महाभारतम्-14-आश्वमेधिकपर्व-108

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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति यत्यग्निमहिमानुवर्णनम्।। 1 ।। दानपात्रब्राह्मणलक्षणकथनम्।। 2 ।। तथाऽन्नदानप्रशंसनम्।। 3 ।।

युधिष्ठिर उवाच। 14-108-1x
अनेकान्तं बहुद्वारं धर्ममाहुर्मनीपिणः।
किंलक्षणोसौ भति तन्मे ब्रूहि जनार्दन।।
14-108-1a
14-108-1b
भगवानुवाच। 14-108-2x
शृणु राजन्समासेन धर्मशौचविधिक्रमम्।
अहिंसा शौचमक्रोधमानृशंस्यं दमः शमः।
आर्जवं चैव राजेन्द्र निश्चितं धर्मलक्षणम्।।
14-108-2a
14-108-2b
14-108-2c
ब्रह्मचर्यं तपः क्षान्तिर्मधुमांसस्य वर्जनम्।
मर्यादायां स्थितिश्चैव शमः शौचस्य लक्षणम्।।
14-108-3a
14-108-3b
बाल्ये विद्यां निषेवेत यौवने दारसंग्रहम्।
वार्धके मौनमातिष्ठेत्सर्वदा धर्ममाचरेत्।।
14-108-4a
14-108-4b
ब्राह्मणान्नावमन्येत गुरुन्परिवदेन्न च।
यतीनामनुकूलः स्यादेष धर्मः सनातनः।।
14-108-5a
14-108-5b
यतिर्गुरुर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वेषां पार्थिवो गुरुः।।
14-108-6a
14-108-6b
यद्गृहस्तार्जितं पापं ज्ञानतोऽज्ञानतोपि वा।
निर्दहिष्यति तत्सर्वमेकरात्रोषितो यतिः।।
14-108-7a
14-108-7b
दुर्वृत्ता वा सुवृत्ता वा ज्ञानिनोऽज्ञानिनोपि वा।
गृहस्थैर्यतयः पूज्याः परत्र हितकाङ्क्षिभिः।।
14-108-8a
14-108-8b
एकदण्डी त्रिदण्डी वा शिखी वा मुण्डितोपि वा।
काषायदण्डधारोपि यतिः पूज्यो न संशयः।।
14-108-9a
14-108-9b
अपूजितो गृहस्थैर्वा तथा चाप्यवमानितः।
यतिर्वाऽप्यतिथिर्वाऽपि नरके पातयिष्यतः।।
14-108-10a
14-108-10b
तस्मात्तु यत्नतः पूज्या मद्भक्ता मत्परायणाः।
मयि संन्यस्तकर्माणः परत्र हितकाङ्क्षिभिः।।
14-108-11a
14-108-11b
प्रहरेन्न द्विजान्विप्रो गां न हन्यात्कदाचन।
भ्रूणहत्यासमं चैव उभयं यो निषेवते।।
14-108-12a
14-108-12b
नाग्निं मुखेनोपधमेन्न च पादौ प्रतापयेत्।
नाधः कुर्यात्कदाचित्तु न पृष्ठं परितापयेत्।।
14-108-13a
14-108-13b
नान्तरा गमनं कुर्यान्न चामेध्यं विनिक्षिपेत्।
उच्छिष्टो न स्पृशेदग्निमाशौचस्थो न जातुचित्।।
14-108-14a
14-108-14b
श्वचण्डालादिभिः स्पृष्टो नाङ्गमग्नौ प्रतापयेत्।
सर्वदेवमयो वह्निस्तस्माच्छुद्धः सदा स्पृशेत्।।
14-108-15a
14-108-15b
प्राप्तमूत्रपुरीषस्तु न स्पृशेद्वह्निमात्मवान्।
यावत्तु धारयेद्वेगं तावदप्रयतो भवेत्।।
14-108-16a
14-108-16b
पचनाग्निं न गृह्णीयात्परवेश्मनि जातुचित्।
तस्मिन्पक्वेन चान्नेन यत्कर्म कुरुते शुभम्।।
14-108-17a
14-108-17b
तस्यैव तच्छुभस्यार्धमग्निदस्य भवेन्नृप।
तस्माद्गृहगतं वह्निं प्रकुर्यादविनाशितम्।।
14-108-18a
14-108-18b
प्रमादाद्यदि वाऽज्ञानात्तस्य नाशो भविष्यति।
गृह्णीयात्तु मथित्वा वा श्रोत्रियागारतोपि वा।।
14-108-19a
14-108-19b
युधिष्ठिर उवाच। 14-108-20x
कीदृशाः साधवो विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्।
कीदृशेभ्यो हि दातव्यं तन्मे ब्रूहि जनार्दन।।
14-108-20a
14-108-20b
भगवानुवाच। 14-108-21x
अक्रोधनाः सत्यपरा धर्मनित्या जितेन्द्रियाः।
तादृशाः साधवो विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्।।
14-108-21a
14-108-21b
अमानिनः सर्वसहा दृष्टार्था विजितेन्द्रियाः।
सर्वभूतहिता मैत्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम्।।
14-108-22a
14-108-22b
अलुब्धाः शुचयो वैद्या हीमन्तः सत्यवादिनः।
स्वधर्मनिरता ये तु तेभ्यो दत्तं महाफलम्।।
14-108-23a
14-108-23b
साङ्गंश्च चतुरो वेदान्योऽधीयेत दिनेदिने।
