महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-114
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति केशवादिभगवन्मूर्त्युपास्तिपूर्वकं मार्गशीर्षादिद्वादशद्वादशीव्रताचरणफलकथनम्।। 1 ।। युधिष्ठिरेण विस्तरेण कृष्णस्तवनम्।। 2 ।। पुनः कृष्णेन युधिष्ठिराय एकादश्युपवासपूर्वकं द्वादश्यां भगवत्पूजायाः फलकथनम्।। 3 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 14-114-1x |
एवं संवत्सरं पूर्णमेकभुक्तेन यः क्षिपेत्। तस्य पुण्यफलं यद्वै तन्ममाचक्ष्व केशव।। | 14-114-1a 14-114-1b |
भगवानुवाच। | 14-114-2x |
शृणु पाण्डव तत्त्वं मे वचनं पुण्यमुत्तमम्। यदकृत्वाऽथवा कृत्वा नरः पापैः प्रमुच्यते।। | 14-114-2a 14-114-2b |
एकभुक्तेन वर्तेत नरः संवत्सरं तु यः। ब्रह्मचारी जितक्रोधो ह्यधश्शायी जितेन्द्रियः।। | 14-114-3a 14-114-3b |
शुचिश्चि स्नानतो व्यग्रः सत्यवागनसूयकः। अर्चन्नेव तु मां नित्यं मद्गतेनान्तरात्मना। सन्ध्ययोस्तु जपेन्नित्यं मद्गायत्रीं समाहितः।। | 14-114-4a 14-114-4b 14-114-4c |
नमो ब्रह्मण्यदेवायेत्यसकृन्मां प्रणम्य च। विप्रमग्रासने कृत्वा यावकं भैत्रमेव वा।। | 14-114-5a 14-114-5b |
भुक्त्वा तु वाग्यतो भूमावाचान्तस्य द्विजन्मनः। नमोऽस्तु वासुदेवायेत्युक्त्वा तु चरणौ स्पृशेत्।। | 14-114-6a 14-114-6b |
मासेमासे समाप्ते तु भोजयित्वा द्विजाञ्शुचीन्। संवत्सरे ततः पूर्णे दद्यात्तु व्रतदक्षिणाम्।। | 14-114-7a 14-114-7b |
नवनीतमयीं गां वा तिलधेनुमथापि वा। विप्रहस्तच्युतैस्तोयैः सहिरण्यैः समुक्षितः। तस्य पुण्यफलं राजन्कथ्यमानं मया शृणु।। | 14-114-8a 14-114-8b 14-114-8c |
दशजन्मकृतं पापं ज्ञानतोऽज्ञानतोपि वा। तद्विनश्यति तस्याशु नात्र कार्या विचारणा।। | 14-114-9a 14-114-9b |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-114-10x |
सर्वेषामुपवासानां यच्छ्रेयः सुमहत्फलम्। यच्च निःश्रेयसं लोके तद्भवान्वक्तुमर्हति।। | 14-114-10a 14-114-10b |
भगवानुवाच। | 14-114-11x |
शृणु राजन्यथापूर्वं मयाऽभीष्टं तु मोदते। तथा ते कथयिष्यामि मद्भक्ताय युधिषठिर।। | 14-114-11a 14-114-11b |
यस्तु भक्त्या शुचिर्भूत्वा पञ्चम्यां मे नराधिप। उपवासव्रतं कुर्यात्त्रिकालं चार्चयंस्तु माम्। सर्वक्रतुफलं लब्ध्वा मम लोके महीयते।। | 14-114-12a 14-114-12b 14-114-11c |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-114-13x |
भगवन्देवदेवेश पञ्चमी नाम का तव। तामहं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व ममानघ।। | 14-114-13a 14-114-13b |
भगवानुवाच। | 14-114-14x |
पर्वद्वयं च द्वादश्यां श्रवणं च नराधिप। मत्पञ्चमीति विख्यातां मत्प्रिया च विशेषतः।। | 14-114-14a 14-114-14b |
