महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-030
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ब्राह्मणेन स्वभार्यांप्रति हिंसाया अकर्तव्यत्वे महर्षिवचसां प्रमाणीकरणोपयोगितया परशुरामचरित्रकथनारम्भः।। 1 ।। रामेण कार्तवीर्ये निहते तदनुयायिभिर्जमदग्नेर्हनम्।। 2 ।। ततः क्रुद्धेन रामेण त्रिःसप्तकृत्वः सर्वक्षत्रियहनने तत्पितृभी रामस्य परिसान्त्वप्रयतनम्।। 3।।
ब्राह्मण उवाच। | 14-30-1x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। कार्तवीर्यस्य संवादं समुद्रस्य च भामिनि।। | 14-30-1a 14-30-1b |
कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहस्रवान्। येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही।। | 14-30-2a 14-30-2b |
स कदाचित्समुद्रान्ते विचरन्बलदर्पितः। अवीकिरच्छरशतैः समुद्रमिति नः श्रुतम्।। | 14-30-3a 14-30-3b |
तं समुद्रो नमस्कृत्य कृताञ्जलिरुवाचह। मा मुञ्च वीर नाराचान्ब्रूहि किं करवाणि ते।। | 14-30-4a 14-30-4b |
मदाश्रयाणि भूतानि त्वद्विसृष्टैर्महेषुभिः। वध्यन्ते राजशार्दूल तेभ्यो देह्यभयं विभो।। | 14-30-5a 14-30-5b |
अर्जुन उवाच। | 14-30-6x |
मत्समो यदि संग्रामे शरासनधरः क्वचित्। विद्यते तं समाचक्ष्व यः समो मे महामृधे।। | 14-30-6a 14-30-6b |
समुद्र उवाच। | 14-30-7x |
महर्षिर्जमदग्निस्ते यदि राजन्पुरा श्रुतः। तस्य पुत्रस्तवातिथ्यं यथावत्कर्तुमर्हति।। | 14-30-7a 14-30-7b |
ततः स राजा प्रययौ क्रोधेन महता वृतः। स तमाश्रममागम्य राममेवान्वपद्यत।। | 14-30-8a 14-30-8b |
स रामप्रतिकूलानि चकार सह बन्धुभिः। आयासं जनयामास रामस्य च महात्मनः।। | 14-30-9a 14-30-9b |
ततस्तेजः प्रजज्वाल रामस्यामिततेजसः। प्रदहन्रिपुसैन्यानि तदा कमललोचने।। | 14-30-10a 14-30-10b |
ततः परशुमादाय स तं बाहुसहस्रिणम्। चिन्छेद सहसा रामो बहुशाखमिव द्रुमम्।। | 14-30-11a 14-30-11b |
तं हतं पतितं दृष्ट्वा समेताः सर्वबान्धवाः। असीनादाय शक्तीर्श्च भार्गवं पर्यधावयन्।। | 14-30-12a 14-30-12b |
रामोऽपि धनुरादाय रथमारुह्य सत्वरः। विसृजञ्शरवर्षाणि व्यधमत्पार्थिवं बलम्।। | 14-30-13a 14-30-13b |
ततस्तु क्षत्रियाः केचिज्जमदग्निं निहत्य च। विविशुर्गिरिदुर्गाणि मृगाः सिंहार्दिता इव।। | 14-30-14a 14-30-14b |
तेषां स्वविहितं कर्म तद्भयान्नानुतिष्ठताम्। प्रजा वृषलतां प्राप्ता ब्राह्मणानामदर्शनात्।। | 14-30-15a 14-30-15b |
एवं ते द्रविडाऽभीराः पुण्ड्राश्च शबरैः सह। वृषलत्वं परिगता व्युत्थानात्क्षत्रधर्मतः।। | 14-30-16a 14-30-16b |
ततश्च हतवीरासु क्षत्रियासु पुनः पुनः। द्विजैरुत्पादितं क्षत्रं जामदग्न्यो न्यकृन्तत।। | 14-30-17a 14-30-17b |
एकविंशतिमे याते रामं वागशरीरिणी। दिव्या प्रोवाच मधुरा सर्वलोकपरिश्रुता।। | 14-30-18a 14-30-18b |
रामराम निवर्तस्व कं गुणं तात पश्यसि। क्षत्रबन्धूनिमान्प्राणैर्विप्रयोज्य पुनः पुनः।। | 14-30-19a 14-30-19b |
तथैव तं महात्मानमृचीकप्रमुखास्तदा। पितामहा महाभाग निवर्तस्वेत्यथाब्रुवन्।। | 14-30-20a 14-30-20b |
पितुर्वधममृष्यंस्तु रामः प्रोवाच तानृषीन्। नार्हन्तीह भवन्तो मां निवारयितुमित्युत।। | 14-30-21a 14-30-21b |
पितर ऊचुः। | 14-30-22x |
नार्हसे क्षत्रबन्धूंस्त्वं निहन्तुं जयतांवर। नेह युक्तं त्वया हन्तुं ब्राह्मणेन सता नृपान्।। | 14-30-22a 14-30-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अनुगीतापर्वणि त्रिंशोऽध्यायः।। 30 ।। |
14-30-15 तेषामुपरतं कर्मेति ट.पाठः।। 14-30-16 व्युत्थानात्क्षत्रधर्मिण इति झ.पाठः।।
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