14-102-76a 14-102-76b |
आहिताग्नि दरिद्रं च श्रोत्रियं च जितेन्द्रियम्। शूद्रान्नवर्जितं चैव द्विजं यत्नेन पूजयेत्।। | 14-102-77a 14-102-77b |
आहिताग्निः सदा पात्रमह्निहोत्री च वेदवित्। पात्राणामपि तत्पात्रं शूद्रान्नं यस्य नोदरे।। | 14-102-78a 14-102-78b |
यच्च वेदमयं पात्रं यच्च पात्रं तपोमयम्। असंकीर्णं च यत्पात्रं तत्पात्रं तारयिष्यति।। | 14-102-79a 14-102-79b |
नित्यस्वाध्यायनिरतास्त्वसंकीर्णेन्द्रियाश्च ये। पञ्चयज्ञपरा नित्यं पूजितास्तारयन्ति ते।। | 14-102-80a 14-102-80b |
ये क्षान्तिदान्ताः श्रुतिपूर्णकर्णा जितेन्द्रियाः प्राणिवधै निवृत्ताः। प्रतिग्रहे संकुचिता गृहस्था- स्ते ब्राह्मणास्तारयितुं समर्थाः।। | 14-102-81a 14-102-81b 14-102-81c 14-102-81d |
नित्योदकी नित्ययज्ञोपवीती नित्यस्वाध्यायी वृषलान्नवर्जी। क्रतौ गच्छन्विधिवच्चापि जुह्व- त्स ब्राह्मणस्तारयितुं समर्थः।। | 14-102-82a 14-102-82b 14-102-82c 14-102-82d |
ब्राह्मणो यस्तु मद्भक्तो मद्रागी मत्परायणः। मयि संन्यस्तकर्मा च स विप्रस्तारयेद्ध्रुवम्।। | 14-102-83a 14-102-83b |
द्वादशाक्षरतत्वज्ञश्चतुर्व्यूहविभागवित्। अच्छिद्रपञ्चकालज्ञःक स विप्रस्तारयिष्यति।। | 14-102-84a 14-102-84b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि द्व्यधिकशततमोऽध्यायः।। 102 ।। |
आश्वमेधिकपर्व-101 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आश्वमेधिकपर्व-103 |