शूद्रान्नं यस्य नो देहे तत्पात्रमृषयो विदुः।।
14-108-24a
14-108-24b
प्रज्ञाश्रुताभ्यां वृत्तेन शीलेन च समन्वितः।
तारयेत्तत्कुलं सर्वमेकोपीह युधिष्ठिर।।
14-108-25a
14-108-25b
गामश्वमन्नं वित्तं वा तद्विधे प्रतिपादयेत्।
निशम्य तु गुणोपेतं ब्राह्मअणं साधुसंमतम्।
दूरादाहृत्य सत्कृत्य तं प्रयत्नेन पूजयेत्।।
14-108-26a
14-108-26b
14-108-26c
युधिष्टिर उवाच। 14-108-27x
धर्माधर्मविधिस्त्वेवं भीमं भीष्मेण भाषितम्।
भीष्मवाक्यात्सारभूतं वद धर्मं सुरेश्वर।।
14-108-27a
14-108-27b
भगवानुवाच। 14-108-28x
अन्नेन धार्यते सर्वं जगदेतच्चराचरम्।
अन्नात्प्रभवति प्राणः प्रत्यक्षं नास्ति संशयः।।
14-108-28a
14-108-28b
कलत्रं पीडयित्वा तु देशे काले च शक्तितः।
दातव्यं भिक्षवे चान्नमात्मनो भूतिमिच्छता।।
14-108-29a
14-108-29b
विप्रमध्वपरिश्रान्तं बालं वृद्धमथापि वा।
अर्चयेद्गुरुवत्प्रीतो गृहस्थो गृहमागतम्।।
14-108-30a
14-108-30b
क्रोधमुत्पतितं हित्वा सुशीलो वीतमत्सरः।
अर्चयेदतिथिं प्रीतः परत्र हितभूतये।।
14-108-31a
14-108-31b
अतिथिं नावमन्येत नानृतां गिरमीरयेत्।
न पृच्छेद्गोत्रचरणं नाधीतं वा कदाचन।।
14-108-32a
14-108-32b
चण्डालो वा श्वपाको वा काले यः कश्चिदागतः।
अन्नेन पूजनीयः स्यात्परत्र हितमिच्छता।।
14-108-33a
14-108-33b
पिधाय तु गृहद्वारं भुक्ते योऽन्नं प्रहृष्टवान्।
स्वर्गद्वारपिधानं वै कृतं तेन युधिष्ठिर।।
14-108-34a
14-108-34b
पितॄन्देवानृषीन्विप्रानतिथींश्च निराश्रयान्।
यो नरः प्रीणयत्यन्नैस्तस्य पुण्यफलं महत्।।
14-108-35a
14-108-35b
कृत्वा तु पापं बहुशो यो दद्यादन्नमर्थिने।
ब्राह्मणाय विशेषेण सर्वपापैः प्रमुच्यते।।
14-108-36a
14-108-36b
अन्नदः प्राणदो लोके प्राणदः सर्वदो भवेत्।
तस्मादन्नं विशेषेण दातव्यं भूतिमिच्छता।।
14-108-37a
14-108-37b
अन्नं ह्यमृतमित्याहुरन्नं प्रजननं स्मृतम्।
अन्नप्रणाशो सीदन्ति शरीरे पञ्च धातवः।।
14-108-38a
14-108-38b
बलं बलवतो नश्येदन्नहीनस्य देहिनः।
तस्मादन्नं विशेषेण श्रद्धयाऽश्रद्धयापि वा।।
14-108-39a
14-108-39b
आदत्ते हि रसं सर्वमादित्यः स्वगभस्तिभिः।
वायुस्तस्मात्समादाय रसं मेधेषु धारयेत्।।
14-108-40a
14-108-40b
तत्तु मेघगतं भूमौ शक्रो वर्षति तादृशम्।
तेन दिग्धा भवेद्देवी मही प्रीता च ****
14-108-41a
14-108-41b
तस्यां सस्यानि रोहन्ति यैर्जीवन्त्यखिलाः प्रजाः।
मांसमेदोस्थिमज्जानां सम्भवस्तेभ्य एव हि।।
14-108-42a
14-108-42b
एवं सूर्यश्च पवनो मेघः शक्रस्तथैव च।
एक एव स्थितो राशिर्यतो भूतानि जज्ञिरे।।
14-108-43a
14-108-43b
भवनानि च दिव्यानि दिवि तेषां महात्मनाम्।
नानासंस्थानि भूतानि नानाभूमिगतानि च।।
14-108-44a
14-108-44b
चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किङ्किणीजालवन्ति च।
तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च।।
14-108-45a
14-108-45b
अनेकशतसङ्ख्यानि सान्तर्जलवनानि च।
तत्र पुष्पफलोपेताः कामदाः सुरपादपाः।।
14-108-46a
14-108-46b
वाप्यो बद्धसभाः कूपा दीर्घिकाश्च सहस्रशः।
भक्ष्यभोज्यमयाः शैला वासांस्याभरणानि च।।
14-108-47a
14-108-47b
क्षीरस्रवन्त्यः सरितस्तथा चैवान्नपर्वताः।
घोषवन्ति च यानानि युक्तान्यथ सहस्रशः।।
14-108-48a
14-108-48b
प्रासादप्रवराः शुभ्राः शय्याश्च कनकोज्ज्वलाः।
अन्नदास्तत्र तिष्ठन्ति तस्मादन्नप्रदो भवेत्।।
14-108-49a
14-108-49b
।। इति श्रीमन्महाभारते आश्वमेधिकपर्वणि
वैष्णवधर्मपर्वणि अष्टोत्तरशततमोऽध्यायः।। 108
आश्वमेधिकपर्व-107 पुटाग्रे अल्लिखितम्। आश्वमेधिकपर्व-109