तस्मात्तु ब्राह्मणश्रेष्ठैर्मन्निवेशितबुद्धिभिः। उपवासस्तु कर्तव्यो मत्प्रियार्तं विशेषतः।। | 14-114-15a 14-114-15b |
द्वादश्यामेव वा कुर्यादुपवासमशक्नुवन्। तेनाहं परमां प्रीति यास्यामि नरपुङ्गव।। | 14-114-16a 14-114-16b |
अहोरात्रेण द्वादश्यां मार्गशीर्षेण केशवम्। उपोष्य पूजयेद्यो मां सोऽस्वमेधफलं लभेत्।। | 14-114-17a 14-114-17b |
द्वादश्यां पुष्यमासे तु नाम्ना नारायणं तु माम्। उपोष्य पूजयेद्यो मां वाजिमेधफलं लभेत्।। | 14-114-18a 14-114-18b |
द्वादश्यां माघमासे तु मामुपोष्य तु माधवम्। पूजयेद्यः समाप्नोति राजसूयफलं नृप।। | 14-114-19a 14-114-19b |
द्वादश्यां फाल्गुने मासि गोविन्दाख्यमुपोष्य माम्।। पूजयेद्यः समाप्नोति ह्यतिरात्रफलं नृप।। | 14-114-20a 14-114-20c |
द्वादश्यां मासि चैत्रे तु मां विष्णुं समुपोष्य यः। पूजयंस्तदवाप्नोति पौण्डरीकस्य यत्फलम्।। | 14-114-21a 14-114-21b |
द्वादश्यां मासि वैशाखे मधुसूदनसंज्ञितम्। उपोष्य पूजयेद्यो मां सोग्निष्टोमस्य पाण्डव।। | 14-114-22a 14-114-22b |
द्वादश्यां ज्येष्ठमासे तु मामुपोष्य त्रिविक्रमम्। अर्ययेद्यः समाप्नोति गवां मेधफलं नृप।। | 14-114-23a 14-114-23b |
आषाढे वामनाख्यं मां द्वादश्यां समुपोष्य यः। नरमेधस्य स फलं प्राप्नोति भरतर्षभ।। | 14-114-24a 14-114-24b |
द्वादश्यां श्रावणे मासि श्रीधराख्यमुपोष्य माम्। पूजयेद्य समाप्नोति पञ्चयज्ञफलं नृप।। | 14-114-25a 14-114-25b |
मासे भाद्रपदे यो मां हृषीकेशाख्यमर्चयेत्। उपोष्य स समाप्नोति सौत्रामणिफलं नृप।। | 14-114-26a 14-114-26b |
द्वादश्यामाश्वयुङ्मासे पद्मनाभमुपोष्य माम्। अर्चयेद्यः समाप्नोति गोसहस्रफलं नृप।। | 14-114-27a 14-114-27b |
द्वादश्यां कार्तिके मासि मां दामोदरसंज्ञितम्। उपोष्य पूजयेद्यस्तु सर्वक्रतुफलं नृप।। | 14-114-28a 14-114-28b |
केवलेनोपवासेन द्वादश्यां पाण्डुनन्दन। यत्फलं पूर्वमुद्दिष्टं तस्यार्धं लभते नृप।। | 14-114-29a 14-114-29b |
श्रावणेऽप्येवमेवं मामर्चयेद्भक्तिमान्नरः। मम सालोक्यमाप्नोति नात्र कार्या विचारणा।। | 14-114-30a 14-114-30b |
मासेमासे समभ्यर्च्य क्रमशो मामतन्द्रितः। पूर्मे संवत्सरे कुर्यात्पुनः संवत्सरं तु माम्।। | 14-114-31a 14-114-31b |
अविघ्नमर्चयानस्तु यो मद्भक्तो मत्परायणः। अविघ्नमर्चयानस्तु मम सायुज्यमाप्नुयात्।। | 14-114-32a 14-114-32b |
अर्चयेत्प्रीतिमान्यो मां द्वादस्यां वेदसंहिताम्। स पूर्वोक्तफलं राजँल्लभते नात्र संशयः।। | 14-114-33a 14-114-33b |
गन्धं पुष्पं फलं तोयं पत्रं वा मूलमेव वा। द्वादश्यां मम यो दद्यात्तत्समो नास्ति मत्प्रियः।। | 14-114-34a 14-114-34b |
एतेन विधिना सर्वे देवाः शक्रपुरोगमाः। मद्भक्ता नरशार्दूल स्वर्गलोकं तु भुञ्जते।। | 14-114-35a 14-114-35b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-114-36x |
एवं वदति देवेशे केशवे पाडुनन्दनः। कृताञ्जलिः स्तोत्रमिदं भक्त्तया धर्मात्मजोऽब्रवीत्।। | 14-114-36a 14-114-36b |
सर्वलोकेश देवेश हृषीकेशक नमोस्तु ते। सहस्रशिरसे नित्यं सहस्राक्ष नमोस्तु ते।। | 14-114-37a 14-114-37b |
त्रयीमय त्रयीनाथ त्रयीस्तुत नमोनमः। यज्ञात्मन्यज्ञसंभूत यज्ञनाथ नमोनमः।। | 14-114-38a 14-114-38b |
चतुर्मूर्ते चतुर्बाहो चतुर्व्यूह नमोनमः। लोकात्मँल्लोककृन्नाथ लोकावास नमोनमः।। | 14-114-39a 14-114-39b |
सृष्टिसंहारकर्त्रे तु नरसिंह नमोनमः। भक्तप्रिय नमस्तेऽस्तु कृष्ण नाथ नमोनमः।। | 14-114-40a 14-114-40b |
लोकप्रिय नमस्तेऽस्तु भक्तवत्सल ते नमः। ब्रह्मवास नमस्तेऽस्तु ब्रह्मनाथ नमोनमः।। | 14-114-41a 14-114-41b |
रुद्ररूप नमस्तेऽस्तु रुद्रकर्मिरताय ते। पञ्चयज्ञ नमस्तेऽस्तु सर्वयज्ञ नमोनमः।। | 14-114-42a 14-114-42b |
कृष्णप्रिय नमस्तेऽस्तु कृष्णनाथ नमोनमः। योगिप्रिय नमस्तेऽस्तु योगिनाथ नमोनमः।। | 14-114-43a 14-114-43b |
हयवक्त्र नमस्तेऽस्तु चक्रपाणे नमोनमः। पञ्चभूत नमस्तेऽस्तु पञ्चायुध नमोनमः।। | 14-114-44a 14-114-44b |
वैशम्पायन उवाच। | 14-114-45x |
भक्तिगद्गदया वाचा स्तुवत्येवं युधिष्ठिरे। गृहीत्वा केशवो हस्ते प्रीतात्मा तं न्यवारयत्।। | 14-114-45a 14-114-45b |
निवार्य च पुनर्वाचा भक्तिनम्रं युधिष्ठिरम्। वक्तुमेव नरश्रेषठ धर्मपूत्रं प्रचक्रमे।। | 14-114-46a 14-114-46b |
भगवानुवाच। | 14-114-47x |
अन्यवत्किमिदं राजन्मां स्तौषि नरपुङ्गव। तिष्ठ पृच्छ यथापूर्वं धर्मपूत्र युधिष्ठिर।। | 14-114-47a 14-114-47b |
युधिष्ठिर उवाच। | 14-114-48x |
भगवंस्त्वत्प्रसादात्तु धर्मं स्मृत्वा पुनःपुनः। न शान्तिरस्ति मे देव नृत्यतीव च मे मनः।। | 14-114-48a 14-114-48b |
इदं च धर्मसंपन्नं वक्तुमर्हसि माधव। कृष्णपक्षेषु द्वादश्यामर्चनीयः कथं भवेत्।। | 14-114-49a 14-114-49b |
भगवानुवाच। | 14-114-50x |
शृणु राजन्यथापूर्वं तत्सर्वं कथयामि ते। परमं कृष्णद्वादश्यामर्चनायां फलं मम।। | 14-114-50a 14-114-50b |
एकादश्यामुपोष्याथ द्वादश्यामर्चयेत्तु माम्। विप्रानपि यथालाभं पूजयेद्भक्तिमान्नरः।। | 14-114-51a 14-114-51b |
स गच्छेद्दक्षिणामूर्तिं मां वा नात्र विचारणा। चन्द्रसालोक्यमथवा ग्रहनक्षत्रपूजितः।। | 14-114-52a 14-114-52b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वैष्णवधर्मपर्वणि चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः।। |
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